मेरे कमरे में दो ही चीजें बोलती हैं।पहला,एक छात्रा का दिया उपहार,जिसकी घंटियां मेरे कमरे में आने-जाने पर मुझसे टकराने से बज उठती हैं।और दूसरा,दीवाल पर टंगी आप दोनो की तस्वीर,आप दोनों की आंखें!अक्सर जब मन यह प्रश्न करता है कि आप दोनों को इतनी क्या शीघ्रता थी एक साथ जाने की और यह दुख तब और बढ़ जाता है जब मन आहत हो,घायल हो किसी बात पर।चाहकर भी हृदय किसी आत्मीय को संकोचवश फोन नहीं मिला पाता कि अगला व्यस्त न हो कहीं!वह भी घायल न हो!और मैं अपना रोना लेकर बैठ जाऊँ!
सोचती हूं,कभी मैं जिसकी आत्मीय थी,उन बहनों,मित्रों को एक सन्देशा ही भेजूं!कि पाषाण हृदय सम्भवतः पिघल जाए जैसे दुष्यंत कुमार ने कहा है कि ‘आसमान में भी छेद हो सकता है, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ‘।सम्भवतः मेरे शब्दों से कहीं कोई पिघल जाए, बदल जाए!आखिर कब बदल जाए,दिल ही तो है!
पर फिर सोचती हूं अच्छा ही है जो आप दोनों नहीं है,क्यूंकि छल के सिवाय इस दुनिया में रखा क्या है!हाँ एक छल है,जिसका मेरे कमरे में क्या, पूरी दुनिया में बोलबाला है।
छल!छल!छल! और बस छल।
मनुष्यों से भरे इस जहाँ में कहीं कोई मिलता है,तो वह बस छल है।
साँझ ढले जब समझा-बुझाकर स्मृतियों को कमरे पर मेला लगाने से रोक लेती हूं तो देखती हूँ ठीक सामने कुर्सी पर बैठा छल अट्टहास कर रहा है!और व्यंग्य करता मुझपर कहता है कि ‘अपना लो मुझे,और कोई नहीं है जो इस मानवीय जग में किसी का होता है’।और फिर तुम ही तुम बोलोगी इस दुनिया में,सब तुम्हारी सुनेंगे’।फिर न जाने क्यूँ मुँह बिचकाकर कहता है ‘छोडो तुमसे नहीं हो पाएगा ‘।
मैं भी गुस्से से भरकर कह उठती हूं ‘क्यूँ नहीं मैं कर पाऊँगी?,बताओ,क्या करना होगा मुझे?
उत्तर आया-आत्मा मुझे बेचनी होगी।
अब मैं क्या कहूँ उस छल से कि आत्मा कैसे बेचूं!
इसलिए नही कि मैं बेच नहीं सकती या कि मैं बहुत ईमानदार-महान हूं।मैं तैयार हूं इस आत्मा नामक सबसे कुरूप वस्तु को बेचने के लिए।
लेकिन वह आत्मा इतनी घायल, इतनी दारुण अवस्था में है कि डर लगता है छुने से कहीं और न टूट-फुट जाए!और तो और मैं उसे बनारस से ले ही नहीं आ पाई!वह अब तलक वहीं है,अभिशापित प्रेत की तरह भटकता हुआ।घर से बहनों के घर तक,बहनों के घर से दोस्तों के दर तक।पर प्रेत को भला कौन सुनता है!
कभी पूछती हूं कि कब लौटोगे आखिर?
दरअसल वह अब तक प्रतीक्षा में है कि जैसे घूरे के दिन भी फिरते हैं,उसके भी फिरेंगे।और नहीं तो उसने पढ़ लिया है कहीं कि ‘कुछ लोग एक ही धोखा खाने के बाद बन जाते हैं- संत,शराबी,या धोखेबाज।पर आदमी अगर इनमे से कुछ नहीं बनता और बना रहता है पूर्व की भांति प्रेमी/मित्र,तो एक दिन वे मुक्त हो जाते हैं,उसने तो कई धोखे खाए हैं,कई छल के छाले अब भी ज्यों का त्यों हृदय पर पड़ा है।
पर जी में आता है कि बताऊँ कैसे अपनी ही आत्मा को कि मुक्ति की बात भी छलावा है।मेरा बस चले तो मैं आचार्य शंकर के इस सूत्र” ब्रह्म सत्यम,जगत्मिथ्या,जीवब्रह्मैवनापरः”के स्थान पर लिखूं- ब्रह्मछलम्,जगतछल,जीव छल”।लिखूं कि सर्वम छलं!छलं!
और अंततः एक बार पुनः छल बड़े जोरों से मुझपर हंसता हुआ कमरे से चला जाता है फिर से मेरे पास आने के लिए रूप बदलकर।और मैं मन की पीड़ा आप दोनों से साझा करने बैठ गई। अब बस करती हूं।फिर लिखूँगी,प्रयास होगा कि अबकी कुछ खुशियां साझा करूंगी पत्र के सहारे।।
शुभ रात्रि।।
चिट्ठियां (3)जो,जिसको लिखी जाती हैं,उस तक कभी नहीं पहुंचती।
Comments