इरशाद कामिल ने लिखा है,'कागा रे कागा रे मोरी इतनी अरज तोसे चुन चुन खाइयो मांस,
न तू नैणा मोरे खाईयों जिसमें पिया के मिलन की आस'!
कभी कभी मुझे लगता है जैसे इसी कागा चुरा ली हो मेरी नींद हितैषी बन!कि जब तक जिऊँ पियमिलन की आस आंखों में तैरती रहे और मरूँ तो आंखें खुली रहें कि मैं सोती रहूँ और प्राण संग उड़ न जाए मिलन की आस।
मैं जो सोचती हूँ कि कभी उस कागा की तलाश में निकलूँ तो पता लगता है सबकुछ अपनी जगह पर है,रास्ते भी,मंजिलें भी।किंतु कदम की ताल अब बिगड़ गई है।यूँ भी माँ कहती थी बचपन में पक्षीयों से डरने पर जब वे आंगन में उतर आते कि कहीं मेरे हाथ की रोटी छीन न ले जाए कि पंक्षियों से भला क्या डरना!वे पलभर कहीं ठहरते हैं फिर कहीं और चल देते हैं।जिस पक्षी से मैं डर रहीं हूँ वो तो अब जाने उड़कर कहाँ चली गई होगी।
किंतु फिर भी मुझे सोना है खूब गहरी नींद जो जाने कब से खो गई है और मैं मानो सदियों की थकी!मुझे ऐसी नींद चाहिए जैसी माँ के गर्भ में कि माँ ने जो खाया उससे पोषण मिला,भूख मिटी,अब माँ ही दुनिया से लड़ लेगी मेरे लिए और मैं तबतक खूब गहरी नींद में सोऊं।जो यह भी न हो सके तो एक ऐसी शाम मिले थकी हारी कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाए और जब माँ चाय लेकर जगाए तो पता चले कि अब रात्रि खाने का समय भी हो चला है।कुछ घंटे की नींद दिनभर की थकान मिटा देती केवल एक माँ के आकर जगा देने भर से!किंतु न माँ है,न माँ की गोद और अब न इच्छा कि पुनः जन्म मिले कि किसी स्त्री के दर्द का कारण बनूँ।
किंतु जब तक जीवन है एक नींद की तलाश तो है बिलकुल वैसे जैसे अमावस की रातों में गांव के खेतों,मेड़ों,छतों,ओसारे और दुआर पर फैला घुप्प अंधेरा।बस वैसी घनघोर रात से ढकी नींद चाहिए।स्व का अस्तित्व भी सायं सायं की आवाज कर डराए जगने पर और मैं डरकर फिर एक गहरी नींद सो जांऊ बचपन के जैसे,ऐसी एक नींद चाहिए।किंतु गाँव छूट गया,बचपन खो गया और बचपना भी।अमावस के अंधियारों को कृत्रिम प्रकाश पी गया,मेरी नींद भी मानो कोई पी गया हो!
सोचती हूँ कभी घर के सीढियों के पास खड़ी होकर कि जैसे किशोरावस्था के पहले प्रेम की आहट मिलते ही प्रेमिकाएं सीढियों की ओट से अपने प्रिय की एक झलक पाने भर के लिए कोहरे से भरी ठंडी रातों में,कसमसाती गर्मियों की रातों में घरवालों से छुपकर प्रतीक्षा करती है,कभी ऐसा हो कि मेरी नींद भी सीढियों से उतरकर आए और मुझे अपने बांहों में भर ले।
जो ये न हो सके तो ऐसा हो कभी कि जब कभी शाम को दरवाजा खोलूं किसी आत्मीय मित्र जैसे जो बरसों बाद मिलने आया हो,वह आए।वैसे ही कभी किसी रोज दरवाजा खोलूं और नींद आ जाए दरवाजे से!किंतु न अब मित्र रहें,न कोई आत्मीय!संभवतः एक उम्र के बाद पता चलता है वो जो आत्मीय थें उनकी आत्मीयता भी खो गई है जैसे खो गई है मेरी नींद!
पुनः कोई और जुगत लगाती हूँ कि अपनी नींद को पकड़ पाऊँ जो जरा सी आ जाए पास,जैसे ईश्वर ने फेंककर फांस लिया हम सबको जीवन के जाल में।आखिरकार हम हैं तो उसी के बिछुड़े अंश!लेकिन भाग्य मानो यहाँ भी रूठ गया हो नींद के जैसे।ईश्वर से बिछुड़ते ही मुझे घेर लिया था मार की सेना ने, आलस और अहंकार की सेना ने!फिर कहाँ मिलता है जाल, कहाँ फंसती है नींद।वह मुझसे और दूर बहुत दूर जाती दिखाई देती है।वैसे भी मां कहती थी जाने वाला कहाँ आता है लौटकर भला!माँ जो कहती थी सच ही कहती थी क्योंकि उसके पास दो आंखें और थीं अनुभव की जिसे मैंने सदैव अनसुना,अनदेखा किया।संभवत माँ का ह्रदय दुखाने की सजा ईश्वर ने मेरी नींद को छीनकर दिया हो...
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