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एक शिविर से लौटने के उपरांत...


दुनिया भर के दुख को सहते हुए भी मनुष्य मरना नहीं चाहता।जीवन से उसका मोह बना रहता है।यही मोह उसे मृत्यु के समय देह का त्याग करते हुए उसके अथाह पीड़ा और पुनः भवचक्र में फंस जाने का कारण बनती है।यही मोह मां के गर्भ से बाहर आने पर होने वाले कष्ट का कारण बनती है।यही मोह अगले किसी जनम में,किसी योनि में उसकी व्याकुलता का बीज बोती है।उस सुख की तलाश में जो पिछले जीवन में मिला था,उसको ढूंढते हुए बैचेन फिरता है पर सुख किसी ठौर मिलता नही। 


किंतु मनुष्य से बढ़कर छलिया भी भला कौन है!वह स्वयं को छलने में ही अत्यंत माहिर है।वह दूसरे किसी सुख,मोह,पीडाओं का आसरा ढूंढ लेता है और एकबार फिर स्वयं को छलते हुए नये जीवन की दुश्वारियों में खुद को घेर लेता है।वह ठहर जाता है अपनी व्याकुलता,अपनी बैचेनी के मूल तक जाने से और बुद्ध के शब्दों में यह भव चक्र चलता रहता है और मनुष्य का मन कभी उस चक्र से बाहर नहीं आ पाता।संभवत: विज्ञानवादी यही कहना-समझाना चाहते थें कि सबकुछ आत्मारोपित है।मानव मन अथवा चेतना की ऐसी कोई धारा,ऐसी कोई वृत्ति नहीं जो बाहर से आती हो!सबकुछ हमारे ही द्वारा रचा गया है।संभवतः इसीलिए यदि ईमानदारी से तटस्थ होकर अध्ययन करें तो विश्वदर्शन में मानव मन का जैसा गहन विश्लेषण बौद्ध दर्शन में हुआ, वैसी पड़ताल मन की कहीं और नहीं मिलती! 

बहरहाल, 

यह सबकुछ बताने का यहाँ औचित्य मात्र इतना है कि दस दिवसीय शिविर जो कि आजीविका के एक कर्तव्य का निबाह मात्र थी।दिनचर्या इतनी व्यस्त थी कि मनभर सोना भी न हो पा रहा था और किसी चीज को क्या कहा जाए तब।तिसपर युवाओं की टोली जिनके वय में अनुशासनहीनता स्वाभाविक तो नहीं किंतु होती ही है,उन्हें अनुशासन में बांध संगठित करने में व्यवहार को न चाहते हुए भी रूखा रखना पड़ता है।एक राज्य को उसकी पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत करने की महती उत्तरदायित्व।अहंमात्रतावाद और सामूहिकता के दुर्लभ संयोग को स्थापित करने के प्रयास में स्व के लिए समय न बचा पाना। 

किंतु मन इनके बीच भी कुछ हंसी-ठिठोली के पल ढूंढ ही लेता है।तस्वीरों में कैद होने से बचते-बचते भी शिविर की समाप्ति पर हम किसी के मन में खुद को कैद होते हुए देखते हैं तो कोई खुद को भी भा जाता है।न जाने कौन सी बात अधूरी रह गई थी,जाने कौन सा मोह का धागा पीछे के जन्म में पूरी तरह खुलने से रह गया था जो पुनः ऐसी आत्मियता से जुड़ाव हो जाता है कि लगता नहीं कभी अजनबी भी थें।

जिसका परिणाम होता ये है कि दस दिन के शिविर के उपरांत लौटने पर नये कार्यों के अतिरिक्त पुराने अधूरे पड़े काम सब बाट जोह रहे हैं,जिन्हें वायदा किया था 24 के बाद फोन करने को,वो अब रूठे होंगे।यह सब जानते हुए भी मन अभी तक शिविर में ही अटका पड़ा है।जाने पिछले जन्म जन्मांतर की कौन सी अधूरी खुशी से वहाँ भेंट हुई थी। 

किंतु मैं जानती हूँ पिछले अनेक जन्मों के अनसुलझे गुत्थियों के जैसे यह भी गांठ नहीं खुलेगी।या कहें कि एक जीवन के एक छोटे से हिस्से से बाहर निकलना कितना मुश्किल है,हम भवचक्र के घेरे से क्या भला निकलेंगे।फलतः जीवन की गति,हमारी स्व की चंचलता हमें पुनः किसी सुख,किसी मोह,किसी पीड़ा,किसी तृष्णा में फंसा देगी या कहें कि हम स्वयं से यह फंदा मन को पहनाकर पिछला सब भूल कर आगे बढ़ जायेंगे।क्योंकि जीवन का स्वभाव है गति।इस गति में अगति को प्राप्त होना,मन के अमनीभाव को प्राप्त होना किसी बुद्ध,किसी शंकर के बस की ही बात है…

इति।

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