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Showing posts from April, 2021

पत्र,जो जिन्हें लिखे जाते हैं, उन तक नहीं पहुंचते…

  इससे पहले कई बार लिखा है पत्र, पर आपको हिम्मत नहीं हुई कुछ लिखने की। जीवन भर की सभी असहमतियों के बाद भी एक अपराध बोध से हृदय भरा है आपके प्रति। अक़्सर यूँ होता है कि किसी से मिलने पर सामने वाला व्यक्ति माता-पिता दोनों के बारे में पूछता है, आज किसी ने पूछा तो केवल आपको! उस भले मानुष को स्मरण था पहली बार महाविद्यालय में योगदान देने जब मैं आई थी, साथ में भैया थे, उन्हें लगा था कि वे मेरे पिता हैं। मुझे प्रसन्नता हुई कि मुझे उस व्यक्ति का चेहरा तक ध्यान में नहीं! फिर भी उन्हें मैं याद थी।अजीब बात है कि मुझे किसी के चेहरे जल्दी याद नहीं रहते जिसका प्रतिफल यह मिलता है कि जिन कुछ लोगों के स्मरण होते हैं, वे मुझे भूल जाते हैं। अच्छा है य़ह, मैं समझती हूं कि बुरे कर्मों का मेरे हिसाब होता चल रहा है। कर्मों के संचीयमान खाते में कुछ जमा नहीं हो रहा है।किंतु उन्होंने जब ये पूछा कि ‘पिताजी कैसे हैं?, सच मानिये, मेरा मन नहीं हुआ जो वास्तविकता है, उसे बताने की!मैंने उनके इस प्रश्न को उपेक्षित कर दिया,मेरा मन हुआ कह दूँ कि आप ठीक हैं।जबकि ये भी नहीं पता कि आप कहाँ और किस हाल में हैं।नियति की यह कैसी

कोरोना काल…

  कोरोना काल… कोरोना, भाग —2 जबकि यह हरापन प्रकृति की विशेष विशेषता है,घर-गृहस्थी-नौकरी के चक्कर में फंसा आदमी कहाँ देख पाता है यह प्राकृतिक रंगों का शेड!अहा!प्रकृति के पास हर रंग के कई रंग है।यह समय मानो अदृश्य विषाणु से न केवल मानवजाति अपने बस्तियों को सैनेटाइज कर रहा हो बल्कि प्रकृति भी खुद को सैनेटाइज कर रही है।आखिर हमने उसे दिया भी क्या सिवाय कानफोड़ू ध्वनि के, विषैले गैसों के,धूल-धक्कड़ के।प्रकृति का कोई रूप बच तो न रह गया संक्रमित होने से!हमारे अंधाधुंध विकास करने की वृत्ति के विषाणु से,प्रकृति के ऊपर मानव को विजित दिखाने के अहंकार रूपी विषाणु से!हर नवजात पत्ता जैसे किलकारियां मार रहा है और इस बदले बयार का आनंद ले रहा है!चहक-चहक कर खुशी जता रहे हों जैसे मुझसे अपनी।विशाल तना गंभीरता ओढ़े भी कुछ सुकून की मुद्रा में था मानो जीवन में कोई तो क्षण आया;जब खुली हवा में सांस ले सका हमें श्वासदायिनी वायु देने वाला वृक्ष।सूरज की किरणें जिस भी पत्ते पर पड़ रही थी,वह चमक रहा था चांदी जैसा!अहा!मैं इस हरेपन को,पेड़ के हर पत्ते के इस उल्लास को,चहकने-प्रफुल्लित होने को मानो आंखों में, ज़ेहन में बसा ले

आषाढ़ का एक दिन…

जहाँ तक मेरी नजर जा रही है, वहां तक का आसमाँ मेरा है,कि कम से कम इतना आसमाँ मेरी निगाहों की ज़द मे है।फिर अचानक किसी चमकते सितारे पर नजरों का जाना और ये स्मृत हो आना कि मेरे जीवन के अनमोल सितारों को मृत्यु ने अपना ग्रास बना आसमाँ पर टांक दिया कि जब भी मैं जमीं पर झूठे अहं से भर जाऊं, ये आसमाँ और उसके सितारे मुझे अहसास दिला सकें कि मैं कितनी खाली हूँ, मेरे पास रोशनी का एक कतरा भी नहीं है। टूटे सितारों ने चीखकर कहा कि अधूरे प्रेम ने,जो अब कभी पूरा नहीं होगा,जीवन को भी एक अंतहीन अधूरेपन से भर दिया है।बादलों की ओट से सिसकियां भरते आसमाँ ने कहा कि अबकी ज़ब दोस्ती करना तो खुद को दांव पर मत लगाना क्योंकि आंखों में पाया जाने वाला पानी मर चुका है और बारिश की बूंदें किसी दिल के आग को नहीं बुझा सकती। समझ नहीं आता आसमाँ पर उमड़-घूमड़कर आते ये बादल आषाढ़ के दिनों की निशानी है या आसमाँ की सतह पर उभर आये मेरे मर्मांहत ह्रदय के  किस्सों की!! (27/06/2020)

एक बीती बात…

दुबली पतली काया,साधारण शक्लोसूरत और तिसपर जरूरत पड़ने पर भी बोलने से बचने की आदत ने हमेशा मुझे जीवन में हर तरह के प्रतिस्पर्धा में दबावमुक्त ही रखा और सौभाग्य से आरंभ में कमोबेश हरजगह कमतर ही समझा जाता है।(हालांकि यही सत्य भी है कि कमतर ही हूँ)।।पर मैं भी कुछ कम न थी,दृष्टा की भांति अक्सर आनंद ही उठाया ऐसी परिस्थितियों में। तो कहानी आरंभ होती है महामना की तपोस्थली(काशी हिंदू विश्वविद्यालय) के प्रागंण से….चूंकि हिंदी माध्यम से पढ़कर आने वाले के लिए ये एक अलग ही भयावह माहौल जैसा होता है जबसबकुछ अंग्रेजीमय हो,क्लास में टीचर के श्रीमुख से एक शब्द हिंदी की न निकले, बाहर स्टूडेंट्स को मानो हिंदी बोलने में इज्ज़त घटती थी।अब वैसे माहौल में कुछ जम नहीं रहा था मामला।एक तरफ बारहवीं तक स्कूल में लगभग हर तरफ अपना ही जलवा.. शिक्षकों के चहेते, दोस्तों, सहपाठियों के चहेते।और तो और दुश्मनों के भी चहेते। खैर…वैसा दौर तो अब जीवन में कभी न आयेगा। तो फिर लौटते हैं महामना के प्रागंण में,तमाम दुश्वारियों के बीच ये भी एक सजा कि अपने कालेज से सिर्फ मैं ही क्वालीफाई कर पाई थी प्रवेश परीक्षा में।तो न दोस्त, न हमदम

कारवाँ कारवा

यद्यपि सामाजिक रूप से मैं एक असफल व्यक्ति हूँ,तथापि फिल्म के माध्यम से ही सही,जुड़ते हैं “कारवाँ” से… जिंदगी सबक सिखाती है पर उस सीखने में हम बहुत कुछ खोते चलते हैं कि उस सीखे हुए सबक का कोई औचित्य फिर नहीं बचता जीवन में।मुश्किलें हर बार रूप बदलकर आतीं हैं और जिंदगी नये सबक सीखाने को तैयार रहती है।मानो लगता है जीवन एक पाठशाला है जहाँ जिंदगी पाठ पढ़ाती है सबक सिखाने का और मुश्किल उस प्रश्न पत्र की तरह है जिसमें एक भी प्रश्न का दोहराव नहीं होता। पर फिल्म की बात थोड़ी अलहदा है कि फिल्म हमें हंसाते हुए सिखाती चलती है और यदि इरफान सर के अभिनय से सजी हो तो ठीक वैसे ही जीवन के पाठ पढ़ाते चलती है मानो फिल्म आप नहीं देखते, बल्कि फिल्म का ही एक हिस्सा हों आप। यह ठीक भी है इस पूरी फिल्म के संदर्भ में, मानो हीरोइन, हीरो ,सब पात्र,सब मेरे ही अंदर है और सब में मैं ही हूँ। बस एक इरफान रूपी जिंदगी है जो साथ चलती रहती है अपनी ही धुन में।उसे इस बात से राब्ता तो है कि पिता की मृत्यु पर बोध के रूप में वह साथ रहती है पर इतनी बेपरवाह भी है कि ठीक उसी क्षण वह जीने का अवसर नहीं खोती।अपनी भड़ास,अपनी खुशी एक अनजान स

यूकेलिप्टस के पेड़…

यूकेलिप्टस के पेड़ एम.जे.के.कालेज,कला संकाय के ठीक सामने जहां मैं बैठती हूं अक्सर सर्दियों मे धूप सेंकते हुये और धूप सेंककर अपनी ऊर्जा खर्च करते हुये वहीं ठीक सामने खड़े हैं यूकेलिप्टस के पेड़। मेरे आने पर हर्षित से खड़े, जाने पर कुछ उदासी ओढे़ किसी प्रेमगीत मे गीतकार ने लिखा है “ये सब्ज़ पेडृ हैं या प्यार की दुआयें है” इन पेड़ो को देखकर मुझे भी लगता है ये सब्ज़ पेड़ हैं या मेरे बचपन की दुआयें! जो बचपन में घर के द्वारे से होते हुये, घर,शहर से दूर परदेश में आ गये हैं मुझको दुआयें देते हुये, कि आ गये हैं मुझको दिलासा देते हुये! कि जैसे सुदूर देश से,बीते हुये बचपन से आ गयें हैं हम तेरे पास वैसे ही मिल जायेगी कहीं “मां’ चिन्ता करते हुये कि खाना खा लो,ठंडा हो रहा है’ वैसे ही मिल जायेंगे कहीं ‘पिता’ नकली गुस्सा दिखाते हुये कि ‘घर जल्दी आया करो’ मिल जायेगा रूठा हुआ दोस्त,खोया हुआ प्यार, मिल जायेंगे बिछुड़े हुये जीवन के सब फिक्रमंद किरदार। एम.जे.के.कालेज,कला संकाय के ठीक सामने खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ ये सब्ज़ पेड़ हैं या बचपन की दुआयें!!

जब मैं मरूँ…

जब मैं मरूं, मुझे अंतिम विदा देने आने वाले प्रियजन, लेकर आना संग कफन की जगह कुछ  कागज  और  कलम । मैं तब भी यह सवाल हल करूंगी कि कहाँ चूक हो गई समझने में? वह कौन सा सूत्र था जो मैं न याद कर पाई? कि जो जीते जी आते नहीं मिलने, मृत्यु उन्हें कैसे कर बुला लाती है? जबकि बची रहती है केवल देह, जो कोई नाता नहीं पहचानती,कोई स्मृति नहीं रखती, तो किससे मिलने आएं हैं? मैं लिखूंगी कि गौतम,अहिल्या की कहानी दरअसल मेरी कहानी है। मेरे ही अंदर है  अहिल्या ,मैं ही थी  इन्द्र  और  गौतम  भी, कि पार पा न सकी मार की सेनाओं से, चूर रही शक्ति के मद में, भरी रही जीवन भर विद्वता के अहंकार से। बस एक  राम  न आए कभी मेरी चेतना में, कि अभी मुक्ति संभव नहीं, अभी आना पड़ेगा लौटकर मृत्युलोक मेंमें,  अन्यथा मैं भी ले लेती जलसमाधि  गंगा  में।।

मरने के बाद

क्या मरने के बाद भी व्यक्ति की आत्माएं होती हैं!! जो रहती हैं अपनो के आस पास हमेशा! उसके सुख में,उसके दुख में,उसकी हंसी,उसके आंसू मे! मेरे पास तो अब भी आती है मां… जब दो दिन बीत जाते हैं बिना खाये, चली आती है सपने में डांटने,चिंता करने, पीछे-पीछे घूमती है अब भी,जब होती हूं किसी चिंता में निमग्न, चुपके से देखती है,जब होती हूँ किसी बात पर खुश, घर लौटे जब हो जाते हैं बहुत दिन,घबराई सी लगती है, जब करती हूं किसी पर भरोसा,हिदायत सी देती है, सच है… जब सारे रिश्ते टूटकर बिखर जाते हैं,तब कुछ रिश्ते मरकर भी नहीं छूटते, हां,मां अब भी साथ है,सारे तर्क-वितर्क से परे होकर, कि मरने के बाद आत्माएं होती हैं या नहीं।।।

अपने लोकनायक के जन्मभूमि लौटने का त्यौहार मनाता एक राष्ट्र…

 समय ने एक चक्र पूरा किया है,जब देश उदासीनता, कायरता, दीनता-हीनता और आत्महीनता से उल्लास- गौरव- स्वाभिमान तथा सांस्कृतिक चेतना के तनिक जाग्रतावस्था तक पहुंचा।जब बीते कल में सदियों बाद अयोध्यावासियों ने, करोड़ों रामभक्तों ने मानसिक परतंत्रता के एक प्रतीक से मुक्त हो, अपने राजाधिराज के घर लौटने, जन्मभूमि लौटने का त्यौहार मनाया,मानो दीपों के जगमग से स्वर्ग के देवताओं के नेत्रों के चौंधियाने के साथ उनके हृदय में असीम आनंद का प्रवाह किया हो! तो घर भी लौटे थे ब्रम्हाण्डनायक। आखिरकार करोड़ों आँखों में तैर रहे भव्य मंदिर के स्वप्न को यथार्थ में परिणत होने में समस्त बाधाओं से रहित यह दिवाली जो थी।        अयोध्या ने केवल दीपक भौतिक जगत में नहीं हमारे हृदय-मस्तिष्क के तल पर भी जलाये कि भारतवर्ष अपनी जातीय- अस्मिता के प्रत्येक पहचान, प्रतीक,विरासत पर छाये अंधकार को दूर करने हेतु संकल्पबद्ध हो सके।      चिंतन- जागरण के इस स्तर पर,गौरव के इस प्रकाशपर्व तक पहुंचने में यद्यपि हमने कई सदियों की यात्रा की,लाखों जन को प्राणोत्सर्ग करते देखा।सम्पूर्ण ब्रह्मांड को गेंद की भांति हथेली में उठा लेने वाले श्री

दाल-भात…

  मेरा ईश्वर दाल- भात का बहुत प्रेमी है*!मैं भी। वह उसे इतनी तन्मयता से खाता है मानो माया को तजने का समय आ गया है!इतने प्रेम से खाता है मानो जीव ने जान लिया कि अब तक जो ‘उसे’ जाना गया,उससे भी परे उसका विस्तार है हमारी कल्पना से परे अनंत तक।स्वरूप ही उसका अनंतता का है,अनंत आनंद का है,जब उस आनंद में गोता लगाने का मन होता है तो रसोई में दाल- भात से बेहतर कुछ सूझता नहीं।         दाल- भात, मानो दो प्रेमी, दो मित्र, जिन्हें एक दूसरे में समोने के लिए ही ईश्वर के मन मे सृष्टि के सृजन की इच्छा जगी।लेकिन मेरा ईश्वर तब भी दाल- भात खाता है जब वह बहुत उदास होता है,और मैं भी।उसे लगता है कि प्रतीक्षा की उम्मीद अब दम तोड़ देंगी तब वह उनमें प्राण फूंकने के लिए दाल- भात खाने को बैठ जाता है। उसकी उम्मीदों का, विश्वास का प्रसार मुझ तक पहुंच कर मुझ पर इतना दबाव बनाता है कि जैसे सोते वक़्त सपने मेरी सांसों पर इस तरह हावी हो जाती हैं कि अंततः मुझे उठना पड़ता है। तब उस मरघटी उदासी में मैं दाल- भात बनाती हूं यह स्मरण करते हुए कि अंतिम बार उस दोस्त के कमरे पर उसके लिए जो बनाया था, वह दाल- भात ही तो था! कि शायद

कालपुरुष(1)…

  फोटो गूगल से। कालपुरुष… सोचती हूं कालपुरुष से बड़ा छलिया कौन है? रंगरेज कौन है?वह चाहे तो जीवन के पलों में प्रफुल्लता और उल्लास के चमकदार रंग भर दे! और जब चाहे उसे बदरंग कर दे।   तभी तो कुछ ही वर्षों में कुछ का कुछ हो गया।समूची दुनिया ही पलट गई।वह संसार जो हमारा था,हमदोनों ने बनाया था,वह भ्रम सिद्ध हुआ।जिसने गीत गाए थे मेरे लिए कभी “कैसे मुझे तुम मिल गए,किस्मत पर आए ना यकीन!” अचानक मानो वह कालपुरुष के घातक षड्यंत्र में सहभागी हो गया; विदा में दिए उसने दीमक की तरह आत्मा को चट करने वाले शब्द कि’     मैं उसके किसी बुरे कर्मो के कारण उसके जीवन में आई’ और जीवन के कंधो पर आनंद से चहक रहे दिनों को वह कालपुरुष ठीक उसी क्षण अट्टहास करता हुआ अजगर की भाँति निगल गया।आह!मुझे न निगला उसने।                                   कितने अमूल्य क्षणों की आहूति देकर जिसकी निर्मिति  हुई थी,उसे इस कालपुरुष ने ढहा दिया जैसे बालू का ढ़ीहा। ठीक ही है;अगर हम इस आभासित संसार में अपनी-अपनी दुनिया बनाते हैं तो वह समंदर किनारे एक बालक द्वारा बनाए गए बालू के किले जैसा ही है,जिसे ढहना ही है।काल के बस एक लहर की ही आवश्क

माथे पर मत चूमना…

फोटो नंदनगढ़ के बौद्ध स्तूप(बेतिया,बिहार)के पश्चिम की दीवाल से। डूबता एक बरस था,धुंध से आकाश और उसकी सहचरी दिशाएं ढकी थीं।व्याकुल थीं,सूरज की गर्मी को सहते-सहते।पर उनसे उबरने के कोई आसार न थें क्योंकि दिसंबर सबकुछ मानो जमा देने की गुप्त योजना में था।मई में मिले प्रेम के झरने को सफेद बर्फ की रंगहीन चादर से ढक देने के प्रयास में था,पर वहीं दूसरी ओर सर्द सुबह और शाम से जकडी धरती के तल में किसी मौसम में न जम सकने वाले अश्रुओं की नई झील बन रही थी,किसी के भी रोके जाने से न रूकने वाले समय के उसी प्रवाह में अचानक उसे लगा जैसे उसकी आत्मा को किसी ने आटे की तरह गूंद दिया हो।गेंद की तरह उछाल कर जमीन पर जोर से पटक दिया हो।ठीक भी था,जाने कितने वर्षों से वह आत्मा सो भी तो रही थी।उसे दुनिया का बिल्कुल होश नहीं था और दुनियादारी में तो वैसे भी अनाड़ी। मानो अब तक वह एक गहरी नींद में थी और अचानक किसी ने जोर से धक्का दे दिया हो! जगने पर होश आया कि नींद में ही,जगने से पहले ही उसे अकेलेपन के बीहड़ में पटक दिया गया है।तब उसने आंसुओं से खुद के हृदय की कलुषता का आचमन करना चाहा,आत्मा का प्रक्षालन करना चाहा।पर प्

छल!छल!छल! और बस छल।

    मेरे कमरे में दो ही चीजें बोलती हैं।पहला,एक छात्रा का दिया उपहार,जिसकी घंटियां मेरे कमरे में आने-जाने पर मुझसे टकराने से बज उठती हैं।और दूसरा,दीवाल पर टंगी आप दोनो की तस्वीर,आप दोनों की आंखें!अक्सर जब मन यह प्रश्न करता है कि आप दोनों को इतनी क्या शीघ्रता थी एक साथ जाने की और यह दुख तब और बढ़ जाता है जब मन आहत हो,घायल हो किसी बात पर।चाहकर भी हृदय किसी आत्मीय को संकोचवश फोन नहीं मिला पाता कि अगला व्यस्त न हो कहीं!वह भी घायल न हो!और मैं अपना रोना लेकर बैठ जाऊँ!       सोचती हूं,कभी मैं जिसकी आत्मीय थी,उन बहनों,मित्रों को एक सन्देशा ही भेजूं!कि पाषाण हृदय सम्भवतः पिघल जाए जैसे दुष्यंत कुमार ने कहा है कि ‘आसमान में भी छेद हो सकता है, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ‘।सम्भवतः मेरे शब्दों से कहीं कोई पिघल जाए, बदल जाए!आखिर कब बदल जाए,दिल ही तो है!  पर फिर सोचती हूं अच्छा ही है जो आप दोनों नहीं है,क्यूंकि छल के सिवाय इस दुनिया में रखा क्या है!हाँ एक छल है,जिसका मेरे कमरे में क्या,  पूरी दुनिया में बोलबाला है।            छल!छल!छल! और बस छल।  मनुष्यों से भरे इस जहाँ में कहीं कोई मिलता है,तो

तुम्हारे बिना…

तुम्हारे बिना समय,मानो हर घटी नारकीय आग में झुलसाती है, गलती जाती है स्मृति और नए-नए रूप धर डंसती है। तुम्हारे व्यंग्य ढल गए हैं नसों में,और टपकता है हरदम जीवन जैसे देह में फोड़ा। जब तब ज्वार-भाटे सी उठती है तुम्हारे प्रेम में बोले गए शब्द और छल से पगे उनके अर्थ, तब-तब मानो आत्मा की पीठ पर समय मारता है कोड़ा। आत्मा की पीठ,जैसे पिघल-पिघल प्रेम का शीशा पुनः पुनः निर्मित कर देते हैं इसको, घाव नए सहने को। विकल-विकल हो व्याकुल से चक्षु जाने कहाँ-कहाँ से स्वप्न बुन लाते हैं, जिनमें तुम लौट लौट आते हो, किन्तु चटक-चटक से जाते हैं सब स्वप्न सुनहरे, तभी समय कर लेता है मेरे उत्साही मन का शिकार विरह की आग में झोंकने को, और तुम पुनः पुनः लौट जाते हो। सब कुछ क्षणिक है,परिवर्तनशील है, कुछ स्थिर है तो बस विरह की वहनि! मानो यह जग हो विरह का हुताशन, जिसे ईश्वर जलाये बैठा है अनादि काल से, मानो हमे तपाकर वह ठंडा करता है अपने ह्रदय की दहन!! क्या ईश्वर भी उलझ गया था कभी किसी के कपट-प्रबंध में? क्या समय लगा रहा है उसके भी पीठ पर कोड़ा? * घटी- समय की सबसे छोटी गणना को घटी कहते हैं।

विचारों का पंचनामा(2)…

1. सबसे अच्छा होता है जीते जी मुर्दा शांति से भर जाना। 2. सबसे खतरनाक होता है ईमानदारी का रोग लग जाना। 3. जिस मार्ग से महाजन जाएं,उस पर नहीं चलना चाहिए, बल्कि जिस पर चलकर आत्मा का सूरज डूब जाए, उस राह पर चलना चाहिए। 4. अपनी बौद्धिक क्षमता को भकोसवाना हो, बौध्दिक मेहनत को लूटवाना हो तो सरकारी नौकरी करना चाहिए। 5. जिंदगी की दुश्वारियां बढ़ानी हो,बिना चाकू- बंदूक के जीते जी मरना हो तो रिश्तेदारों को उधार दे दीजिए।

साल के बारह महीने…

    उस बरस  दिसंबर  में लगे ज़ख्म ने  जनवरी  को संज्ञा-शून्य कर दिया था,और लोगों ने कहा था,ठंड बहुत पडी अब कि जनवरी।  जाकर दर्द उभरा था  फरवरी  में,जबकि प्रेम का महीना है।  मार्च  देह-मन पर फल आए दर्द के बौर से बौराया,व्यथित बीतता था, अप्रैल  कुछ संभला कि  मई  आ धमकी थी राज करने की नीति से, उस बरस  जून  में ऐसी लू बही कि माँ का आँचल जाने किस लोक उड़ा कर ले गई, जुलाई  उसी सदमे में पीड़ा से तर-बतर बीत रहा था कि  अगस्त  में मई की राजनीति ने मित्रता का रूप धर लिया और  सितंबर  की निर्मम खूबसूरती ने कुछ पता न चलने दिया, यूँ नीम-बेहोशी को  अक्टूबर  तोड़ने की कोशिश करता ही है कि     नवंबर  में पिता रूपी सूरज दक्षिण में डूब जाता है, बचे- खुचे खुशियो की आस को दिसंबर कौड़ी में जला ताप लेता है,कुछ इस तरह दिसंबर का ज़ख्म नासूर जाता है।       जीवन के प्रत्येक साल उस बीते एक साल की स्मृतियों की पुनरावृत्ति है ।    कुछ इस तरह जीवन कालचक्र की अपनी गति से मुझमे बहती है।।