कोरोना काल…
कोरोना, भाग —2
जबकि यह हरापन प्रकृति की विशेष विशेषता है,घर-गृहस्थी-नौकरी के चक्कर में फंसा आदमी कहाँ देख पाता है यह प्राकृतिक रंगों का शेड!अहा!प्रकृति के पास हर रंग के कई रंग है।यह समय मानो अदृश्य विषाणु से न केवल मानवजाति अपने बस्तियों को सैनेटाइज कर रहा हो बल्कि प्रकृति भी खुद को सैनेटाइज कर रही है।आखिर हमने उसे दिया भी क्या सिवाय कानफोड़ू ध्वनि के, विषैले गैसों के,धूल-धक्कड़ के।प्रकृति का कोई रूप बच तो न रह गया संक्रमित होने से!हमारे अंधाधुंध विकास करने की वृत्ति के विषाणु से,प्रकृति के ऊपर मानव को विजित दिखाने के अहंकार रूपी विषाणु से!हर नवजात पत्ता जैसे किलकारियां मार रहा है और इस बदले बयार का आनंद ले रहा है!चहक-चहक कर खुशी जता रहे हों जैसे मुझसे अपनी।विशाल तना गंभीरता ओढ़े भी कुछ सुकून की मुद्रा में था मानो जीवन में कोई तो क्षण आया;जब खुली हवा में सांस ले सका हमें श्वासदायिनी वायु देने वाला वृक्ष।सूरज की किरणें जिस भी पत्ते पर पड़ रही थी,वह चमक रहा था चांदी जैसा!अहा!मैं इस हरेपन को,पेड़ के हर पत्ते के इस उल्लास को,चहकने-प्रफुल्लित होने को मानो आंखों में, ज़ेहन में बसा लेना चाहती हूं।पता नहीं मायामहाठगिनी और मेरा व समष्टि का अहंकार फिर कभी यह अवसर दे कि न दे!!
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