घर! भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता की कुछ लाइन्स हैं,-मैं मजे में हूँ,सही है,घर नहीं हूँ,बस यही है।
लेकिन ये बस बड़ा बस है,इस बस से सब विरस है।
यकीनन,घर से दूर सब दुनियाभर के आराम हो,शान हों लेकिन एक समय के बाद घर पर बस यूँ ही पड़े रहना कभी खाली,इसमें बहुत कुछ भरा होता है।इतना कि यह सांसों में जीवन भर देता है।
दुर्गापूजा और दिवाली-छठ मिलाकर उत्तर प्रदेश और बिहार में एक माह के अंदर में लगभग सप्ताह भर की छुट्टी मिल जाती है।मैं भी इन छुट्टियों में घर गई, बहन के घर गई।आज के समय या कहें कि किसी भी समय में माँ-बाप के बाद भी भाई-भौजाई-बहनें यदि पूछ लें तो मैं समझती हूँ यह भी जीवन का सौभाग्य है।न जाने किसके आशीर्वाद से यह सौभाग्य अब तक जीवन में व्याप्त है।बस एक कचोट रह गई मन में कि इस बार गाँव जाना न हो पाया।जबकि गाँव की याद रह रहकर गर्मी की छुट्टी से लौटने के बाद आ रही थी मानो कोई प्रतीक्षारत हो वहाँ।अब तो होली पर ही शायद जाना हो सके।
बहरहाल,
इस बार घर से लौटते समय यूँ ही अचानक ट्रेन के माहौल पर ध्यान गया।या कहें कि प्रशांत भैय्या ने अपने पोस्ट से इस ओर ध्यान दिलाया।होता अक्सर यूँ है कि मैं सबसे ऊपर वाली सीट चुनती हूँ।इसके दो लाभ होते हैं,एक तो कोई आपको डिस्टर्ब नहीं करता जैसा कि नीचली दोनों सीट पर होता है।दूसरे ऊपर की सीट पर बैठकर अपनी बोगी का जायजा लेने में ईश्वर जैसी फीलिंग आती है।खेल से अलग होकर दुनिया के खेल का आनंद उठाने जैसा।यह दुनिया एक खेल ही तो है।यूँ भी अगर हम भारतीय रेल में स्लीपर में यात्रा कर रहे हों तो वह जनरल बोगी के समकक्ष ही ठहरता है।इसलिए चहलपहल सदैव बनी ही रहती है
किंतु हरबार दीवाली छठ की छुट्टियों के बाद लौटने पर माहौल ही जैसे एकदम से बदला हुआ होता है रेलगाड़ियों का!रेल में यात्रा कर रहे लोगों का!इतना उचाट होता है लोगों का मन और रेलगाड़ियों का भी मन बल्कि कहें कि रेल में यात्रा कर रहे सामूहिक चेतना का,जो सालभर एक अलग ही गुंजन से भरी होती है,वह इस समय अजीब से खालीपन से भर जाता है।खाली तो हो ही जाते हैं हम अपनों से मिलकर।वह बोझ जो कंधे पर,दिल में होता है,घर की देहरी देखते ही मानो छूमंतर हो जाता है।घर जाते समय जो उत्साह होता है,वही लौटकर एक कचोट,एक टीस में बदल जाती है।घर जाते समय जो रेल स्वर्ग के झूले सा लगता है, लौटते वक्त वही जिम्मेदारी रूपी सुरसा की तरह मुंह बाए मिलती है।जिसमें प्रवेश के बाद एक बार फिर जीवन जिम्मेदारी की चक्की में प्रवेश कर जाता है।
अक्सर सीट को लेकर जो लोगों में चिकचिक होती है,घर से लौटते वक्त अचानक से एक परिपक्वता में बदल जाती है।लोग चुपचाप एडजस्ट कर लेते हैं।न उतरने की जल्दी,न तो ट्रेन में जल्दी से चढ़ने की होड़!घर जाते वक्त जो राजनीति से माहौल गर्म रहता है,खेलों की चर्चा से हर्षित वह सब अचानक मानो दिसम्बर की ठंडी जैसे ठंडे से हो रहते हैं घर से लौटते वक्त।यकीनन दिसम्बर की ठंड घर से लौट रहे लोगों के आहों का बदला हुआ रूप है।
मुझे लगता है अगर भारतीय जनमानस के स्वभाव और समझ को समझना हो,जीवन के अलग-अलग रूपों को देखना हो तो रेलवे का वह भी स्लीपर क्लास का सफर एक अच्छा विकल्प है।एक ही घेरे में अमीर-गरीब,शांत-उजड्ड,शहरी-ग्रामीण, बौद्धिक-आमजन,और इन सबसे बढ़कर दुख और सुख को एक साथ देखना हो तो ट्रेन का सफर आपको यह सब देखने का अवसर देता है।इसी कारण मुझे ट्रेन से सफर करना अत्यंत पसंद है।
बहरहाल,
कितना लिखा जाए घर से लौटने की पीड़ा को!जो भी लिखूंगी,कम ही लगेगा।कल या आज तक में सब लौट गए होंगे अपने अपने घर से अपने अपने काम पर।कल से घर को दिल में बसाकर सब अपने अपने काम पर निकल जाएंगे।सबका संसार फिर से गतिमान हो चलेगा।इस बैरी जीवन को यूँ भी किसी के रूकने-चलने से अंतर नहीं पड़ेगा किंतु हम सबको अवश्य पड़ेगा।अतः चलना तो है ही।ताकि घर भी चल सके।
Comments