यूकेलिप्टस के पेड़
एम.जे.के.कालेज,कला संकाय के ठीक सामने
जहां मैं बैठती हूं अक्सर सर्दियों मे धूप सेंकते हुये
और धूप सेंककर अपनी ऊर्जा खर्च करते हुये
वहीं ठीक सामने खड़े हैं यूकेलिप्टस के पेड़।
मेरे आने पर हर्षित से खड़े,
जाने पर कुछ उदासी ओढे़
किसी प्रेमगीत मे गीतकार ने लिखा है
“ये सब्ज़ पेडृ हैं या प्यार की दुआयें है”
इन पेड़ो को देखकर मुझे भी लगता है
ये सब्ज़ पेड़ हैं या मेरे बचपन की दुआयें!
जो बचपन में घर के द्वारे से होते हुये,
घर,शहर से दूर परदेश में
आ गये हैं मुझको दुआयें देते हुये,
कि आ गये हैं मुझको दिलासा देते हुये!
कि जैसे सुदूर देश से,बीते हुये बचपन से
आ गयें हैं हम तेरे पास
वैसे ही मिल जायेगी कहीं “मां’
चिन्ता करते हुये कि खाना खा लो,ठंडा हो रहा है’
वैसे ही मिल जायेंगे कहीं ‘पिता’
नकली गुस्सा दिखाते हुये कि ‘घर जल्दी आया करो’
मिल जायेगा रूठा हुआ दोस्त,खोया हुआ प्यार,
मिल जायेंगे बिछुड़े हुये जीवन के सब फिक्रमंद किरदार।
एम.जे.के.कालेज,कला संकाय
के ठीक सामने खड़े यूकेलिप्टस के पेड़
ये सब्ज़ पेड़ हैं या बचपन की दुआयें!!
( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥) एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम। तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका
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