Skip to main content

दाल-भात…

 

मेरा ईश्वर दाल- भात का बहुत प्रेमी है*!मैं भी। वह उसे इतनी तन्मयता से खाता है मानो माया को तजने का समय आ गया है!इतने प्रेम से खाता है मानो जीव ने जान लिया कि अब तक जो ‘उसे’ जाना गया,उससे भी परे उसका विस्तार है हमारी कल्पना से परे अनंत तक।स्वरूप ही उसका अनंतता का है,अनंत आनंद का है,जब उस आनंद में गोता लगाने का मन होता है तो रसोई में दाल- भात से बेहतर कुछ सूझता नहीं। 

       दाल- भात, मानो दो प्रेमी, दो मित्र, जिन्हें एक दूसरे में समोने के लिए ही ईश्वर के मन मे सृष्टि के सृजन की इच्छा जगी।लेकिन मेरा ईश्वर तब भी दाल- भात खाता है जब वह बहुत उदास होता है,और मैं भी।उसे लगता है कि प्रतीक्षा की उम्मीद अब दम तोड़ देंगी तब वह उनमें प्राण फूंकने के लिए दाल- भात खाने को बैठ जाता है। उसकी उम्मीदों का, विश्वास का प्रसार मुझ तक पहुंच कर मुझ पर इतना दबाव बनाता है कि जैसे सोते वक़्त सपने मेरी सांसों पर इस तरह हावी हो जाती हैं कि अंततः मुझे उठना पड़ता है।

तब उस मरघटी उदासी में मैं दाल- भात बनाती हूं यह स्मरण करते हुए कि अंतिम बार उस दोस्त के कमरे पर उसके लिए जो बनाया था, वह दाल- भात ही तो था! कि शायद इसे खाते वक़्त यह बात मस्तिष्क में कौंधे,हृदय मे समा जाए कि हम दोनों दाल- भात की तरह थें/हैं,फिर अलगाव की यह जिद क्यूँ!उसे मेरे हाँथों की छौंक लगी दाल बहुत प्रिय थी।मुझे उसके घर से आई देशी अरहर वह भी छिलके वाली बहुत पसंद थी/है। मानो हमारे रिश्ते की सारी खुशबु उस कुछ एकाध किलो के अरहर में समा जाती हो, मानो उत्तर भारत के सब गांवों की मिट्टी की खुशबु उस एक-आध किलो के अरहर में समा गई हो।

जाने कितनों माह बाद दाल में छौंक लगाया,   मानो यह छौंक मिर्च-जीरे और हींग का नहीं, विद्रोह हो अपनी पीड़ाओं से।छौंक मानो वे प्रश्न,जिसे जब-तब जिंदगी मेरे समक्ष खड़ा कर देता है कि अब समय अधिक नहीं बचा,सवाल के जवाब अब निश्चित करने पड़ेंगे।सोच रहीं हूं जिंदगी ऐसे सवालों में नकल की कोई सुविधा नहीं देती कि एक बार भविष्य में झांक कर देख लेती की क्या उत्तर ठीक है!पर ऐसा नहीं होगा,जानती हूं!क्या ऐसा नहीं हो सकता सब पीड़ाएं,सब प्रश्न अग्नि में जलकर स्वाहा नहीं हो सकते! 

     आज देखा व्हाट्स्एप पर एक स्टेटस को।मानो, स्टेटस में केवल खिड़की नहीं थे वह,वे द्वार थीं बचपन की स्मृतियों में झांकने का-जहां गांव है,घर का कच्चा आँगन है,पिता के साथ बैठी मै हूँ,और रसोइएं में अम्मा है,एक ही थाली में दाल- भात लेकर ओसारे में मुझे दे जाती थी वह अपने हाथों की खुशबु से गमकते उस दिव्य भोजन को।मैं जो साँझ को ही ऊँघने लगती थी इस आवाज पर जग जाती कि ‘ बच्ची खाके सुत्ता’।

  दाल- भात ने याद दिलाया अब कोई बच्ची कहकर नहीं पुकारता!

     आज ही गीत चतुर्वेदी की नई पुस्तक हाथ लगी जिसमें वह लिखते हैं “कुछ रिश्तेदार मर चुके होंगे, घर वालों ने जरूरी भी नहीं समझा होगा फोन पर खबर देना।”क्या अजब संजोग कि शाम में घरवालों ने फोन पर बताया ‘हठुराइन’ नहीं रहीं,जबकि उनके मरे दो दिन बीत चुके थे। वह रिश्तेदार तो नहीं पर बचपन की जिंदगी के किस्से उनके बिना सम्भव भी तो नहीं!जब कहीं कोई बचपन के जीवन का पात्र मरता है तो वह मिटाकर जाता है अपनी मृत्यु रूपी इरेजर से न जाने कितने किस्से जो केवल उसे ही सुनाने होते हैं,जो केवल उसी से सुनने को मिल सकता था और इस तरह जब कोई कहीं मरता है तो मैं भी मर जाती हूँ थोड़ा सा अपने अन्तर में।

    उस खिड़की ने,हठुराइन ने,जिंदगी के सवालों ने,अंतिम सांसे गिन रहे साल ने,मसक रहे दिसंबर ने,एक साथ सांख्य के त्रिविध दुःख को समक्ष उत्पन्न कर दिया जिससे बचने का यही उपाय सूझा कि दाल-भात पकाया जाए!इन सब दहकते विकलताओं ने विवश किया,अपना दुःख दाल- भात के साथ बांटा जाए! 

अकेले हूँ,आवारा तो नहीं कि कोई नशा करूँ!

       दाल- भात,उतना ही पवित्र कि मन में आता है पहाड़ों पर किसी अनजान ढाबे में बैठकर इसी दिव्य भोजन से पारण करूँ। दुःख से पार पाकर मैंने खुशी के एक नन्हें से पल में तन्मय हो,ईश्वर की ओर ताका कि आज भला उसे क्यूँ इच्छा हुई इस दिव्य भोजन की?क्या वह प्रसन्न है!!उधर झांका तो देखा उसे टेसुएं बहाते हुए।मैंने मुस्कराकर पूछा क्या हुआ? उसने बताया,कल मुझे पढ़ाते समय सुन लिया था कि वह है तो ईश्वर! सर्वज्ञाता,सर्वव्यापक,कर्मफलदाता और जाने क्या-क्या!लेकिन है तो आभासी ही!कितनी विडंबना है इस लाइन में”सर्वोच्च आभासी रूप”।मुझे बहुत जोरों की हंसी आई,कि और धारण करो उपाधि माया की!फिर मैंने मानवीयता दिखाई कि वह कभी ईश्वरत्व दिखाये मेरे साथ,मैंने उसे निमंत्रित किया दाल-भात खाने के लिए।

    दाल-भात,कि एक-दो दिन न मिले तो मन अनमना सा हो जाता है,जैसे अनजाने किया गया कोई पुण्य,जो कभी फलित हो और मैं पार पा जाऊँ भव सागर से।

दाल-भात कि जैसे अंतिम सांसे गिन रहा दिसंबर इस उम्मीद में हो कि कभी तो वक़्त करवट बदलेगा।दाल-भात कि जैसे सुख हो, दुःख हो,सबमें समभाव से तृप्ति देता है,संतुष्टि देता है।।

*यह लाइन सुबोध के एक लाइन को एडिट कर के यहां लिखा है।

Comments

Popular posts from this blog

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

शिक्षक दिवस:2023

विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

पिताजी,राजा और मैं

  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं