हम करते ही होंगे अपनों के लिए ऐसी सुंदर कल्पना!
ठीक वैसे ही जिसका सम्मान करते हैं,उसके ऐसा बन जाने की कल्पना कीजिये कि उसकी सुंदरता की गवाही को शब्द की आवश्यकता न पड़े! शुभकामनाओं का असर जब पड़ता है तो वे ताजे गुलाब सा निखर उठते हैं।ऐसा प्यार और सम्मान हम उन शहरों के लिए भी कर सकते हैं जहाँ हमने जन्म लिया!जहाँ हमारे सपने पूरे होते हैं।जहाँ हमारे अपने रहते हैं! जहाँ से रोजी-रोटी चलती है।
ऐसे ही समय की दहलीज पर बिखरा पड़ा मेरा अस्तित्व बरसों की मेहनत बाद एकदिन अपने सार को जब ग्रहण करता है तब यह वह दिन था जब मैंने उस शहर के बारे में जाना,जिसका नाम भी कभी नहीं सुना था।तमाम आशंकाओं-चिंताओं,कुछ मिलने की खुशी और कुछ छूट जाने के परिताप को अपने तेवर की पोटली में बांधकर एक नये शहर में प्रवेश करती हूँ।
जीवन की सबसे बड़ी खुशियों में से एक खुशी और अपनों से बिछोह का दुख एक ओर,और मैं खोज़ में रही एक अदद जगह की तलाश में जहाँ शामें गुजारी जा सकें,जहाँ सारा तनाव,सब चिंताएं बहाई जा सकें! द्वन्द्व सुलझाई जा सकें!जिसके किनारे बैठ किसी रूठे हुए को मनाया जा सके!मैं बेतिया को ढूंढ रही थी सागरपोखरा पर।और आखिरकार एक दिन वह मिल ही गया।
एक शहर को क्या चाहिए आखिर!कुछ शैक्षणिक संस्थान,सहज-सुलभ अस्पताल। सड़कें,जो सबको उसके घर तक सुगमता से पहुंचाती हों!एक पुस्तकालय!चाय की अड़ियां,और एक नदी-पोखर या तालाब!जिसके किनारे दिनभर की बेतरतीब दिनचर्या को करीने से सजाया जा सके।जहाँ बैठकर हम गवाही दे सकें कि ढल जाना उतना बुरा नहीं होता अगर दिनभर तपे हों सूरज सा!ऐसा स्थान जहाँ समय के संधिस्थल को बैठकर निहार सकें बच्चे,बूढ़े,नौजवान, प्रौढ़। जहाँ बैठकर एक लेखक/कवि तैयार कर सके रूपरेखा नये लेखनी का।एक दार्शनिक पूछ सके कि आखिर कब कोई अपना हो जाता है?एक शहर भी!
बहरहाल,
मुझे और मेरी भांजी को बनारस और नैनीताल इन दो शहरों से बेशुमार प्यार है।भांजी ने एक बार कहा,'दोनों में अगर कुछ अंतर है तो बस यही कि बनारस में पहाड़ नहीं है'।मैंने कहा,थोड़ा सा नैनीताल के पहाड़ों को खिसकाकर बनारस लाया जा सकता तो बनारस से परफेक्ट कुछ नहीं इस विपन्न संसार में।
बनारस में नैनीताल को लाना,भले यह संभव न हो सका लेकिन मैं गंगा किनारे बसे बनारस को बेतिया लाने में सफल हो गई।थोड़ा सा बनारस जो शाम को घाट किनारे बैठ पूरे शहर के मिज़ाज को समझता है,मैं वह थोड़ा सा बनारस बेतिया ले ही आई।
वैसे ही इन दिनों बेतिया शिवमय हुआ है और भला शिवमय हो जाने से क्या खूबसूरत होगा!
तस्वीर में सागर जैसे पोखरे के किनारों की सीढ़ियों पर बैठी लड़की इन दिनों सांझ के आंचल तले जब मिलती है तो मैं उन पलों को उत्सव की तरह मनाती हूँ और अलग होने पर एक हूक उठती है कि दो-चार बातें और हो जातीं तो अच्छा रहता!उसने एक दिन कहा,'ये मेरा शहर है'। तिसपर मैने बहुत कुछ कहा था किंतु जो सबसे सारभूत बात कहनी रह गई थी उसे यहाँ लिखती हूँ कि,'शहर के जैसे मुझे भी अपना ही जानो'।और कि यह बात मुझसे भले न कहना किंतु उतने ही अधिकार भाव से अपने शहरवासियों से कहना कि,'वह उतनी ही मेरी अपनी हैं जितना यह शहर मेरा है'।
हो सके तो मेरे हक़ में अपने शहरवासियों को एक बात बताना कि कब कोई शहर किसी का अपना हो जाता है।
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