Skip to main content

बरखा का गौनागीत...🌧️

 

माह आश्विन (क्वार) का है और पक्ष पितरों का चल रहा है। समक्ष गिर रहीं संभवतः यह बरखा की बूंदों का मानसून के अपने घर वापसी के पहले का रूदनगीत हो।घर से कार्यस्थल जाने के रस्ते में मैं देख रही थी तेजी से बरखा की बूंदो को धरती पर गिरते हुए।मानो धरती के गले मिलने को कितनी आतुर हों कि अब मिलेंगे छह-सात माह बाद!मानो कह रहीं हों इस विदा की बेला में ढंग से मिल तो लें!यह भी कि सबके हिस्से आना चाहिए ठीक ढंग से अलविदा कहने का हक़।प्रकृति हो कि मनुष्य।

इसके बाद अब उत्सवों के दिन लौटेंगे।ऋतुएँ पहले शरद का सुहानापन,फिर हेमंत की आत्मकरूणा,और पुनः शिशिर की आत्मदैन्यता ओढ़े-लपेटे आयेंगी अपने ठिठुरते दिनरात को लिए।धीरे-धीरे दिन की लंम्बाई घटती ही रहेगी।सब समेटा करेंगे इन दिनों में अब खुद को जल्दी-जल्दी।दिनमान छोटे हो जायेंगे।और रातें जाने किस शोक में गहरी और दीर्घ। 

धूप का भी स्वर कोमल हो जाएगा।देखूंगी धूप के चढ़ाव के उतार को।किंतु मैं जिसके मन को भाता है दिनों का फैलाव और धूप का तेज,उचाट मन लिये देखूंगी दिनों को स्वयं को समेटते हुए शीघ्रता से,बेमन से।गोया जीवन को देखती हूँ उचाट मन से।यूँ भी भादो क्वार को और आने वाले अगले कुछ माह को देकर जाता ही है अपनी घनेरी काली रातों का उपहार।संध्याओं को ओढ़ाकर जाती हैं अपनी कृष्ण रातों के भारीपन का दुशाला।यह संध्याओं का भारीपन,काली रातों की गहराई अब कुछ माह गहराती ही रहेंगी।दिन ऐसे बीतेंगे जैसे कोई अनमने भाव से जी रहा हो जीवन।जो यूँ तो कितना लम्बा प्रतीत होता है किंतु कितनी शीघ्रता से बीत जाता है कि उम्र के चढ़ाव के उतरते वर्षों में यह प्रश्न पुनः-पुनः समक्ष सुरसा कि तरह मुंह बाये खड़े होते हैं कि अब तक किया क्या?

इन दिनों अब जब सांझ को सूरज अस्त होगा वह कहीं अधिक करूणा से भरा और अवसादमय लगेगा।गर्मियों में सूरज डूबते समय भी एक ठसक लिए होता है।एक सकरात्मक उर्जा से लबालब भरा कि कल इसी ताव से फिर आयेंगे जैसे आज आये थे संसार के पास।मेरे ताप को झेलने के लिए तैयार रहना ही होगा।किंतु इन दिनों!इन दिनों मानो डूबते समय यह कसक,यह टीस लिये डूबता है कि दिनों में भी जब उसका समय था,वह कितना शिथिल था! अब तो डूब ही रहें हैं,कल का कुछ पता नहीं! निकलना तो है किंतु क्या पता इस उदय पर कोहरा घना हो या कि निकले भी तो हड्डियों तक को कंपा देने वाली ठंड उसके ताप को ही कम कर दे!एक आत्मकरूणा,एक दीनता का भाव लिए सूरज बड़ी शीघ्रता से डूबेगा कि डूबने से पहले ही अंधियारा संसार पर पसर जाता है।गर्मियों में तो उसके अस्त होने के बाद भी बड़ी देर तलक उजाले की झीनी चादर संसार पर फैली रहती है। 

शीत ऋतु की यह सूरज डूबने की आत्मकरूणा,यह दीनता का भाव वैसे ही जगता है,प्रबल होता है जैसे एकांत में मन के पटल पर उमड़ पड़ते हैं ये भाव। मन यदि संसार की ओर उन्मुख हो तो यह दीनता, यह आत्मकरूणा बहुत खलता है।

यही आत्मकरूणा,यही दीनता तब भी प्रबल हो उठता है जब क्वार का पितृपक्ष चलता है।पितृपक्ष उनकी अनुपस्थित का अहसास है जिनके कारण हमारा अस्तित्व इस संसार में हैं।पितृपक्ष उनके अस्तित्व के बाद उनके अस्तित्वबोधक नैरन्तर्य का पखवाड़ा है।यह पक्ष संभवतः इस लिए हैं कि हमें यह ज्ञात रहे कि एक डोर है जो टूटती नहीं,एक धारा जो अजस्र है जबकि देह समाप्त हो‌ गई है।सम्बन्ध अब भी है। कुछ कर्त्तव्य अब भी हैं।अपेक्षाएँ रहती हैं।प्यास रहती है।

इस अबूझ प्यास और उमस से उत्पन्न घोर व्याकुलता और गहन वेदना की अवस्था जो चित्त को ऐसे पिघलाती है,अहंकार को ऐसे ग्रस लेती है जैसे दुख के ताप से हड्डीयाँ तक गल जाती हैं जबकि कहते हैं कि देह और मन दो विपरीत तत्व हैं।मैं सोचती हूँ कि पितृपक्ष के तुरंत बाद नवरात्र क्यों आता है!शीत ऋतु का यही एक वरदान है कि शक्ति इस ऋतु में भी आती हैं।संभवतः यही स्मरण करवाने की शक्ति रूप में माँ तो हरदम हैं हीं मन में,देह में।आखिर शक्ति न हो तो जीवन कहाँ ठहरेगा।और जहाँ माँ हैं,वहाँ पिता भी होंगे ही।फिर यह भी कि जो आत्मकरूणा जगी,जो दीनभाव उठा,उसे साध लें।गहन वेदना से लिपटे एकांत को साधकर जीवन को साध लें।ऐसे एकांत का अभ्यास हो जाए बिना दीनभाव और करूणा के तो समझें कि कुछ किया जीवन में।कुछ पाया जीवन में।इस प्रपंचरूपी संसार में जाना तो यूँ भी लगता है जैसे ऋण लिया हो किसी से।जिसे चुकाने के लिए पुनः पुनः आना होता है अस्तित्व में… 


Comments

Popular posts from this blog

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

शिक्षक दिवस:2023

विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

पिताजी,राजा और मैं

  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं