निर्मल को पढ़ते समय दर्शन में बुद्धिवादियों की देह-मन की समस्या सुलझती हुई दिखती है।इतनी कोमल भाषा कि देह की जड़ता गल जाती है और मन,देह का सारा पानी सोखकर नम हो जाता है।
तब जड़ और चेतन,मन और शरीर की समस्या जो इतनी गहरा गई थी पाश्चात्य चिंतन में कि डेकार्ट को द्रव्य का द्वैत स्वीकारना पड़ा और स्पिनोज़ा को गुणों का द्वैत जबकि उनकी दर्शन प्रतिध्वनि है अद्वैत की,यह एक समस्या इस प्रतिध्वनि को थोड़ा कर्कश बना देती है।और लाइबनित्ज़ को जिन्होंने सबकुछ चेतन माना और स्वतंत्र माना,उसे भी इस द्वैत को सुलझाने के लिए असंगत कल्पना करनी पड़ती है और ईश्वर को परम चिद्णु कहकर चिद्णुओं की स्वतंत्रता ही छीन लेते हैं।किंतु निर्मल इस द्वैत को झट से सुलझा देते हैं और दोनों के द्वैत के अहम को गला देता है।
निर्मल बहुत सूक्ष्म और गम्भीर बातें कहते हैं बहुत ही नाजुकता से।ऐसा लगता है कि दर्शन के,जीवन के गूढ़ रहस्यों का रेशा-रेशा खोलते हैं।किंतु इतनी मसृण भाषा में कि समझने के लिए रूकना ठहरना पड़ेगा इसदौड़ती-भागती जिंदगी में।
किंतु इसमें रिस्क भी है कि जिन वेदनाओं को मन के गहन अंधेरे हिस्से में धकेल दिया गया है,वह सतह पर उभर आएगा।अगर आपने प्रेम किया है और उसे भूल गए हैं तो निर्मल आपको शर्मिंदा करेंगे चुपके से।अगर आपने विश्वास किया था और मुंह की खाई है तो निर्मल का साहित्य आपकी हड्डियों से दुख को चटकाएगा ऐसे जैसे देह के जलाए जाने पर चटकती हैं हड्डियां...
यदि कोई लेखन का ककहरा पढ़ना चाहता है और जीवन-दर्शन को समझने का इच्छुक हो तो उसे निर्मल को अवश्य ही पढ़ना चाहिए...
निर्मल की साहित्य-यात्रा इतनी सुकून भरी है कि जैसे देह से ज्वर तप रहा हो और लगता है मानो कोई ठंडी पट्टी माथे पर रख रहा हो...
और दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध को भारतीय परिपेक्ष्य में और मजबूत करना है तो निर्मल बहुत महत्वपूर्ण पक्षकार हैं साहित्य की ओर से…
शेष जारी...
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