खेल,चाहे कोई भी हो,केवल इसलिए नही भाता कि वह खेल है और हमारा मनोरंजन करता है।खेल देखना या खेलना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि यह जीवन का आईना है।जैसे हम इस समष्टि रूपी स्वप्न में भी सोते हुए स्वप्न देखते हैं या कहें कि स्वप्न में स्वप्न देखते हैं,वैसे ही जीवन को जीते हुए खेल में जीवन के अक्स को देखना तब बहुत राहत देता है जब आप अर्श से फर्श पर होते हैं और एक लम्बी नाकामी,असफलता,आलोचना के बाद भी तमाम अटकलों,आलोचनाओं को धता बताते हुए पुनः अर्श पर जा विराजते हैं।
हमारे-आपके जीवन की कहानी भी तो कुछ ऐसी ही होती है!कभी हम बुरी तरह हार जाते हैं,कभी जरा से अंतर से चूक जाते हैं!जिंदगी खूब भगाती-दौड़ाती है और हाथ आती है तब भी असफलता,निराशा-हताशा!गैरों की आलोचना,अपनों की बेरूखी!हमारे जीवन के समीक्षकों के हमारे चूक जाने का ऐलान!और एक दिन हम इन सबको गलत सिद्ध करते हुए पुनः अपने आपको मजबूती से खड़ा पाते हैं।हमें बस कोहली-पांडया की साझेदारी की तरह धैर्य के साथ अपनी जीवन की पारी को संभालकर,अश्विन की तरह समझदारी दिखाते हुए उन सब आलोचनाओं-बेरूखियो रूपी वाइड बाॅल को छोड़कर,उस अंतिम एक रन के लिए बिना किसी घबराहट के सीधे बल्ले से खेलकर डर रूपी खिलाड़ी से बस पार कराना होता है।और हमसब जानते ही हैं कि डर के आगे जीत है।
आप क्या सोचते हैं कल के मैच का सबसे रोमांचकारी पहलू क्या था?दृढ़ निश्चय से भरी उनकी पारी का सबसे आकर्षक पक्ष शाहीन शाह अफ़रीदी और इस मैच में ख़ौफ़ का प्रयाय बनते जा रहे हारिस रऊफ़ की गेंदों पर धमाकेदार शॉट्स?नहीं,यह सबसे आह्लादकारी नहीं था।क्योंकि कोहली ने न तो पहली बार ऐसे शाॅट्स खेले हैं,न पहली बार ऐसी पारी।वह तो कोहली करते ही हैं जब भारत रनों का पीछा करती है।
कल के मैच की असल उपलब्धि है उनका फ़ाइटिंग स्पिरिट से अपने रंग में लौटना और टीम के लिए पुनः हाई-प्रेशर गेम जीतना।ख़ासकर तब,जब दबी ज़बान में ही सही,क्रिकेट पंडितों ने विराट कथा का उपसंहार लिखना शुरू कर दिया था।तब जब एकदिवसीय और टीट्वेंटी के सबसे सफल बल्लेबाजों में से एक कोहली को कप्तानी छोड़नी पड़ी हो।मैं भी उनलोगों में से एक थी जो चाहती थी कि कोहली कप्तानी छोड़ दें क्योंकि कप्तानी का दबाव उनके खेल को निखारने के बजाय कुंद ही कर रहा था।जिन्हें लगता था कि कप्तानी जाने के बाद उन्हें टीम से भी जाना होगा,उन्हें मालूम होना चाहिए कि शेर अगर एक कदम पीछे करता है तो डरकर नहीं बल्कि उसका निशाना एकदम सटीक लगे इसलिए वह पीछे हटता है।
देखा जाए तो अपने जीवन में भी हमें यही भाता है।अपनी शर्तों पर अपना खेल खेलना और प्रत्येक चुनौती से पार पा जाना।इसलिए मुझे खेल केवल खेल नहीं लगता।वह हमारी-आपकी ज़िन्दगी का एक आईना लगता है।
एक बात और,मैच के बाद मैने देखा लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर को उछलते-कूदते हुए!इस बूढ़े बच्चे की मैंने तुरंत गूगल पर उम्र देखी!73 वर्ष!😊हम उम्र से कितने भी बूढ़े हो जाएं!किंतु हमारे अंदर का बच्चा हमेशा बच्चा बना रहे,वह सदैव यूँ ही हर बाधा को पार कर जीतने पर उछल-कूदकर अपनी खुशी मनाता रहे।
जैसे कल कप्तान अपने कंधे पर अपने सबसे नायाब हीरे को कंधे पर उठा कर झूम उठे,इसी तरह वह इस टीट्वेंटी ट्राॅफी को भी अपने हाथों में उठा हम सभी क्रिकेट प्रेमियों के लिए यह विश्वकप अविस्मरणीय बना दे,हमें भी झूमने का अवसर दें,यही मनोकामना है।
मैं सोचती हूँ जो क्रिकेट नहीं देखता,वह क्रिकेट क्यों नहीं देखता!क्यों भला इस अव्यवस्थित,बेढंगे जीवन में एक रोमांचकारी अनुभव को अनुभूत करने से अपने को वंचित रखता है!कल का मैच तो उन कुछ चुनिंदा मैच में से एक है जिसे मृत्यु अगर मोहलत दे तो मैं जीवन के आखिरी क्षणों में देखना चाहूंगी।फिर कल का मैच तो सभी को देखना अनिवार्य कर देना चाहिए क्योंकि कुछ मैच केवल खेल नहीं होते,जीवन का अक्स होते हैं।
बहरहाल,
हमसब अपने जीवन में विराट की तरह अपनी असफलताओं को पीछे छोड़ फिर से उठ खड़े हों, अपनी शर्तों पर,अपने ही तरीके से,यह प्रकाशपर्व हम सबमें इतनी हिम्मत,इतना हौसला भरे।हर दीपक हमारे भय,हमारी आलोचना रूपी अंधकार को छांटकर हमारे मार्ग को प्रशस्त करे,यही प्रार्थना है।
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