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बरखा का गौनागीत...🌧️

  माह आश्विन (क्वार) का है और पक्ष पितरों का चल रहा है। समक्ष गिर रहीं संभवतः यह बरखा की बूंदों का मानसून के अपने घर वापसी के पहले का रूदनगीत हो।घर से कार्यस्थल जाने के रस्ते में मैं देख रही थी तेजी से बरखा की बूंदो को धरती पर गिरते हुए।मानो धरती के गले मिलने को कितनी आतुर हों कि अब मिलेंगे छह-सात माह बाद!मानो कह रहीं हों इस विदा की बेला में ढंग से मिल तो लें!यह भी कि सबके हिस्से आना चाहिए ठीक ढंग से अलविदा कहने का हक़।प्रकृति हो कि मनुष्य। इसके बाद अब उत्सवों के दिन लौटेंगे।ऋतुएँ पहले शरद का सुहानापन,फिर हेमंत की आत्मकरूणा,और पुनः शिशिर की आत्मदैन्यता ओढ़े-लपेटे आयेंगी अपने ठिठुरते दिनरात को लिए।धीरे-धीरे दिन की लंम्बाई घटती ही रहेगी।सब समेटा करेंगे इन दिनों में अब खुद को जल्दी-जल्दी।दिनमान छोटे हो जायेंगे।और रातें जाने किस शोक में गहरी और दीर्घ।  धूप का भी स्वर कोमल हो जाएगा।देखूंगी धूप के चढ़ाव के उतार को।किंतु मैं जिसके मन को भाता है दिनों का फैलाव और धूप का तेज,उचाट मन लिये देखूंगी दिनों को स्वयं को समेटते हुए शीघ्रता से,बेमन से।गोया जीवन को देखती हूँ उचाट मन से।यूँ भी भादो क्वार
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पिताजी,राजा और मैं

  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं

शिक्षक दिवस:2023

विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

प्रश्नों का बैताल...

नैतिक और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से अव्यवस्थित इस संसार में एक प्रश्न गाहे-बगाहे मेरे समक्ष उठता है कि क्या प्रेम कोई वस्तुनिष्ठ चीज है अथवा यह नितांत व्यक्तिगत भाव है?यदि विषयी पर निर्भर है तो वह प्रेम जो किसी के ह्रदय में एक दिन ज्वार बनकर उमड़ा था,अचानक वह लुप्त कहाँ हो जाता है!किंतु व्यक्तिगत स्तर पर यह तथापि कुछ हद तक स्वीकार्य है कि प्रेमिल मन किसी कारण बदल गयें।जैसा कि एक गीत में गीतकार कहता है, "कब बिछड़ जायें हमसफ़र ही तो हैं, कब बदल जायें एक नजर ही तो है!" किंतु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि यह नितांत निजी कोई भाव या धारणा है। वैसे भी इस भाव के व्यक्तिगत न होने का यह भी कारण है कि यदि दो प्रेमी मन से इतर प्रेम की बात करें तो प्रेम समस्त नैतिकता के मूल में है।अतः यह कोई विषयी पर निर्भर भाव मात्र नहीं अथवा कोई निजी‌ अवधारणा नहीं सिवाय इसके कि कौन कब किसके प्रेम में कोई पड़ जाय,यह कोई निश्चित बात नहीं है और यह नितांत व्यक्तिगत चाहना है।  किंतु यहाँ समस्या और गंभीर रूप धारण करती है जब प्रेम को वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जाय!और हम एकदम सिरे से नकार भी नहीं सकतें कि यह कोई वस

यात्राएं

  यह जीवन अपने आप में एक यात्रा है निरपेक्ष रूप से। जहाँ इसको किसी अन्य यात्रा की,यात्री की,गंतव्य की आवश्यकता नहीं है।पथ की,पथिक की आवश्यकता नहीं है।जीवन निरपेक्ष रूप से ठीक वैसे ही यात्रारूप है जैसे अद्वैत का परमब्रह्म(Super Conscious)।यात्रा जीवन का स्वरूप ही है जैसे प्रकाश सूर्य का। किंतु जीवन के आनन्तर्य में अनेकों सापेक्ष यात्राएं होती हैं, जो जीवन के इस रूप की ही पहचान करवाती हैं। कैसी पहचान! कैसी यात्रा! यही कि यात्राएं तो करनी पड़ेंगी चाहे अनचाही हों या चाही गई।क्योंकि अपने स्वरूप में निरपेक्ष जीवन इन सापेक्ष यात्राओं से ही गति पाती है। यही जीवन का स्वरूप है!यही इसकी पहचान! इस लेख में मेरे जीवन से जुड़ी दो यात्राओं की दो तस्वीरें हैं।पहली जब सूरज डूब रहा था।ठीक उसी समय कहीं सच में जीवन का सूरज डूब रहा था। यह एक अनचाही यात्रा थी। दूसरी,जब सूरज उदय हो रहा था। ठीक अगली सुबह कहीं सच में नवजीवन की पहली यात्रा की तैयारी थी।यद्यपि यह सूर्योदय होने में पांच बरस लग गयें।किंतु किसी ने ठीक ही कहा है कि'एक दिन बरसों का संघर्ष बड़े खूबसूरत तरीके से हमसे टकराता है' ।

शहर

आप जिससे प्यार करते हैं,उसके लिए उसके बेहतर जीवन की सबसे सुंदर कल्पना कीजिये! हम करते ही होंगे अपनों के लिए ऐसी सुंदर कल्पना!  ठीक वैसे ही जिसका सम्मान करते हैं,उसके ऐसा बन जाने की कल्पना कीजिये कि उसकी सुंदरता की गवाही को शब्द की आवश्यकता न पड़े! शुभकामनाओं का असर जब पड़ता है तो वे ताजे गुलाब सा निखर उठते हैं।ऐसा प्यार और सम्मान हम उन शहरों के लिए भी कर सकते हैं जहाँ हमने जन्म लिया!जहाँ हमारे सपने पूरे होते हैं।जहाँ हमारे अपने रहते हैं! जहाँ से रोजी-रोटी चलती है।  ऐसे ही समय की दहलीज पर बिखरा पड़ा मेरा अस्तित्व बरसों की मेहनत बाद एकदिन अपने सार को जब ग्रहण करता है तब यह वह दिन था जब मैंने उस शहर के बारे में जाना,जिसका नाम भी कभी नहीं सुना था।तमाम आशंकाओं-चिंताओं,कुछ मिलने की खुशी और कुछ छूट जाने के परिताप को अपने तेवर की पोटली में बांधकर एक नये शहर में प्रवेश करती हूँ।  जीवन की सबसे बड़ी खुशियों में से एक खुशी और अपनों से बिछोह का दुख एक ओर,और मैं खोज़ में रही एक अदद जगह की तलाश में जहाँ शामें गुजारी जा सकें,जहाँ सारा तनाव,सब चिंताएं बहाई जा सकें! द्वन्द्व सुलझाई जा सकें!जिसके किनारे

मेरे बाबा

    मेरा यह वर्तमान जीवन मेरे बाबा का आशीर्वाद है। आह ! द्वंद्वों से युक्त फिर भी कितना संतोषपूर्ण जीवन है। सब है यहाँ। दुःख-सुख, मान-अपमान, बदनामी-यश, प्रेम-विश्वास,पुस्तकें, खेल,राजनीति, बहस,सेहत,संगीत।  एक बेतरतीब बेवकूफी तो अबूझ उदासी फिर भी एक मस्तमौलापन। पाताललोक तक पहुंचा देने वाले बैचेनियों के साथ आकाश छूता आत्मविश्वास भी।तमाम निराशाओं के बाद भी एक सकारात्मक दृष्टिकोण। यह भी मालूम है कि मेरे हाथ में बहुत कुछ नहीं हैं फिर भी कर्मशील बने रहने को सदैव तत्पर,मज़बूत इच्छाशक्ति भी, व्यक्तित्व की स्मार्टनेस भी। भौतिक चाहना के साथ आध्यात्म भी!सब तो है। क्यों है? क्योंकि यह जीवन मेरे बाबा का आशीर्वाद है। मैं इस मामले में सौभाग्यशाली हूं कि अपने जीवन को अपनी सोच के अनुरूप ढालने के प्रयास में सफल हूँ । और जो कुछ रह गया है,वह भी शीघ्र होगा। जो देरी है, वह मेरी कमी है।किंतु मैं उन तमाम सेनाओं के विरुद्ध जिन्होंने मेरी आत्मा के उजले पक्ष पर घेरा डाला है,मैं उन सबसे जीत जाऊंगी एक दिन।  क्यों? क्योंकि मेरे बाबा के लिए मैं स्पेशल हूँ। वे मुझे कभी हारने नहीं देंगे।  मेरे पास दूसरे को देने के लिए

Simone de Beauvoir

  सिमोन,दुनिया के उन कुछ व्यक्तित्व में से एक हैं जो मुझे बेहद पसंद हैं।जबकि उनके सिद्धांतों,उनके जीवन जीने के तरीकों,उनके प्रेम संबधों,उनके विचारों से मुझे घोर असहमति है।किन्तु फिर भी सिमोन मेरी फेवरेट हैं।फेवरेट या पसंद करने के लिए,किसी का आदरणीय बनने के लिए बिलकुल आवश्यक नहीं कि हम उसके प्रत्येक बातों-विचारों से सहमत ही हों। बहरहाल,  सिमोन मुझे पसंद हैं क्योंकि उन्होंने जीवन को अपनी शर्तों पर जिया।अपने सपने पूरे करने के लिए जीवन में रिस्क लिया।अपने उसूलों,अपने सिद्धांतों के लिए अपने प्रेम (उनके समकालीन महान अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यां पाॅल सार्त्र से उनके प्रेम प्रसंग उन दिनों पूरे यूरोप में चर्चा का विषय था) को भी ठुकराने से गुरेज़ नहीं किया।मुझे वो लोग पसंद आते हैं जो जीवन में किसी से प्रेम करते हैं और बेइंतहा करते हैं जैसे सिमोन ने सार्त्र से किया।किन्तु मुझे वो लोग बहुत पसंद आते हैं जो जीवन में अपने कैरियर,अपनी स्वतंत्रता को प्रत्येक स्थिति में प्राथमिकता देते हैं और दोनों का बेहतरीन तालमेल जीवन में बिठाते हैं।जैसे कि सिमोन ने किया।सार्त्र से बेहद प्रेम करने के बाद भी अपने क्षेत

दर्शन और साहित्य का सम्बंध और निर्मल वर्मा

  निर्मल को पढ़ते समय दर्शन में बुद्धिवादियों की देह-मन की समस्या सुलझती हुई दिखती है।इतनी कोमल भाषा कि देह की जड़ता गल जाती है और मन,देह का सारा पानी सोखकर नम हो जाता है।        तब जड़ और चेतन,मन और शरीर की समस्या जो इतनी गहरा गई थी पाश्चात्य चिंतन में कि डेकार्ट को द्रव्य का द्वैत स्वीकारना पड़ा और स्पिनोज़ा को गुणों का द्वैत जबकि उनकी दर्शन प्रतिध्वनि है अद्वैत की,यह एक समस्या इस प्रतिध्वनि को थोड़ा कर्कश बना देती है।और लाइबनित्ज़ को जिन्होंने सबकुछ चेतन माना और स्वतंत्र माना,उसे भी इस द्वैत को सुलझाने के लिए असंगत कल्पना करनी पड़ती है और ईश्वर को परम चिद्णु कहकर चिद्णुओं की स्वतंत्रता ही छीन लेते हैं।किंतु निर्मल इस द्वैत को झट से सुलझा देते हैं और दोनों के द्वैत के अहम को गला देता है।                    निर्मल बहुत सूक्ष्म और गम्भीर बातें कहते हैं बहुत ही नाजुकता से।ऐसा लगता है कि दर्शन के,जीवन के गूढ़ रहस्यों का रेशा-रेशा खोलते हैं।किंतु इतनी मसृण भाषा में कि समझने के लिए रूकना ठहरना पड़ेगा इसदौड़ती-भागती जिंदगी में।   किंतु इसमें रिस्क भी है कि जिन वेदनाओं को मन के गहन अंधेरे हि

रांझणा...

  एक फिल्म बनाने की इच्छा है रांझणा जैसी!जिसके माध्यम से मुझे बस यही बताना है कि कुंदन हो कि जोया दोनों अतिवादी चरित्र वाले हैं!मैं अपनी इस मान्यता के लिए जब इस दुनिया में तथ्यों को देखती हूँ तो मुझे यही दोनों चरित्र वाले दिखते हैं! मैंने प्रेम में लोगों को मरते देखा है,घर बार छोड़ते देखा है,पागल होते देखा है,यहाँ तक कि साधु बने भी देखा है,गहरी दोस्ती को किसी के प्रेम में पड़ पीठ में छूरा खाते सुना है,किसी पहाड़ी से धकेल दिया जाना सुना है। पीछे घरवालों को इस अपशकुन का साया जीवनभर घेरे हुए रखना देखा है।इसलिए प्रेम करना बुरा नहीं है,बुरा है प्रेम में कुंदन बन जाना!सब बनना,लेकिन कुंदन नहीं बनना है!जबकि एक दोस्त हो,एक प्रेमिका हो,बनारस जैसा शहर हो,तब तो बिलकुल भी कुंदन बनकर दम तोड़ना गंवारा नहीं करना है।  मुझे यह भी बताना है कि दुनिया मुरारियों से रिक्त है और मुरारी जैसों की जगह कोई नहीं ले सकता!क्या किया जा सकता है जो इस निष्ठुर प्रपंच संसार में कोई मुरारी जो नहीं मिलता!मिलते हैं तो...।यहाँ खाली स्थान भरने के लिए मुझे मालूम है अनेकों नाम होंगे।इसलिए हम सबको अपने-अपने जीवन का मुरारी स्वयं

एक पुराना दोस्त...

लगभग दो दशक बाद एक दोस्त (स्कूल के दिनों में सीनियर थीं मेरी) से जब आज बात हुई तब बातचीत के मध्य जो सबसे मर्मभेदी लगा,वो उसका प्यार से बीच बीच में ये कहना कि-" मेरी अनु"!बहुत दिनों बाद शायद सुनने को मिला,"मेरी अनु"!  अन्यथा तो अवचेतन स्तर में अब यही अहसास है कि अब मैं किसी की नहीं और कोई मेरा नहीं!अचानक लगा कि हमारी वय के हमलोग मित्रता भी कितनी औपचारिकता भरी करते हैं!अब कहाँ उतनी आत्मीयता से कहते हैं या कह पाते हैं कि "मेरी/मेरा "!  ऐसी आत्मीयता बचपने वाली मित्रता में ही मिल सकती है।क्योंकि तब मित्रता शुद्ध भावों से होती थी अथवा कुछ अत्यंत छोटी छोटी आवश्यकताओं के कारण!एक उम्र के उपरांत संभवतः मित्रता या सामाजिक संबंध अपने अपने स्टेटस को दिखाने के लिए हम करते हैं।संभवतः यही कारण हो कि वह जुड़ाव नहीं हो पाता जो जुड़ाव बचपन में अथवा किशोरावस्था की मित्रता में होते थें।  मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि उसे मेरा जन्मदिन याद था जब मैंने उससे कहा "चल झूठी"।तब उसने कहा "नहीं, मैं तुम्हारे हर जन्मदिन पर तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करती हूँ"। मैंन

छूटना...

 बहुत से लोग,बहुत सी चीजें हैं जिन्हें मैं चाहती थी कि वे सदैव मेरे साथ रहें।किंतु अब उम्र के उस पड़ाव पर हूं,जब यह भलीभाँति भान है कि 'प्रिय से वियोग' ही इस जीवन की नियति है।                  यद्यपि उम्र का वह मोड़ है जहां अब मैं किसी को बांधती नहीं,बांधने का प्रयास भी नहीं करती।न ही बांधने की कोई अतिरिक्त चाह ही है।आखिरकार कितना कुछ छूट भी तो चुका है!जाने क्या- क्या छूटना बाकी है!शहर छूटा,शहर की वह तमाम गलियां छूटीं जिसके मन करने पर जब तब फेरे लगते रहते थें।शहर के उन आत्मीयों के घर आना-जाना छूटा,वह आंगन छूटा जिसमें बैठे जाने कितने सुबहों को शाम किये थें।तमाम लोग,कई चौराहे,वह चाय की दुकान छूटी जहाँ से बिना चाय पिये घर जाना दोस्तों में पाप था।                    तो यह निश्चित है जीवन की गति और परिवर्तनशीलता के चक्र में कुछ न कुछ छूटना तो निश्चित है।अब वह आप का प्रिय है या अप्रिय, इससे जीवन को रंच मात्र अंतर नहीं पड़ता।तथापि हर बार इस प्रक्रिया में कुछ है जो कंठ तक आकर रूक जाता है।संभवतः प्राण हो! अब उसे तो अपनी उम्र पूरी करनी है सो मन मारकर कंठ से पुनः देह में व्याप्त हो जाना ह

मेरी नींद...

इरशाद कामिल ने लिखा है,'कागा रे कागा रे मोरी इतनी अरज तोसे चुन चुन खाइयो मांस, न तू नैणा मोरे खाईयों जिसमें पिया के मिलन की आस'!  कभी कभी मुझे लगता है जैसे इसी कागा चुरा ली हो मेरी नींद हितैषी बन!कि जब तक जिऊँ पियमिलन की आस आंखों में तैरती रहे और मरूँ तो आंखें खुली रहें कि मैं सोती रहूँ और प्राण संग उड़ न जाए मिलन की आस। मैं जो सोचती हूँ कि कभी उस कागा की तलाश में निकलूँ तो पता लगता है सबकुछ अपनी जगह पर है,रास्ते भी,मंजिलें भी।किंतु कदम की ताल अब बिगड़ गई है।यूँ भी माँ कहती थी बचपन में पक्षीयों से डरने पर जब वे आंगन में उतर आते कि कहीं मेरे हाथ की रोटी छीन न ले जाए कि पंक्षियों से भला क्या डरना!वे पलभर कहीं ठहरते हैं फिर कहीं और चल देते हैं।जिस पक्षी से मैं डर रहीं हूँ वो तो अब जाने उड़कर कहाँ चली गई होगी। किंतु फिर भी मुझे सोना है खूब गहरी नींद जो जाने कब से खो गई है और मैं मानो सदियों की थकी!मुझे ऐसी नींद चाहिए जैसी माँ के गर्भ में कि माँ ने जो खाया उससे पोषण मिला,भूख मिटी,अब माँ ही दुनिया से लड़ लेगी मेरे लिए और मैं तबतक खूब गहरी नींद में सोऊं।जो यह भी न हो सके तो एक ऐसी शाम

अजनबीपन... 2

अजनीबन का एहसास एक आतंक है जो घर से निकलते ही मुझे घेर लेता है।मैं जब अपने कमरे में होती हूँ तब तक सब ठीक लगता है क्योंकि कमरे पर मेरी पुस्तकें हैं,मोबाइल है जिसपर मैं अपना पसंदीदा गाना सुन सकती हूँ,एक रसोई है जिसपर मनचाहा कुछ बना सकती हूँ।यहाँ मेरे अलावा कोई और नहीं जिससे मुझे भय हो,जो मुझे नहीं जानता,इसलिए अजनबी होने का किसी से भय भी नहीं है।  ऐसा लगता है मानो जीवन एक बियाबान जंगल है जहाँ हजारों आंखे आपको देख रहीं हों लेकिन आप उनमें से किसी को नहीं जानते।जान भी ले तो समझ की एक खाई होती है जो मेरे और सामने वाले के मध्य होती है इसलिए हम अजनबी ही रह जाते हैं।यदि कोई जानपहचान का मिल भी जाए तो मैं भय खाती हूँ कि कोई रोककर मेरा हाल चाल न पूछे क्योंकि तब मुझे झूठ कहना पड़ेगा,झूठ सुनना पड़ेगा।मैं जानती हूँ कि अपने ही द्वारा कहे गये शब्दों के साथ लोग कैसा छल करते हैं फिर भला उसके भाव,उसके अर्थ तक मैं ही कैसे पहुचुंगी जब वे स्वयं नहीं पहुंच पाते और इस तरह हजारों लोगों से घिरी मेरी दुनिया में मैं अजनबी ही रह जाती हूँ। ऐसा नहीं है कि यह मेरे दुख का कारण है,पीड़ाओं का कारण है।किंतु यह मेरे भय का

पीत-नील वर्ण

  मेरी पसंद में सदैव से मौजूं था पीत रंग!  रंगों में जो कृष्ण था! कोई रंग ऐसा भी नहीं था,जो नापसंद हो मुझे! दरअसल मैंने अन्य रंगों की उपस्थिति पर विचार नहीं किया कभी!  मेरे संदर्भ में रंग का तात्पर्य था उससे उपजा आत्मविश्वास! उससे पनपा प्रेम!  उससे बिखरी जग में करूणा! मैं पसंद करती थी उसे,  जिसे पसंद था पीला रंग! धीरे धीरे उसके सारे पसंद मेरे पसंद बनते गए! फिर उसके-मेरे पसंद में द्वैत नहीं रह गया! मेरे लिए सूर्य पीला हो गया, पीला चाय का रंग, मेरी नजरों में पृथ्वी- पेड़- पहाड़ सब पीले हो गए! मैंने सब रंगों से दुश्मनी कर ली, मेरे लिए सर्वत्र बस पीले रंग का एकछत्र राज्य था! किंतु एक दिन!काल का चक्र घूमा और एक धोखे का धूमकेतु आ लगा मेरी पीठ पर! पसंद में अब भी द्वैत था किंतु पसंद करने वाले द्वैती हो गए! जाते हुए कहा उसने -'अपना ध्यान रखना'! मुझे इस वाक्य में नीलापन नजर आया! लम्बे समय बाद मुझे होश आया!  अब मुझे दुनिया के तमाम चीजों में नीला रंग आया! वही नील जो चोट लगने पर उभर आता है, मेरे लिए सूर्य नीला हो गया, नीला चाय का रंग औ!  मेरी नजरों में पृथ्वी-पेड़-पहाड़ सब नीले हो गए! दिसम्

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

एक शिविर से लौटने के उपरांत...

दुनिया भर के दुख को सहते हुए भी मनुष्य मरना नहीं चाहता।जीवन से उसका मोह बना रहता है।यही मोह उसे मृत्यु के समय देह का त्याग करते हुए उसके अथाह पीड़ा और पुनः भवचक्र में फंस जाने का कारण बनती है।यही मोह मां के गर्भ से बाहर आने पर होने वाले कष्ट का कारण बनती है।यही मोह अगले किसी जनम में,किसी योनि में उसकी व्याकुलता का बीज बोती है।उस सुख की तलाश में जो पिछले जीवन में मिला था,उसको ढूंढते हुए बैचेन फिरता है पर सुख किसी ठौर मिलता नही।  किंतु मनुष्य से बढ़कर छलिया भी भला कौन है!वह स्वयं को छलने में ही अत्यंत माहिर है।वह दूसरे किसी सुख,मोह,पीडाओं का आसरा ढूंढ लेता है और एकबार फिर स्वयं को छलते हुए नये जीवन की दुश्वारियों में खुद को घेर लेता है।वह ठहर जाता है अपनी व्याकुलता,अपनी बैचेनी के मूल तक जाने से और बुद्ध के शब्दों में यह भव चक्र चलता रहता है और मनुष्य का मन कभी उस चक्र से बाहर नहीं आ पाता।संभवत: विज्ञानवादी यही कहना-समझाना चाहते थें कि सबकुछ आत्मारोपित है।मानव मन अथवा चेतना की ऐसी कोई धारा,ऐसी कोई वृत्ति नहीं जो बाहर से आती हो!सबकुछ हमारे ही द्वारा रचा गया है।संभवतः इसीलिए यदि ईमानदारी से

हेमंत - पहला भाग

  हेमंत ( ऋतुओं का चक्र जाने क्या भेदने के लिए घूमता है, चित्त को व्याकुल किए रहता है किंतु मन है कि अपने ही वृत्तियों के जंजाल में फंसा रहता है)  यूँ तो हेमंत पर कुबेरनाथ राय जी ने जो लिखा है,उसके बाद क्या शेष रह जाता है और कुछ लिखने को!फिर सोचती हूँ यह तो उनकी बात हुई,उनके मन की बात हुई।वह हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं।मुझमें न वह ज्ञान,न भाषाशैली।किंतु वह भाव जो हेमंत को लेकर मुझमें है,जिसे प्रकट कर देना चाहिए अपनी टूटी-फूटी भाषा में ही।क्योंकि लिखना एक तरह से टाॅनिक का काम करता है।वह भी अवसाद के माह हेमंत में!करूणा के माह हेमंत में।हेमंत के बहाने हो सकता है वह सूक्ष्म स्थिति चित्त की पकड़ में आ जाए जो समय के मकड़जाल से,मन के चक्रव्यूह से संभवतः चेतना को निकाल उसे मुक्त कर सके।प्रतीत्यसमुत्पाद के,भव के चक्र से चेतना को बाहर निकाल सके।                कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध का शीर्षक देते हैं 'भाई फागुन,हिम्मत मत हारना'।मैं सोचती हूँ यह तो हेमंत को कहना चाहिए कि 'भाई हेमंत,हिम्मत मत हारना'।वहाँ यदि पतझड़ है तो पतझड़ का वैराग्य बसंतपंचमी में घुल बसंतोत्सव मना

घर से लौटने की पीड़ा...

            चित्र घर से लौटते वक्त रेलगाड़ी से ली गई...  घर! भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता की  कुछ लाइन्स हैं,- मैं मजे में हूँ,सही है, घर नहीं हूँ,बस यही है।  लेकिन ये बस बड़ा बस है,इस बस से सब विरस है।  यकीनन,घर से दूर सब दुनियाभर के आराम हो,शान हों लेकिन एक समय के बाद घर पर बस यूँ ही पड़े रहना कभी खाली,इसमें बहुत कुछ भरा होता है।इतना कि यह सांसों में जीवन भर देता है।  दुर्गापूजा और दिवाली-छठ मिलाकर उत्तर प्रदेश और बिहार में एक माह के अंदर में लगभग सप्ताह भर की छुट्टी मिल जाती है।मैं भी इन छुट्टियों में घर गई, बहन के घर गई।आज के समय या कहें कि किसी भी समय में माँ-बाप के बाद भी भाई-भौजाई-बहनें यदि पूछ लें तो मैं समझती हूँ यह भी जीवन का सौभाग्य है।न जाने किसके आशीर्वाद से यह सौभाग्य अब तक जीवन में व्याप्त है।बस एक कचोट रह गई मन में कि इस बार गाँव जाना न हो पाया।जबकि गाँव की याद रह रहकर गर्मी की छुट्टी से लौटने के बाद आ रही थी मानो कोई प्रतीक्षारत हो वहाँ।अब तो होली पर ही शायद जाना हो सके।  बहरहाल,  इस बार घर से लौटते समय यूँ ही अचानक ट्रेन के माहौल पर ध्यान गया।या कहें कि प्रशांत भ

भारतीय बौद्धिकता की दरिद्रता...

भारतीय बौद्धिकता अथवा भारतीय शिक्षा व्यवस्था की दरिद्रता तो देखिए!लगभग 27 वर्षों से अंग्रेजी और हिंदी में हर माह प्रकाशित होने वाली पत्रिका राजनेताओं,खिलाड़ियों,फिल्मी भांड-भांड़िनियों से नीचे गिरते हैं तो ऐसे संस्थानों और उनके रहनुमाओं को अपने मुखपृष्ठ पर स्थान देते हैं जिन्होंने शिक्षा को व्यापार बनाने और उसे बाजार के हाथों सौंप देने में अतुलनीय योगदान दिया है।जिन्होंने शैक्षणिक संस्थानों की हालत बद से बदतर करने में अभूतपूर्व योगदान दिया है।  क्या किसी विश्वविद्यालय,महाविद्यालय अथवा विद्यालय में ऐसे शिक्षक बचे ही नहीं हैं जो किसी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर स्थान न प्राप्त कर सकें?  बहरहाल,  इनमें से खान महोदय की जो भाषा-शैली है पढ़ाने की,उसे हमारे यहाँ "लवंडों" की भाषा-शैली कहते हैं।यही ढंग एक शिक्षण संस्थान का शिक्षक अपना ले,तब यही समाज उल्टे उसे पढ़ाने का ढंग सिखाने लगेगा।विकास दिव्यकीर्ति जी को क्या कहा जाए! महानायक हैं इस जमाने के।इन चारों में से सबसे अधिक छद्म आवरण धारण करने वाले।बाकी दोनों तो इतने इरीटेटिंग और तर्कहीन-तथ्यहीन हैं कि उन्हें दो मिनट सुनना भी न हो पाए।किंतु

जीवन का क्रिकेटीय आईना...

खेल,चाहे कोई भी हो,केवल इसलिए नही भाता कि वह खेल है और हमारा मनोरंजन करता है।खेल देखना या खेलना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि यह जीवन का आईना है।जैसे हम इस समष्टि रूपी स्वप्न में भी सोते हुए स्वप्न देखते हैं या कहें कि स्वप्न में स्वप्न देखते हैं,वैसे ही जीवन को जीते हुए खेल में जीवन के अक्स को देखना तब बहुत राहत देता है जब आप अर्श से फर्श पर होते हैं और एक लम्बी नाकामी,असफलता,आलोचना के बाद भी तमाम अटकलों,आलोचनाओं को धता बताते हुए पुनः अर्श पर जा विराजते हैं। हमारे-आपके जीवन की कहानी भी तो कुछ ऐसी ही होती है!कभी हम बुरी तरह हार जाते हैं,कभी जरा से अंतर से चूक जाते हैं!जिंदगी खूब भगाती-दौड़ाती है और हाथ आती है तब भी असफलता,निराशा-हताशा!गैरों की आलोचना,अपनों की बेरूखी!हमारे जीवन के समीक्षकों के हमारे चूक जाने का ऐलान!और एक दिन हम इन सबको गलत सिद्ध करते हुए पुनः अपने आपको मजबूती से खड़ा पाते हैं।हमें बस कोहली-पांडया की साझेदारी की तरह धैर्य के साथ अपनी जीवन की पारी को संभालकर,अश्विन की तरह समझदारी दिखाते हुए उन सब आलोचनाओं-बेरूखियो रूपी वाइड बाॅल को छोड़कर,उस अंतिम एक रन के लिए बिना किसी घब

सृष्टि के सम्मान का किस्सा,सभी का है हिस्सा…

  सृष्टि के सम्मान का किस्सा, सभी का है हिस्सा…  घर को कभी कभी इतने करीने से रख देती हूँ कि छूने से भय लगता है कि मेरे छूने से कमरे और उसके वस्तुओं की तन्मयता न टूट जाए कहीं! उनकी साधना भंग न हो जाए कहीं! आखिरकार जैन दर्शन तो स्वीकार करता भी है कि जड़ में भी चेतना है,भले सुप्त अवस्था में हो। बहुत संवार देने पर मेरा ही कमरा अजनबी लगने लगता है मुझसे। सुप्त चेतना से याद आया मनुष्यों की चेतना ही भला कौन सी जाग्रत है! तब सोचती हूँ कौन अधिक जड़ है या कहें कि कौन वास्तव में जड़ है? क्योंकि देखा जाए तो भारतीय दर्शन में एक पदार्थवादियों को,यथा- चार्वाक, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसकों को छोड़ दें तो बाकी जड़त्व पर बहुत आग्रहित नहीं हैं। तब यह प्रश्न मेरे सम्मुख सुरसा के जैसे मुंह बाए खड़ी हो जाती है कि जैनो, बौद्धों, अद्वैतियों की परिभाषा में कि आखिर जड़ है कौन? चेतनारहित दिखने वाली वस्तुएँ या मनुष्य! क्योंकि चेतना तो दोनों जगहें सुप्त हैं।     जड़ को यह कहकर कि उसमें सुप्त है चेतना, उन्हें वस्तु या विषय बना देना यह तो अन्याय है किसी के अस्तित्व के साथ! क्योंकि सोई हुई चेतना तो मनुष्य में भी है। पु