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तुम्हारे बिना…


तुम्हारे बिना समय,मानो हर घटी नारकीय आग में झुलसाती है,
गलती जाती है स्मृति और नए-नए रूप धर डंसती है।
तुम्हारे व्यंग्य ढल गए हैं नसों में,और टपकता है हरदम जीवन जैसे देह में फोड़ा।
जब तब ज्वार-भाटे सी उठती है तुम्हारे प्रेम में बोले गए शब्द और छल से पगे उनके अर्थ,
तब-तब मानो आत्मा की पीठ पर समय मारता है कोड़ा।
आत्मा की पीठ,जैसे पिघल-पिघल प्रेम का शीशा पुनः पुनः निर्मित कर देते हैं इसको,
घाव नए सहने को।
विकल-विकल हो व्याकुल से चक्षु जाने कहाँ-कहाँ से स्वप्न बुन लाते हैं,
जिनमें तुम लौट लौट आते हो,
किन्तु चटक-चटक से जाते हैं सब स्वप्न सुनहरे,
तभी समय कर लेता है मेरे उत्साही मन का शिकार विरह की आग में झोंकने को,
और तुम पुनः पुनः लौट जाते हो।
सब कुछ क्षणिक है,परिवर्तनशील है,
कुछ स्थिर है तो बस विरह की वहनि!
मानो यह जग हो विरह का हुताशन,
जिसे ईश्वर जलाये बैठा है अनादि काल से,
मानो हमे तपाकर वह ठंडा करता है अपने ह्रदय की दहन!!
क्या ईश्वर भी उलझ गया था कभी किसी के कपट-प्रबंध में?
क्या समय लगा रहा है उसके भी पीठ पर कोड़ा?

* घटी- समय की सबसे छोटी गणना को घटी कहते हैं।

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