अजनीबन का एहसास एक आतंक है जो घर से निकलते ही मुझे घेर लेता है।मैं जब अपने कमरे में होती हूँ तब तक सब ठीक लगता है क्योंकि कमरे पर मेरी पुस्तकें हैं,मोबाइल है जिसपर मैं अपना पसंदीदा गाना सुन सकती हूँ,एक रसोई है जिसपर मनचाहा कुछ बना सकती हूँ।यहाँ मेरे अलावा कोई और नहीं जिससे मुझे भय हो,जो मुझे नहीं जानता,इसलिए अजनबी होने का किसी से भय भी नहीं है।
ऐसा लगता है मानो जीवन एक बियाबान जंगल है जहाँ हजारों आंखे आपको देख रहीं हों लेकिन आप उनमें से किसी को नहीं जानते।जान भी ले तो समझ की एक खाई होती है जो मेरे और सामने वाले के मध्य होती है इसलिए हम अजनबी ही रह जाते हैं।यदि कोई जानपहचान का मिल भी जाए तो मैं भय खाती हूँ कि कोई रोककर मेरा हाल चाल न पूछे क्योंकि तब मुझे झूठ कहना पड़ेगा,झूठ सुनना पड़ेगा।मैं जानती हूँ कि अपने ही द्वारा कहे गये शब्दों के साथ लोग कैसा छल करते हैं फिर भला उसके भाव,उसके अर्थ तक मैं ही कैसे पहुचुंगी जब वे स्वयं नहीं पहुंच पाते और इस तरह हजारों लोगों से घिरी मेरी दुनिया में मैं अजनबी ही रह जाती हूँ।
ऐसा नहीं है कि यह मेरे दुख का कारण है,पीड़ाओं का कारण है।किंतु यह मेरे भय का कारण कभी कभी अवश्य बन जाता है कि हजारों की भीड़ में मैं एक निरी अजनबी ठहरी!ऐसा लगता है मुझे जैसे कहीं और होना था लेकिन न जाने किस अहंकार के कारण मैं अकेले फेंक दी गई हूँ और अजनबी बन रहने के लिए अभिशप्त हूँ!दुख तो ये भी है कि भाषा भी सीमित लगती है मुझे अपनी बातें कहने के लिए जबकि भाषा कि शुद्धता,वाक्यों के संयोजन पर कितना ध्यान देती हूँ!कुछ लिखने के पहले घंटो केवल इसपर सिर खफा देती हूँ कि वाक्य सुघड़ और सरल बन पड़े हैं या नहीं!फिर भी जब कभी घर से बाहर निकलिए तो यह अजनबीपन का अहसास सब्जी के साथ मिले मुफ्त के धनियामिर्च जैसे मेरे साथ मेरे कमरे तक चला आता है और तब उस भय को काटने के लिए कलम चलानी पड़ती है या मोबाइल पर उंगलियों को...
ऐसे ही उपनिषदकार ने नहीं कहा कि 'द्वितीयाद् भयेद् भवति' अर्थात् दूसरा भय का कारण होता है।
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