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एक बीती बात…


दुबली पतली काया,साधारण शक्लोसूरत और तिसपर जरूरत पड़ने पर भी बोलने से बचने की आदत ने हमेशा मुझे जीवन में हर तरह के प्रतिस्पर्धा में दबावमुक्त ही रखा और सौभाग्य से आरंभ में कमोबेश हरजगह कमतर ही समझा जाता है।(हालांकि यही सत्य भी है कि कमतर ही हूँ)।।पर मैं भी कुछ कम न थी,दृष्टा की भांति अक्सर आनंद ही उठाया ऐसी परिस्थितियों में।

तो कहानी आरंभ होती है महामना की तपोस्थली(काशी हिंदू विश्वविद्यालय) के प्रागंण से….चूंकि हिंदी माध्यम से पढ़कर आने वाले के लिए ये एक अलग ही भयावह माहौल जैसा होता है जबसबकुछ अंग्रेजीमय हो,क्लास में टीचर के श्रीमुख से एक शब्द हिंदी की न निकले, बाहर स्टूडेंट्स को मानो हिंदी बोलने में इज्ज़त घटती थी।अब वैसे माहौल में कुछ जम नहीं रहा था मामला।एक तरफ बारहवीं तक स्कूल में लगभग हर तरफ अपना ही जलवा.. शिक्षकों के चहेते, दोस्तों, सहपाठियों के चहेते।और तो और दुश्मनों के भी चहेते। खैर…वैसा दौर तो अब जीवन में कभी न आयेगा।

तो फिर लौटते हैं महामना के प्रागंण में,तमाम दुश्वारियों के बीच ये भी एक सजा कि अपने कालेज से सिर्फ मैं ही क्वालीफाई कर पाई थी प्रवेश परीक्षा में।तो न दोस्त, न हमदम कोई।जैसे तैसे करके शहर के एक ही कालेज से आई 5 लड़कियों को पता नहीं मुझमें क्या दिखा..शायद बेचारे लगे होंगे,निश्चित रूप से यही लगे होंगे,उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया।मैने भी झट मौका लपक लिया।हालांकि हरपल यह एहसास रहता था कि इस समूह में मैं बाहरी ही हूँ और एक-दो लोगों द्वारा यह एहसास भी गाहे बगाहे करवा ही दिया जाता था।(वैसे बाहरी होने का दंश आज भी झेल रही हूं)।फिर भी तमाम कठिनाइयों के बीच पढ़ाई की गाड़ी जैसे तैसे चल रही थी पर आत्मविश्वास दिनोदिन रसातल में ही जा रहा था।तभी एक घटना घटित हुआ..महामना के उस महिला”महा” विद्यालय में हमारे ग्रेजुएशन के समय बंगालियों का बोलबाला था, तिसपर अंग्रेजी अच्छी होने से उनकी धाक भी बहुत थी।हमारे समूह के भी दो-तीन लोग अच्छी अंग्रेजी बोलते थे, पर तब भी जलवा तो बंगाली स्टूडेंट्स और उनके ग्रुप की ही थी।इसी कमतरी और दयनीयता से भरे दिनों में एक दिन हमसभी अंग्रेजी के क्लास में अपने शिक्षक की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी पता चला, आज मैम नहीं आयेंगी, पर तुरंत अगला क्लास उसी कमरे में होने से भीड़ छटी नहीं थी,बस बिखर गई थी।

तभी हमारी नजर एक बैंच पर पड़ी ।वहां एक बंगाली स्टूडेंट जो देखने में बहुत ही मजबूत कद काठी की थी और तेज भी,जुबान की भी और हाथ पैर चलाने में भी,भरे क्लास में मेज पर हाथ पटक पटक कर सबको पंजा लड़ाने की चुनौती दे रही थी।कुछ उसी के साथ की लड़कियों ने कोशिश भी की पर मुंह की खाकर लौट आईं।लेकिन तबतक उस खेल में सबको आनंद आने लगा,बस फिर क्या था,उनका समूह  लगभग ललकारने वाली भाषा में सबको चुनौती दिये जा रहा था, पर किसी की हिम्मत न हुई।उसका शरीर ही देखकर विरोधी आधा मैच तो शुरू होने से पहले ही हार जाय!

पर कब तक बर्दाश्त होता।मैं उठ खड़ी हुई और चुनौती स्वीकार कर लिया।मेरे सभी मित्रों ने बहुत समझाया।कुछ ने ये भी कहा कि अरे हाथ तुड़वाने हैं क्या!एक ने तो पता नहीं चिंता में या खुन्नस में ये तक कहा कि अरे हाथ छोड़ो ,तुम्हारे शरीर की कोई हड्डी न बचेगी।(ये सच भी हो सकता था क्योंकि उसवक्त मेरी हालत सीकियापहलवान जैसी ही थी)।लेकिन न जाने क्या धुन सवार था मुझपर!विरोधी के दोस्तों द्वारा खूब मजाक भी उडाया गया, यहां तक की कुछ अतिउत्साह मे आकर एकाक दो उत्तम किस्म की गालियां भी दी .. मुझे लगा नतीजे के बाद हारने वाली टीम को कुछ सांत्वना के तौर पर मैं दे पाऊं! शायद,यही सोच सब गालियां और मजाक रख लिए।मुकाबला एक दुबली पतली स्टूडेंट ने स्वीकारा है,यह जान जहां तहां बिखरे सब क्लासरूम में आ गये मुकाबला देखने।अब पूरा क्लास ठसाठस भर गया।न मालूम मेरी बेवकूफी ने या मेरा लड़ने के जज्बे ने , हरेक को क्लासरूम में खींच लाया था।।

मुकाबला शुरू हुआ…जाहिर सी बात है जब खिलाड़ी मानकर चलता है कि मुकाबला आसान है,वही मुकाबला उसके नाकों चने चबवा देता है और यहां यो मामला और भी गंभीर निकला और कुछ मिनटों की कड़ी मशक्कत के बाद वही हुआ जिसकी उम्मीद जीतने वाले को छोड़कर किसी ने न की थी।हां, वह दुबली पतली लड़की मैच और दिल दोनों जीत चुकी थी अपने ग्रुप का भी और विरोधी के समूह का भी।।उसके बाद तो अगले दो-ढाई साल उस घटना की बदौलत मिले आत्मविश्वास से ठीक ठाक बीत गये।।
आज भी वो दिन याद आता है तो होंठों पर एक आत्मविश्वास की मुस्कान तैर जाती है और मन घोर निराशा में भी आशा की किरण ढूंढने निकल पड़ता है।।

चित्र प्रतीकात्मक, गूगल बाबा से।

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