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हेमंत - पहला भाग

 


हेमंत

( ऋतुओं का चक्र जाने क्या भेदने के लिए घूमता है, चित्त को व्याकुल किए रहता है किंतु मन है कि अपने ही वृत्तियों के जंजाल में फंसा रहता है) 

यूँ तो हेमंत पर कुबेरनाथ राय जी ने जो लिखा है,उसके बाद क्या शेष रह जाता है और कुछ लिखने को!फिर सोचती हूँ यह तो उनकी बात हुई,उनके मन की बात हुई।वह हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं।मुझमें न वह ज्ञान,न भाषाशैली।किंतु वह भाव जो हेमंत को लेकर मुझमें है,जिसे प्रकट कर देना चाहिए अपनी टूटी-फूटी भाषा में ही।क्योंकि लिखना एक तरह से टाॅनिक का काम करता है।वह भी अवसाद के माह हेमंत में!करूणा के माह हेमंत में।हेमंत के बहाने हो सकता है वह सूक्ष्म स्थिति चित्त की पकड़ में आ जाए जो समय के मकड़जाल से,मन के चक्रव्यूह से संभवतः चेतना को निकाल उसे मुक्त कर सके।प्रतीत्यसमुत्पाद के,भव के चक्र से चेतना को बाहर निकाल सके। 

              कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध का शीर्षक देते हैं 'भाई फागुन,हिम्मत मत हारना'।मैं सोचती हूँ यह तो हेमंत को कहना चाहिए कि 'भाई हेमंत,हिम्मत मत हारना'।वहाँ यदि पतझड़ है तो पतझड़ का वैराग्य बसंतपंचमी में घुल बसंतोत्सव मनाता है,प्रेम में मगन हो रहता है। 

किंतु हेमंत जो करूणा,जो दीनता उत्पन्न करता है वह तो अवसाद की ओर,विषाद की ओर ले चलती है।जहाँ अब तक जो कुछ इस नश्वर संसार में कमाया,सब कुछ शिशिर की ठंड में जम जाते हैं।रह जाती हैं तो बस स्मृतियाँ।हेमंत उन्ही हमारी स्मृतियों को हमारे चेतन पटल पर ला पटकता है।हेमंत इस संसार के नश्वरता के भाव को मुखर रूप से प्रकट कर देता है।और हम अवसाद के संग हो लेते हैं। करूणा का जो भाव उत्पन्न होता है,वह विषाद की ओर ले चलता है क्योंकि हमारा यह समय बुद्धत्व का युग नहीं है जो बताए कि करूणा हमारी मुक्ति का मार्ग खोल सकता है।और प्रेम-स्नेह से रिक्त हमारा संसार करूणा तक हेमंत में पहुंचता तो है किंतु वह मुक्ति के स्थान पर विषाद की राह पकड़ लेता है,आत्मघात पर जाकर रूकता है। कुबेरनाथ राय अपने निबंध में यही चिंता प्रकट करते हैं। 

हेमंत इसीलिए भी चित्त को क्लांत कर देता है कि हम राह भटके पथिक हैं।समय का चक्र,ऋतुओं का चक्र हमें मुक्त तो करने के लिए घूमता तो है किंतु हम मनुष्य न जाने किस गुमान में गुम रहते हैं!हेमंत एक मनुष्य के रूप में यह मुझे मेरी असफलता का स्मरण करवाता है। 

तिसपर हम मनुष्यों का ह्रदय कितना संकुचित! हमारा संसार कितना संकीर्ण!क्या नही?तभी तो हम कहाँ देख पाते हैं हेमंत में पत्तियों के पीले पड़ जाने को और फिर पीला पड़कर भूपतित हो जाने को! किंतु यह तो पतझड़ में भी होता है!किंतु हेमंत के इस वियोगी और कातर रूप को हम देखते नहीं,महसूसते नहीं।अगर ऐसा होता तो जितने सृजन पतझड़ पर हुए हैं,उतने हेमंत पर भी हुए होते। 

संभवतः यही उसकी उपेक्षा का भाव मुझे इस अगहन( मार्गशीर्ष) और पुष(पौष) में घेर लेता है।और चित्त अनमना सा हो रहता है।यही उपेक्षित होने का भाव शीत में ठंडी हवा का रूप धर हड्डियों तक को कंपा देता है और हम अहं से ग्रस्त मनुष्य जान नहीं पाते कि दरअसल कोई अपना दुख बांटना चाहता है हमसे।किंतु हम हैं कि अपने अहम के भारी कम्बल से स्वयं को ढंक लेते हैं कसकर। 

गर्मियों की वह धूप जिसकी आंच को हम देर शाम तक झेलते हैं,वह धूप हमसे खो रही होती है,धूप का संग धीरे धीरे छूट रहा होता है,भास्कर अपने ताप को धीरे धीरे कम कर रहे होते हैं किंतु हम जान नहीं पाते कि कोई हमसे दूर हो रहा है धीरे धीरे!हमारी उपेक्षा से क्लांत हो।हमें तब पता चलता है जब धूप अपने आप को खो चुकी होती है और फिर पूरे शीत ऋतु हम भटकते हैं उस धूप की चाह में।क्या नहीं! 

           वह धूप जो उजला था,देवताओं के वस्त्र जैसे,उसे हम बेपरवाही में खोते जाते हैं;तभी तो शीत में ठंड से अपमानित हो देह धूप की चाह में व्याकुल हो रहती है।एक से दो दिन यदि रवि आकाश में न चमके तो मन बुझ जाता है।हम इस ताप के चाह में कृत्रिम उपाय करते हैं,कितने जतन करते हैं किंतु वह आनंद कहाँ जो शीत में एक पुस्तक को हाथ में थामे छत पर लेटे रहने में मिलता है।वैसा सुख भला कहाँ!

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