इससे पहले कई बार लिखा है पत्र, पर आपको हिम्मत नहीं हुई कुछ लिखने की। जीवन भर की सभी असहमतियों के बाद भी एक अपराध बोध से हृदय भरा है आपके प्रति। अक़्सर यूँ होता है कि किसी से मिलने पर सामने वाला व्यक्ति माता-पिता दोनों के बारे में पूछता है, आज किसी ने पूछा तो केवल आपको! उस भले मानुष को स्मरण था पहली बार महाविद्यालय में योगदान देने जब मैं आई थी, साथ में भैया थे, उन्हें लगा था कि वे मेरे पिता हैं। मुझे प्रसन्नता हुई कि मुझे उस व्यक्ति का चेहरा तक ध्यान में नहीं! फिर भी उन्हें मैं याद थी।अजीब बात है कि मुझे किसी के चेहरे जल्दी याद नहीं रहते जिसका प्रतिफल यह मिलता है कि जिन कुछ लोगों के स्मरण होते हैं, वे मुझे भूल जाते हैं। अच्छा है य़ह, मैं समझती हूं कि बुरे कर्मों का मेरे हिसाब होता चल रहा है। कर्मों के संचीयमान खाते में कुछ जमा नहीं हो रहा है।किंतु उन्होंने जब ये पूछा कि ‘पिताजी कैसे हैं?, सच मानिये, मेरा मन नहीं हुआ जो वास्तविकता है, उसे बताने की!मैंने उनके इस प्रश्न को उपेक्षित कर दिया,मेरा मन हुआ कह दूँ कि आप ठीक हैं।जबकि ये भी नहीं पता कि आप कहाँ और किस हाल में हैं।नियति की यह कैसी कठोरतम परीक्षा है! जिसके परिणाम में असफल ही होना है।परंतु बारंबार, जबतब नियति मनुष्यों के मुख से यह प्रश्न पूछती ही रहती है।परंतु उनकी आत्मीयता थी सम्भवतः ये कि उन्होंने पुनः पूछा कि ‘ पिताजी कैसे हैं ‘,न जाने कैसे सूझा ये उत्तर! और मैंने कहा वे मेरे भैया थे जिनसे आप उस वक़्त मिले थे।और य़ह कहकर मैंने अपने आपको बचा लिया उस उत्तर को देने से, जिसे मैं देना ही नहीं चाहती थी। फिर भी आंखे भर आईं और मुझे खुद की आँखों को छुपाने की जगह नहीं मिल रही थी। एक बार दीदी ने कहा था कि ‘बड़ा सुकून मिलता है और ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि इस उम्र में भी मुझे माता -पिता के नाम के आगे late नहीं लिखना पड़ता, क्यूंकि जब किसी को ऐसा लिखते देखती हूँ तो यही प्रार्थना करती हूं कि ऐसा दिन कभी न आए’! अब दीदी से क्या कहूँ कि वह आपका भय मेरी नियति बन गई जबकि आपकी उम्र से मेरी उम्र का फासला लगभग 15 वर्ष है।क्या आपको पता है,ऐसे प्रश्नों से बचने के कारण ही मैं किसी से मिलना नहीं चाहती, मानो आपके भौतिक रूप से न होने की कड़वाहट को मैं आँखों में नहीं भरना चाहती।मेरी आंखें,जैसे पुष्कर मेघ कि जरा सा पूछे कोई आपको कि बरसने को तैयार!दो प्रश्न जो मुझमें दुःख और चिढ़ उत्पन्न करते हैं, एक तो परिवार में कौन-कौन है और दूसरा विवाह संबंधी! जी में आता है अपने कमरे के बाहर यह लिख दूँ, कृपया ये दो प्रश्न बाहर छोड़कर ही मेरे घर में प्रवेश कीजिए। यह आगंतुक का मन दुखाने के लिए नहीं बल्कि स्वयं को दुख से बचाने के लिए।किंतु परेशानी यह भी है कि मुझे अपने कमरे से निकल कर भीड़ में शामिल होना पड़ता है हर रोज,न चाहते हुए भी।
मुझे आश्चर्य होता है उन लोगों पर जो जीते जी इस तरह मुहँ मोड़ लेते हैं कि जीते जी किसी के होने न होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता! मन क्लांत हो जाता है जब खून के रिश्ते जीते जी रिश्ता समाप्त करने की बात करते हैं। मुझे पीड़ा के साथ आश्चर्य होता है कि क्या ऐसा कहने-करने वाले को यह नहीं पता कि मृत्यु एक दिन स्वयं सब समाप्त कर देगी। जब वह समाप्त करने आएगी एक जीवन के साथ, उससे जुड़े प्रत्येक रिश्ते को, तब वह पूछेगी नहीं कि किससे रिश्ता समाप्त करना है, किसका मुहँ अब नहीं देखना है। इस क्रूरता के साथ मृत्यु की यह निर्लज्जता कि वह कब आ जाए, हमे नहीं पता! फिर भी यदि कोई ऐसा कहता है तब मैं सोचती हूँ नफ़रतों की इससे बढ़कर क्या ही ऊंचाई होगी!
फिर भी आज का दिन इस सुकुनभाव से भरा रहा, जब उन भलेमानुष ने कहा-‘ यहाँ किसी प्रकार की कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं, हम यहीं के हैं लोकल, इसलिए किसी से डरने की आवश्यकता नहीं। इस शहर के नहीं होने की जिस बात से लोग डराते हैं, एक अजनबीपन और नजरों में हिकारत अपनाए रहते हैं कि मैं बाहर की हूं, उस बात का हवाला देकर जब कोई इस तरह से आश्वस्ति दे, मैं समझती हूं एक शहर अपने ऐसे ही लोगों से पतझड़ में भी बसंत खिलाए हुए होता है। ऐसे इस शहर और उस भलेमानुष के जीवन में सदैव बसंत अपने पूरे यौवन के साथ बनी रहे, यही मनोकामना है।
मैं आपके जीवन के अकेलेपन का, और वह भी जीवन के उत्तरार्द्ध के अकेलेपन का केवल अनुमान ही लगा सकती हूं।पिछले तीन दिनों से बिजली न होने के कारण रात में भी पूरे घर में अंधेरा करके रखना विवशता है किन्तु यह इतना भयावह है,जैसे अस्तित्व का समस्त अंधकार कमरे में चारो ओर पसरा हुआ हो। जबकि खिड़की से रोशनी झाँक कर कुछ दिलासा देने का प्रयास कर रही है तब भी एक अनजाने भय से डरी हुई हूँ।अंतर्मन ,यह सोच-सोच कर कि आपके जीवन में वह खिड़की भी नहीं थी, अपराध बोध से धरती में धंसा जा रहा है कि पाताल लोक भी ऐसे मन को स्थान नहीं देना चाहता और इसे नीचे की ओर ही धकेलता जा रहा है।बस,मुझे ही यह धरती नहीं धंसा लेती कभी किसी रोज़ कि पता तो चले आप कहाँ और कैसे हैं?
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