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कारवाँ कारवा


यद्यपि सामाजिक रूप से मैं एक असफल व्यक्ति हूँ,तथापि फिल्म के माध्यम से ही सही,जुड़ते हैं “कारवाँ” से…


जिंदगी सबक सिखाती है पर उस सीखने में हम बहुत कुछ खोते चलते हैं कि उस सीखे हुए सबक का कोई औचित्य फिर नहीं बचता जीवन में।मुश्किलें हर बार रूप बदलकर आतीं हैं और जिंदगी नये सबक सीखाने को तैयार रहती है।मानो लगता है जीवन एक पाठशाला है जहाँ जिंदगी पाठ पढ़ाती है सबक सिखाने का और मुश्किल उस प्रश्न पत्र की तरह है जिसमें एक भी प्रश्न का दोहराव नहीं होता।
पर फिल्म की बात थोड़ी अलहदा है कि फिल्म हमें हंसाते हुए सिखाती चलती है और यदि इरफान सर के अभिनय से सजी हो तो ठीक वैसे ही जीवन के पाठ पढ़ाते चलती है मानो फिल्म आप नहीं देखते, बल्कि फिल्म का ही एक हिस्सा हों आप।


यह ठीक भी है इस पूरी फिल्म के संदर्भ में, मानो हीरोइन, हीरो ,सब पात्र,सब मेरे ही अंदर है और सब में मैं ही हूँ।
बस एक इरफान रूपी जिंदगी है जो साथ चलती रहती है अपनी ही धुन में।उसे इस बात से राब्ता तो है कि पिता की मृत्यु पर बोध के रूप में वह साथ रहती है पर इतनी बेपरवाह भी है कि ठीक उसी क्षण वह जीने का अवसर नहीं खोती।अपनी भड़ास,अपनी खुशी एक अनजान से साझा करते चलती है, मानो कह रही हो, मृत्यु ही अंतिम सत्य है, इसीलिए किसी भी पल जीना नहीं छोड़ना चाहिए।सबकुछ यहीं छोड़कर जाइए अपनी खीझ, ऊब,निराशा, असफलता।फिल्म में ऐसे बहुत से दृश्य आएं हैं, जो बताती है कि केवल हम ही जिंदगी से समझौता नहीं करते चलते, जिंदगी भी हमारे लिए रूकती,गिरती-पड़ती,समझौता करते चलती है।हम बस स्व को हीनता के दबाव से मुक्त करने के लिए यह कहते फिरते हैं कि ये जिंदगी बहुत अजीब है।

क्या आपने वह सीन देखा,जब ब्रश करते वक्त अचानक से हीरो अपना चेहरा आईने में देखता है और मुस्कुराता है पलभर।फिर अगले ही पल एक स्याह, घुप्प मनहूसियत सी छाया चेहरे पर।
मैं अकेले में ठीक ऐसे ही हूँ।यह रोज की मेरी क्रिया है, ब्रश करने के बाद बाथरूम के बाहर आंगन में लगे आइने को देखना और इस मुर्दा पछतावे से भर जाना कि एक आंगन सुकून का न दे पाई ,न बना पाई।
हां मैं भी इस धरती पर एक स्पेस को वेस्ट कर रही हूं कि लाख कोशिशों के बाद भी न छात्र बन-मिल रहे हैं, न शिक्षक समझ रहे हैं मेरी पीड़ा…वास्तव में ये दोनों वर्ग भी सुनने और समझने के काम अब नहीं करता, एक साथ या अलग-अलग।मैं खुद भी नहीं समझ-सुन पाती।मेरा जीवन न सुनने-समझने की लघुकथाओं से भरा है।वास्तव में यह हर उस व्यक्ति का सच है जो किसी न किसी अहंकार से ग्रस्त हो अन्य की सुनना, समझना नहीं चाहता।
लिफ्ट में जो चाहते भी कुछ कह न पाया वो मैं ही थी, मैं तो किसी से कह नहीं पाती जो कहना चाहती हूँ जबकि दिल में कितनी बातें होती हैं।अगर व्हाट्सएप न होता तो शायद मेरी सामाजिक असफलता में और भी बढ़ोत्तरी ही होती दिन पर दिन।अब जो न कहते बनता है कुछ किसी से,मैसेज से कह देती हूँ, हां,सेंड पर क्लिक करने से पहले सोचती हूं बहुत कि क्या यह ठीक होगा कहना?
मजे की बात ये है कि यह सबके साथ बात करने की समस्या है, मात्र आत्मीय संबधों में ही नहीं।अंतिम क्षणों तक प्रयास होता है प्रोफेशनल और अनप्रोफेशनली फोन या मैसेज करने के पहले कि किसी वजह से न करना हो।।
आकाश खुराना जी ने कला एवं मानविकी के विषयों द्वारा एक व्यंग्य भी किया है शिक्षा पर कि आर्ट्स लेकर हाउसवाइफ बनना है क्या?फिजूल में इन्ट्लेक्चुअल बातें, क्रांति का झंडा बुलंद करना नारों से।ठीक ही है कहा है ,एक जाति का अहंकार तो छोड़ा नहीं जाता, बातें होंगी एक राष्ट्र और धर्म के व्यापकता की।
यूरोप को आधुनिक विश्व साहित्य का घर कहा जाता है।आर्ट्स वाले ही हैं, उन्ही लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, फिल्मकारों की बदौलत।वही दर्शन,इतिहास,अंग्रेजी जैसे विषय को पढ़कर निकले लोग बनाए हैं साहित्य का घर।
पर भारत के संदर्भ में बात ठीक विपरीत है।यहां एक युवा अपने कमरे में तो एक कोना दे नहीं पाता स्वतंत्र चिंतन के लिए खुराक रूपी पुस्तकों से।
शायद यही कारण है कि मैं बीज हूँ पर बेकार, जिसे उसके समय के देश-काल रूपी घुन ने खा लिया है।जो मात्र धरती पर एक देश व्यर्थ कर रहा है।हमारा दफन होना हमारी विलादत नहीं, शायद हमारी नियति है, मानो यह पूरा जीवन दफन होने की तैयारी के लिए ही जी रहे हों हम।

अगला सीन जब दिलकुर सलमान पहुंचता है सरकारी आफिस।यह बिल्कुल ठीक बाबुओं की मानसिकता को दर्शाता है।पहले टोके जाने पर चिडचिडाना,उसके बाद वेट लूज करने के बहाने सबकुछ मैनेज करना।जिसे ब्रह्मा भी उसकी गलती का अहसास नहीं करवा सकते।भारतीय बाबूओं में यह प्रतिभा कुट-कुटकर भरी होती है कि वह चाहे खुद कितनी बड़ी गलती करे,दोषी हमेशा सामने वाला ही सिद्ध होता है।
हालांकि इतना सस्ता वक्तव्य औरतों को लेकर इरफान जैसे संजीदा अभिनेता पर कुछ खटकता है।मैं तो दूधवाले के संदर्भ में भी यह नहीं सोच सकती।अभी जहां हूँ, वहां दूध बहुत अच्छा मिल जाता है, मलाई इतनी गाढ़ी और जब गरम करो,तब वैसे ही पुनः दूध अपने जलन को समेटकर मलाई रूपी सृजन में बदल देती है।प्रेम का क्या यही सच है!उबालते वक्त उबलते दूध से कई बार यह प्रश्न पूछा है।जवाब जीवन के अनुभव देती है।इन अनुभवों ने,हमारी अतृप्त कामनाओं ने हमें, हमारी चेतना को एक चलते फिरते लाश में कब तब्दील कर देता है कि हमें पता भी नहीं चलता।
इरफान लाश को कसकर बांधने की बात नहीं करते, वह इशारा जिंदगी का जिंदा इंसान की ओर है कि अपनी ही अतृप्त, अधूरी कामनाओं में हम ऐसे बंध गए हैं कि जरा भी चेतना हमारी प्रभावित नहीं होती आसपास की घटनाओं से।
फिल्म भारतीय माताओं-पिताओं के उस पक्ष को दिखाती है जहाँ वे अपने संतानों के प्रति अतिमोह से व्याप्त रहते हैं।भारतीय पिताओं का यह ब्रहास्त्र है कि “दुनिया के सामने अपनी बेइज्जती कराओ और मेरी भी”।अब भारतीय मध्यमवर्गीय युवा चाहे जैसा हो, बाप का भय-अदब अब भी देह-मन-आत्मा में बिंधा हुआ है।हालांकि यह सुकून की बात है कि मेरे माता-पिता ने अपने बच्चों पर कुछ बनने का दबाव कभी नहीं बनाया, तब भी जब इकलौते पुत्र के इंजीनियर बनने के ख्वाब चकनाचूर हुए पुत्र के व्यापार करने की मंशा ने।
पर न जाने युवाओं की यह कौन सी पीढ़ी है जो अलग-अलग नशे में ऐसे डूबाए है खुद को कि खुद का ही होश नहीं, परिवार की क्या बात करें।
जब जब मिथिला को इरफान झिड़कते हैं, वास्तव में जिंदगी हमें झिड़क रही होती है जब जब हमारे कदम बहकते हैं।
पता नहीं निर्देशक ने ऐसा सोच कर इरफान और हीरोइन के भाषा के झगड़े को रखा है कि यूं ही, पर ऐसा लगता है मानो यह एक भारतीयता के बोध से भरे व्यक्ति का झगड़ा-व्यंग्य है, जहां उसे अपने देश में अपनी ही भाषा के ज्ञान को लेकर उसकी विद्वता को दोयम दर्जे का सिद्ध कर दिया गया है।और जब तब वह अपना खीझ यूं निकालता रहता है।
इरफान के पीछे गैंगस्टर की जो टीम पड़ी है, वह वास्तव में जिंदगी की अपनी दुश्वारियां हैं जो हमें दिखाई नहीं देता अपने अकेलेपन का चश्मा अपनी आंखों पर चढ़ाए होने से।
फिल्म का वह दृश्य न जाने कितनी बार देख चुकी जब इरफान हीरोइन के पहिया आगे ले जाने पर कहते हैं “अरे!पहिया, पहिया, लेकर भाग गई यार”।
मानो जिंदगी हमें हमारी व्यस्तता के बीच चेताते चलती है कि वक्त जवानी,जोश,खुशियां सब लेकर भागा जा रहा है, एक पल बोझ की तरह जिंदगी को लादे,हम जरा ठहरकर इस पल को जी तो लें।
इरफान और मिथिला का झगड़ा एक प्रयास भी है जहाँ ऊब में डूबे हमारे मन का ध्यान उस युवा,ताजगी,जोश से भरे खुद के मन की ओर जाए और शायद रूककर हम सोचें कि हम कर क्या रहे हैं।
फिल्म बड़ी सूक्ष्मता से केरल की भौगोलिक खूबसूरती और भाषा की विविधता को दिखाते हुए बड़े प्यार से भारत के दर्शन कराते चलती है।इस खूबसूरती में, इसके विविधता, सहअस्तित्व को जब बंटवारे का दंश डसता है,जब तब यह तड़प संवेदनशील मन मौका मिलने पर प्रकट कर ही देता है।देखिए उस दृश्य को जब खुशी खुशी उस अजनबी शादी समारोह में खाने के उद्देश्य से गया मन वहां बैठे अंग्रेजों को देख उबल पड़ता है।


खैर फिल्म आगे बढ़ती है शराब और शबाब में डूबे जीवन पर तंज करते हुए..”इंसानों की पोशाकों में शैतानों की मजलिस है ये”।
खुश रहने के लिए नशे की आवश्यकता!यह हमारे दौर की अनेक विसंगतियों में से एक है।हमसब खुश रहने के लिए किसी न किसी नशे का आसरा लेते हैं बजाए खुद के, परिवार और दोस्तों के।और फिर भी खुद के हालात के लिए खुद को दोष नहीं देना चाहते।स्व में झांकना नशे में डूबने से अधिक खतरनाक है शायद।हो सकता है यह हमारी आत्मा को झंझोड़ता हो,नशा केवल हमारी देह को झंझोड़ता है।
पर दूसरी ओर लेखक,निर्देशक एक गाड़ी गवाएं, चोट खाए अस्पताल में बैठे व्यक्ति का अस्पताल में बैठकर किसी के लिए शायरी पढ़ने के दृश्य से दरअसल भारतीयता के उस जिजीविषा को दिखाता है जब मृत्यु के समीप बैठा व्यक्ति भी जीवन के आनंद को लेने से नहीं चूकता।(इसपर एक कथा भी है, जो फिर कभी)
एक समय था जब दोस्तों में,मोहब्बत में,मोहब्बत को साबित करने के लिए जूठन खाना होता था, एक ही गिलास में पानी पीना साझा करना होता था।अब भी युवा करते हैं दोस्ती में।पर पता नहीं वह उस पल को महसूस करते हैं या नहीं।मुझे उम्मीद कम है क्योंकि मोबाइल के जमाने में जब हर कोई फोटोग्राफर है, तब हम हर पल को क्रिएट करने में पड़े रहते हैं बजाए बीत रहे लम्हे को जीने के, महसूसने के।


फिल्म ऐसे बहुत से चुटीले और व्यंग्यात्मक संवादों से भरे पड़े हैं जो एक पल हमें हंसाते हैं और सोचने को विवश भी करते हैं।जैसे नर्स के संदर्भ में इरफान का कहना कि आपके सिस्टम में कसाई का एप डाउनलोड हो गया है, उसे डिलीट कर लें।यह हमारे समय के चिकित्सकीय व्यवस्था का सच है, न केवल नर्स बल्कि धरती पर भगवान माने जाने वाले डाक्टर के संदर्भ में भी।
अंत में जब जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हम,एक अंधी दौड़ में शामिल हम कुछ पल ठहरते हैं, जिंदगी झट से दोस्ती कर लेती है हमारे जोश से।


दरअसल,फिल्म एक बेटे के, गलती से बदल गए पिता की मृत देह को दूसरे शहर में लेने जाने की नहीं यह अपने नाम के अनुरूप कारवाँ हैं, जो अपने दृश्यों, संवादों के जरिए भारतीय संस्कृति की जीजिविषा को, बंटवारे के दंश,भाषा की विसंगतियों को,एक पिता-पुत्र के कई संदर्भों को समेटे हुए, एक युवा और एक प्रौढता के करीब खड़े मन के द्वन्द्व को,परंपरा को छोड़ते चले जाने के ग्लानि और उसको पकड़े रहने के बोझ से जूझ रहे दोहरी जिंदगी को जी रहे एक भारतीय की ,नर्स,डाक्टर,प्रेम के अनेक रूपों को(देखें, जब बिछड़े प्रेमी के मिलने पर एक पल में प्रेमिका के माफ कर देने को),मित्रता के व्यापक संदर्भ(मित्र के पिता की मृतदेह को लेने के लिए कई रातों से सफर कर रहे और आने वाली हर मुसीबत का हंस कर सामना कर रहे दोस्त),पति-पत्नी के खूबसूरत से संबध को (देखें,जब कृति खरबंदा का पति बाहर आकर उसके न मिलने के डर को कहने पर पत्नी का यह कहना कि अब यह मरने पर ही संभव है।मृत्यु ही है जो पति-पत्नी के इस संबध को समाप्त कर सकती है और किसी में यह ताकत नहीं।यही भारतीय संस्कृति की अनमोल विरासत है, जिसे हम ले नहीं पा रहे हैं आधुनिकीकरण कि चकाचौंध में)को समेटे जिंदगी के कारवाँ की फिल्म है।
फिल्म के निर्देशक, निर्माता पूरी टीम और विशेषकर संवादलेखक को बहुत बहुत बधाई भारतीय सिनेमा को एक उत्कृष्ट फिल्म देने के लिए।
मृत व्यक्ति के लिए किये जा रहे प्रार्थना के समय बारामदे में वह इरफान नहीं बैठे हैं, यह जिंदगी बैठी है,हर पल हमपर नजरें गड़ाए।हम ही हैं कि उससे नजरें चुराएं हुए हैं।


अंत होता है उसी भारतीय नाटक, साहित्य,दर्शन के अंत की तरह, जहाँ जीवन कितना ही दुखांत क्यों न हो,अंत सुखांत ही होता है।जैसे ही यह कोरोना अवसर देगा,जरूर कुछ आत्मीय जन के साथ बैठकर खाना खाऊंगी।बहुत दिन हुए बहुत सारे व्यंजन बनाए, बहुत सारे प्रिय लोगों के साथ बैठकर ,धूम मचाते,खाना खाए हुए।।

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