उस बरस दिसंबर में लगे ज़ख्म ने जनवरी को संज्ञा-शून्य कर दिया था,और लोगों ने कहा था,ठंड बहुत पडी अब कि जनवरी।
जाकर दर्द उभरा था फरवरी में,जबकि प्रेम का महीना है।
मार्च देह-मन पर फल आए दर्द के बौर से बौराया,व्यथित बीतता था,
अप्रैल कुछ संभला कि मई आ धमकी थी राज करने की नीति से,
उस बरस जून में ऐसी लू बही कि माँ का आँचल जाने किस लोक उड़ा कर ले गई,
जुलाई उसी सदमे में पीड़ा से तर-बतर बीत रहा था कि
अगस्त में मई की राजनीति ने मित्रता का रूप धर लिया और
सितंबर की निर्मम खूबसूरती ने कुछ पता न चलने दिया,
यूँ नीम-बेहोशी को अक्टूबर तोड़ने की कोशिश करता ही है कि
नवंबर में पिता रूपी सूरज दक्षिण में डूब जाता है,
बचे- खुचे खुशियो की आस को दिसंबर कौड़ी में जला ताप लेता है,कुछ इस तरह दिसंबर का ज़ख्म नासूर जाता है।
जीवन के प्रत्येक साल उस बीते एक साल की स्मृतियों की पुनरावृत्ति है ।
कुछ इस तरह जीवन कालचक्र की अपनी गति से मुझमे बहती है।।
Comments