किंतु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि यह नितांत निजी कोई भाव या धारणा है।वैसे भी इस भाव के व्यक्तिगत न होने का यह भी कारण है कि यदि दो प्रेमी मन से इतर प्रेम की बात करें तो प्रेम समस्त नैतिकता के मूल में है।अतः यह कोई विषयी पर निर्भर भाव मात्र नहीं अथवा कोई निजी अवधारणा नहीं सिवाय इसके कि कौन कब किसके प्रेम में कोई पड़ जाय,यह कोई निश्चित बात नहीं है और यह नितांत व्यक्तिगत चाहना है।
किंतु यहाँ समस्या और गंभीर रूप धारण करती है जब प्रेम को वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जाय!और हम एकदम सिरे से नकार भी नहीं सकतें कि यह कोई वस्तुनिष्ठ अवधारणा नहीं है।क्योंकि इसके विरोध में यह कहा जा सकता है कि यदि यह वस्तुनिष्ठ नहीं होता तो सभी मनुष्यों के ह्रदय में क्यों कर भला उभरता है!यहाँ मुझे कांट स्मरण हो आते हैं और उनकी देशकाल को लेकर मान्यता याद आती है जहाँ देशकाल मानसिक धर्म तो है किंतु तब भी यह किसी व्यक्ति विशेष की कल्पना नहीं है।अपितु यह एक वस्तुनिष्ठ धारणा है।
दर्शन के विद्यार्थी के रूप में मेरे पास इस प्रश्न का कोई ठीक उत्तर तो नहीं है।यद्यपि मेरे पास उत्तर पाने के तमाम दार्शनिकों के मत उपस्थित हैं।
मेरे पास आचार्य शंकर का दर्शन है जिनके भ्रम के सिद्धांत से इसे सुलझाया जा सकता है और प्रेम को समष्टिगत भ्रम माना जा सकता है।अथवा कांट की भांति मैं भी प्रेम को प्रज्ञा द्वारा रचा गया अतिन्द्रिय भ्रम मानूं जैसे उन्होंने समस्त तत्वमीमांसा को प्रज्ञा का भ्रम बताकर आगे की दार्शनिक पीढ़ियों के लिए तत्वमीमांसा से भिन्न दर्शन की नींव डाली।मेरे पास सांख्य और बौद्ध का मनोविज्ञान भी है कि प्रेम हमारे अहंकार की उपज है मात्र अथवा अविद्या से उत्पन्न और क्लिष्ट मन की एक प्रवृत्ति मात्र।
मेरे समक्ष सबसे सुरक्षित रास्ता स्पिनोज़ा और लाइबनित्ज़ का भी है कि मैं स्पिनोज़ा की भांति इस भाव को ईश्वर का गुण या पर्याय मान लूं या लाइबनित्ज़ के जैसे इस भाव को संसार के सबसे खूबसूरत भाव बताकर इस दुनिया को सभी संभावित दुनिया में सबसे बेहतर कह-मानकर चुप हो जाऊँ।किंतु मेरे समक्ष समस्त अस्तित्ववादी दर्शन भी है,जिनके दर्शन में प्रेम के बाद भी एक ऊब, अकेलेपन का दर्शन,जीवन से नैराश्य,स्वयं के वस्तु बन जाने का भय,अन्य से भय सबकुछ तो है।तब यहाँ प्रेम कैसे वस्तुनिष्ठ रूप में हो सकता है!मेरे पास शोपेनहावर हैं जिनके अनुसार यह दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे बुरी है जबकि ऐसा तो नहीं कि उन्हें मन की इस गति के विषय में कुछ पता न रहा हो!किंतु समस्या इन सभी के साथ यह है कि उक्त सभी मतों के विरोध में बराबर के बल का तर्क भी मेरे समक्ष सुरसा के जैसे मुंह खोले उत्पन्न हो जाता है।
इसलिए मैं ढूंढ रहीं हूँ दार्शनिक और गणितज्ञ डेकार्ट के जैसे वह अकाट्य सूत्र जिसके द्वारा प्रेम के संबंध में ऐसा निष्कर्ष दिया जा सके जो अनिवार्य, सार्वभौमिक,अनुभवनिरपेक्ष,निर्विकल्पक अनुभूति सिद्ध हो सके।और जब तक वह सूत्र नहीं मिलता है,तबतक अपने प्रश्नों के बैताल को पीठ पर लादे भटकना है इस विचित्र और द्वन्द्व से भरे संसार में! जबकि संभवतः प्रेम से हर द्वन्द्व से पार पाया जा सकता था!
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