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कालपुरुष(1)…

 

फोटो गूगल से।

कालपुरुष…

सोचती हूं कालपुरुष से बड़ा छलिया कौन है? रंगरेज कौन है?वह चाहे तो जीवन के पलों में प्रफुल्लता और उल्लास के चमकदार रंग भर दे! और जब चाहे उसे बदरंग कर दे। 

 तभी तो कुछ ही वर्षों में कुछ का कुछ हो गया।समूची दुनिया ही पलट गई।वह संसार जो हमारा था,हमदोनों ने बनाया था,वह भ्रम सिद्ध हुआ।जिसने गीत गाए थे मेरे लिए कभी “कैसे मुझे तुम मिल गए,किस्मत पर आए ना यकीन!” अचानक मानो वह कालपुरुष के घातक षड्यंत्र में सहभागी हो गया; विदा में दिए उसने दीमक की तरह आत्मा को चट करने वाले शब्द कि’     मैं उसके किसी बुरे कर्मो के कारण उसके जीवन में आई’ और जीवन के कंधो पर आनंद से चहक रहे दिनों को वह कालपुरुष ठीक उसी क्षण अट्टहास करता हुआ अजगर की भाँति निगल गया।आह!मुझे न निगला उसने। 

                                 कितने अमूल्य क्षणों की आहूति देकर जिसकी निर्मिति  हुई थी,उसे इस कालपुरुष ने ढहा दिया जैसे बालू का ढ़ीहा। ठीक ही है;अगर हम इस आभासित संसार में अपनी-अपनी दुनिया बनाते हैं तो वह समंदर किनारे एक बालक द्वारा बनाए गए बालू के किले जैसा ही है,जिसे ढहना ही है।काल के बस एक लहर की ही आवश्कता होती है सबकुछ तहस नहस करने के लिए। मुझसा मुर्ख कौन होगा जो शंकर को पढ़ते हुए भी अपनी उस दुनिया को सत्य मान बैठे थी। पर मैं शंकर नहीं थी न!मैं तो उस काल के हाथों का खिलौना भर थी,जिससे वह अपना मनोरंजन कर रहा था।

मनुष्य का जीवन इस विशाल ब्रम्हांड की कितनी क्षुद्र वस्तु है।जब पृथ्वी इस ब्रम्हांड में सुई की नोक के बराबर भी नहीं,तब मनुष्य का अस्तित्व कितना है!किन्तु दुःख उसके अस्तित्व को इतना भारी कर देता है मानो करोड़ों-करोड़ ब्रह्मांड का बोझ उसके हृदय पर हो!तब मुझे बुद्ध का यह वचन स्मरण हो आता है कि ‘इस संसार में जितने आंसू बहाए गए हैं, समंदर का जल उसके आगे कितना कम है’।

       सम्पूर्ण विश्व में पल में परिवर्तन कर देने वाले काल के लिए तब हम मनुष्य और हमारा जीवन क्या स्थान रखते होंगे!हमारे जीवन में मानो खुशियां वह बुलबुला है जिसे काल देवता अपने क्रीड़ा के लिए बनाता है और फिर जब मर्जी आता है,फोड़ देता है।एक व्यक्ति के जीवन में कौन सा बुलबुला फूटा,कौन सा नया बना, इससे जगत में न तो कोई वृद्धि होती है न कोई कमी।संसार तो जैसा होता है,वैसा ही बना रहता है और काल के लिए यह उसकी अहम की पूर्ति का माध्यम बनता है जिससे वह स्वयं को हमारा नियंता होना सिद्ध करता रहता है।

                   लेकिन मनुष्य का जीवन उन फूट गए क्षणों की किरंचे बटोरने में,इतने आंसू बटोर लेता है उर में कि संसार के समस्त समंदर की जलराशि ह्रदय में बने समंदर के समक्ष कम ही पड़ जाए।विगत दिनो की स्मृतियां चुभते चुभते ऐसे फोड़े देह और आत्मा पर बना देते हैं कि जीवन पर से,लोगों पर से,सब विश्वास नष्ट हो जाता है।फिर से छले जाने का भय कछुए की तरह हमें अपने खोल में सिमटने को विवश कर देता है,कांधे पर रखे गए किसी अपनत्व भरे हाथों को झटक दिया जाता है,बिखर-गल जाने की आशंका में।बार-बार यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर है या नहीं?श्रद्धा के पीछे भय तो नहीं?

                  पर हम नहीं जान रहे होते हैं,ठीक उसी समय काल हम पर मुस्कुरा रहा होता है कि वासनाओं में लिपटे हम अल्पज्ञ मनुष्य क्या किसी प्रश्न का उत्तर पाने योग्य हैं भी या नहीं!और हम स्वयं को कभी कर्म नियमों में जकड़े हुए,कभी नियति की कठपुतली समझ,जीवन के धधकते दावानल में देवदत्त रूपी कालपुरुष के मारे गए बाणों से उस पक्षी की तरह घायल हो,धरती पर असहाय पड़े तडपते रहते हैं,जिसे कोई सिद्धार्थ बचाने-दुलारने,स्नेह का लेप लगाने नहीं आते।।

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