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Showing posts from June, 2021

मैं सुकरात बनना चाहती हूं...

  मैं सुक़रात बनना चाहती हूं!सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहती हूं। हो जाना चाहती हूं प्लेटो और देखना चाहती हूं दार्शनिक को बनते राजा। बनना चाहती हूं अरस्तू कि ज्ञान का कोई पक्ष अछूता न रह जाए। मैं बनना चाहती हूं डेकार्ट कि स्व को,आत्मा को खोजना है बिना ईश्वर के और ईश्वर को सिद्ध करना है प्रज्ञा से। और फिर स्पिनोजा कि तरह सबकुछ ईश्वरमय घोषित कर सकूं। चाहती तो यहीं हूं कि मरते वक्त कह सकूं लाइबनित्ज की तरह कि 'ये दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे अच्छी है'। यद्यपि मैं अभी शोपेनहावर से सहमत हूं कि 'ये दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे बुरी है'।।           मैं चाहती हूं लाॅक बनना और सबकुछ अपने अनुभव से जानना चाहती हूं, चाहती हूं बर्कले कि तरह पत्थर को प्रत्ययरूप सिद्ध करना कि आदमी तो प्रस्तर हो चुका है।                              किंतु मैं अभी ह्यूम से सहमत हूं कि मुझे हर किसी पर संदेह है,स्व पर भी। मैं चाहती हूं कि काश! कांट की तरह मोह निद्रा से जग जाऊँ और अपने साथ दुनिया को दुनियाभर के अंधविश्वासों से मुक्त कर प

अमलतास को दूं अमरता का आशीष...

कोई सुगढ़,सुंदर चित्र गढ रही थी कि काला रंग बिखर गया और बिखरता ही जा रहा है,फैलता ही जा रहा है ब्रह्मांड की तरह! अब सूझता नहीं रंग कौन सा भरूं!दिखता भी नहीं।मेरे आंखो पर लगे हैं जो देशकाल के चश्में,व्याकुलता में मन में आता है कि इसे चकनाचूर कर सब शीशों को पिघला कर बना दूं पानी,जो सबकी आंखों में सदैव चमकता रहे! मेरे इस चित्र में था मेरा अपना एक सौरमंडल, अभी सब ने अपनी-अपनी धुरी पर चलना सीखा ही था कि मेरे सूरज को निगल गया कोई! मुझे जिस पृथ्वी ने धारण किया था,प्राणहीन हो गई अपने सूरज के बिना,और एक दिन पूरी पृथ्वी गल गई कागज की तरह! हर किसी के हिस्से है एक सूरज और सूरज को उसकी धरती,मैं अपने सूरज की खोज में भटक कर जागे से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति का चक्कर काटती हूं,लेकिन न सूरज मिलता है,न तुरीय का कोई छोर हाथ लगता है! रोष और क्षुब्धता में जी में आता है सब गुलमोहर के लालिमा को निचोड़ दूँ और सारे अमलतास को दूं अमरता का आशीष! इस विकलता से भरे दौड़ और घबराहट में 'माया' के हाथों से भी छूट गया है उसका सारथी।ह्रदय में एक उफान है कि उस अग्नि को जिसने शक्ति को श्रीहीन किया,उस

अंतिम विदा…

अंतिम विदा… अंतिम विदा… _____________ यम के भी कांपे होंगे हाथ, जब उसने देखा होगा, पांच सालों से बीमार और दो दिन से अचेत पड़े,बूढे बीमार हाथों से , अपने 32 साला बच्चे के गालो को छूते हुए, पीले पड़ते होंठों और बेजान, बुझती आंखों में जीवन भर का प्यार, चिंता समेट, अंतिम बार अपने बच्चे को पुचकारते, उसकी ओर अंतिम चुम्बन उछालते हुए। यह अंतिम विदा था एक बीमार, थके जीवन का, एक युवा जीवन से विदा लेते हुए। फिर वैसी चिंता भरी कातर निगाहों से, किसी ने उस युवा जीवन को देखा नहीं। फिर वैसी तड़प से  किसी ने उसे चूमा नहीं। स्पर्शों और चुम्बनों से रहित उस दुनिया में, अब वह युवा बूढ़ा हो चला है, इतना बूढ़ा कि अपने ही सपनों को जला, उसपर जीवन की रोटी सेंक रहा है। वह जिम्मेदार थी,उसने उसी रूप में अपने बच्चों को प्यार किया, वह लापरवाह था,वह हमेशा उन रूपों को गंवाता रहा, उसका जीवन अंत गंवा दिए गए कथाओं का दर्शन है, जिसे कोई नहीं पढ़ता। वह उन गवां दिए गए,अनसुने कथाओं की आंच से जीवन की भट्टी को जला रहा है। क्योंकि, “सिर्फ मरने से ही नहीं, जीने से भी खत्म होता है जीवन”।।* (*उपरोक्त पंक्ति गीत चतुर्वेदी की कविता “खुशिय

एकांत...

 यद्यपि बेवजह की भीड़ में रहना कभी भाया नहीं।या तो आत्मीयजन हों पास या अकेले रहना ही भाता रहा मन को।किंतु तब भी यह निश्चित कर पाना कठिन है कि यह एकांत स्वेच्छा से चयनित है या अवसादजनित!यह अकेलेपन के मार्ग पर चलने का निर्णय स्व की चाहना है या परिस्थितिजन्य? कभी-कभी यह एकांत इतना भाया है कि इसकी सहारे मैं स्वयं को खोजने के प्रयास में लग जाती हूँ।तब इस स्व की खोज में दीपक बनते हैं कभी पुस्तकें,कभी अतीत में की गई यात्राओं की सुखद स्मृतियां,कभी खेलों के प्रति दीवानगी से उपजी बचपन की कुछ छोटी-छोटीघटनाएं,कभी अहं से ग्रस्त अपनी उपलब्धियां,कभी इष्ट-मित्रों की सह्रदयता के किस्से तो जीवन के कठिनतम क्षणों में किसी अनजान द्वारा की गई सहायता के कुछ किस्से। स्मरण हो आता है कि मैं जिस शहर में पली-बढ़ी,उसके नाम में ही है रस--बनारस।मानो जैसे शहर न हो,जीवनरस हो।यद्यपि लोग बहुधा यहा मुक्ति की कामना लिए आते हैं।किंतु मुक्ति उसे ही उपलब्ध है जिसे जीवनरस मिल चुका हो।कभी यह स्मृतियां मुझे ले जाती हैं सुख-संतोष-जीवंतता के पंखो पर बैठा बनारस की गलियों से गुजरते हुए महामना की बगिया में।जहां प्रकृत

हिंद स्वराज

  आज जब एकदिन के लिए ट्रेन परिचालन बंद करने का समाचार सुना तो सबसे पहले जो याद आया, वह था गांधी द्वारा लिखित पुस्तक”हिंद स्वराज”।22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू के दिन क्या महज़ 80 पृष्ठ की यह पुस्तक हम पढ़ेंगे!और उससे भी महत्वपूर्ण क्या हम अपनी अंधी और व्यर्थ की महत्वाकांक्षा पर, मशीनों पर अपनी निर्भरता पर,सुविधाभोगी वस्तुतः विलासितापूर्ण जीवनचर्या पर नियंत्रण करेंगे!जिह्वा के स्वाद लोलुपता की वृत्ति पर नियंत्रण कर सकते हैं!केवल विरोध के लिए कुछ भी खाने की वृत्ति पर कुछ भी खाने से बच सकते हैं!स्थानीय भोजन संस्कृति द्वारा आमिष भोजन के समर्थन को बंद कर सकते हैं!यह भोजन पर नियंत्रण या निरामिष भोजन की वृत्ति को अपनाने की बात इसलिए कदापि नहीं है कि सनातन धर्म में शाकाहार की बात है, हिंदूं धर्म में शाकाहार की प्रशंसा की गई है!जब सनातन धर्म का समर्थन करना होगा, तब वो भी स्पष्ट रूप से करेंगे।क्योंकि सनातन धर्म हो या श्रमण संस्कृति भारत की,अपने अपने विधान के साथ हर जगह आमिष भोजन करने का उल्लेख है, जिसके पीछे कारण यह भौगोलिक रूप से स्थान विशेष की परिस्थितियों पर भोजन के नियम तय थें या होते थे परंतु

“क्योंकि स्पर्श अपने आप में एक पूरी भाषा होती है”

मार्च,अप्रैल के माह में अचानक गर्म थपेड़ों के  बीच में ,कभी सुबह कभी शाम में चलने वाली हल्की सी ठंडी हवा को महसूस किया है!उसके स्पर्श को!कुछ कहती है जैसे।क्योंकि स्पर्श मात्र स्पर्श नहीं होता;वह अपने आप में एक पूरी भाषा होती है।उसका छूना आमदिनों के छूने जैसा नहीं होता।तन को छूती,मन तक पहुंचती वह हवा सब अपनों के स्पर्शों से भरा एक पूरा जख़ीरा लिए उतरता है आत्मा तक।भुलाए गये हर किस्सों से सब परतें हट जाती हैं मन से,याद आ जाता है देह को देह में छुपी किसी और देह की याद्दाश्त!सब कड़वे अनुभवों से छांटकर,बचाकर ले आती है ये हवा बस कुछ तसल्ली सी देती स्पर्श, कुछ सुकून से देते स्पर्श,कुछ ढांढस बंधाते स्पर्श।ये पुरसुकून सी हवा दरअसल ले आई होती है अपनों के ये सब स्पर्श और ये भी संदेश कि कितना भी कठिन हो”ये समय है, बीत जाएगा”और उनकी ओर से भी जिन्होंने विदा में दिये थे कुछ शब्द इस माह में चलने वाली लू के जैसे,जो झुलसाते से रहते हैं देह को,मन को वर्ष भर!!शायद इन मार्च,अप्रैलों में चुपके से चलने वाली ये शीतल हवा रूठे हुए उस मीत की तरफ से चलकर आए वो शब्द हैं जो वे बोल न पाएं आखिरी बार विदा होते वक्त मन मे

अविस्मरणीय लाकडाउन

  जीवन को जिये जाने की अनेक प्रकियाएं हैं/हो सकती हैं।एक यह कि संसार में रहकर हम इस संसार से जुड़े रहें,जैसा कि प्रायः यही सर्वमान्य तरीका है।पर इस प्रक्रिया में हम बहुधा दुख,अवसाद और अकेलापन ही पाते हैं क्योंकि हम जुड़े होते हैं वस्तुतः अपनी उम्मीदों, आकांक्षाओं, और खुद को श्रेष्ठतर सिद्ध करने की अंधी दौड़ से। एक यह मार्ग हो सकता है कि हम संसार में रहें तो,पर जुड़े नहीं या सिर्फ अपने आत्म से जुड़े…हद दर्जे के स्वार्थी बनकर,आत्मकेंद्रित होकर और वस्तुओं के साथ इंसान को भी मात्र सीढ़ी बनाकर।ये रास्ता खुद को दुख तो नहीं देगा पर शुकुन शायद यहां भी न मिले।और ये एक आत्मघाती मार्ग बन सकता है तब जब अपनी आंकाक्षा पूरी न हो और तसल्ली के दो शब्द कहने वाला कोई नहीं हो।और यदि किसी का अन्तर्मन तनिक भी जागा है तो संभवतः ऐसा नहीं कर पाये।और इस तरह का जीवन जीना मानवीय अस्तित्व का सबसे कुरूप चेहरा बनाने जैसा होगा।।इससे अच्छा है प्रेम में पागल हो जाना, किसी करीबी से पीठ पर छूरा घोंपवा लेना,या कैरियर में असफल होकर शायद अपने परिवेश से कट जाना।।यह अधिक से अधिक एक दारूण चित्र बनायेगा एक और प्रक्रिया शायद यह हो सकत

मशीन में प्रेत...

  जब हम प्यार या दोस्ती में सबकुछ न्योछावर कर देते हैं और फिर भी अकेले रह जाते हैं तो ऐसे हालात में दो ही लोग अकेले रह सकते हैं या तो देवता या प्रेत। मैं देवता तो कत्तई नहीं हूँ! जो होती तो या तो मनुष्य के प्रेम में नहीं पड़ती या फिर वियोग का दुख नहीं सहती।फिर,तो क्या मैं प्रेत हूँ?खुद को टटोला तो पाया कि आत्मा तो अनश्वर है,और यूं भी घायल,अभिशप्त आत्मा की मुक्ति कहाँ।उसपर तो मनो बोझ है वैसे भी;घायल मन और स्मृतियों के ढेर बटोरे देह के साथ,वह भला कहाँ चढ़ पायेगा मुक्ति की सीढियां।आत्मा भटकाव में तो है।फिर यह जो दिखाई देता है देह,जो मन को लिए लिए चलता-फिरता औरों की तरह जीता है,वह क्या है?प्रेत तो यूं सबको दिखाई नहीं देता?कितनी अजीब बात है न!प्रेत का भटकना किसी को नहीं दिखता;मेरा भटकना भी भला कौन देख पा रहा है।तो मैं सच में प्रेत हूँ,भटकती,अकेले?अजीब बात है कि दर्द भी है,मैं पीड़ा में चिल्ला भी रही हूं पर कोई सुनता ही नहीं।दर्द इतना कि बताऊँ दीदी तुम्हें,जब मां के अंतिम संस्कार में तुम्हारे पैर पर गिरी थी चारपाई और कुछ देर की शून्यता के बाद तुम्हारे मुंह से बस यही निकल रहा था कि‘अरे जान निकल

आद्य जगतगुरु शंकराचार्य...

मेरे गुरु के भांति जिनका नाममात्र ही केवल मेरे  चित् को निर्मल कर देता है और आनंद से भर देता है,उस आद्य शंकराचार्य को जन्मदिन पर स्मरण करते हुए स्वयं को बधाई देती हूं और हर उस व्यक्ति को बधाई देती हूं जिसे यह लगता हो कि जीवन में धर्म से निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता। भारतीय दार्शनिक के सर्वोच्च शिखर पुरूष,सनातन धर्मध्वजा धारक और भारतीय संस्कृति के अप्रतिम-स्वरूप के प्रकट व्यक्तित्व,वैदिक दर्शन के अति महत्वपूर्ण दार्शनिक सम्प्रदाय अदैत वेदांत को सुसंगत एवं सुव्यवस्थित रूप से स्थापित करने वाले महान दार्शनिक,आदि गुरू आचार्य शंकर का अवतरण दिवस वैसाख शुक्ल पंचमी तिथि को पड़ता है। वैदिक ज्ञान-विज्ञान को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले आचार्य की आयु जितनी अल्प रही,उनका व्यक्तित्व और कृतित्व उतना ही व्यापक और विराट।इतना विराट की उनके बाद हुए दार्शनिक चिंतन में उनका दर्शन और चिंतन खण्डन या मण्डन किसी न किसी रूप मे अवश्यमेव विद्यमान रहा।वस्तुतः यदि भारतीय दर्शन को दो भागों में देखें — एक शंकर के पूर्व का भारतीय दर्शन और दूसरा शंकर के बाद का भारतीय दर्शन,तो अतिशयोक्ति नहीं हो

‘मन ऊब गया है’, ‘पर तुम्हारे फिल्मों के इन्द्रधनुष देखते देखते तो नहीं मरा जा सकता है’।

  बीती रात जागरण होने से जब रामायण और महाभारत के बीच का समय सोने के लिए सबसे अनुकूल लगा,नींद भी उफान पर था,अलार्म नहीं लगाया था,फोन एरोप्लेन मोड पर और मैं नींद की आगोश में।पर जैविक घड़ी ने ठीक 12:10 पर जब जगाया तो महामारी के इस संकट काल में जब कि महत्वपूर्ण कुछ जिम्मेदारी भी कांधे पर हो,फोन एक घंटे से अधिक कवरेज क्षेत्र से बाहर है, ये सोच जल्दी से फोन नार्मल किया, व्हाट्सएप पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी के मद्देनजर वहां झांका ,कुछ विशेष न था पर टीवी पर ब्रेक की वजह से लोगों के स्टेटस देखने लगी पर ये क्या ,स्टेटस की भीड़ जैसे और हर भीड़ में लगा इरफान हैं, धड़कते दिल और बुरी आशंका से ग्रस्त हो पहला स्टेटस देखा और फिर जो पढ़ा वह इतना दारूण था,दिल तोड़ने वाला था कि कुछ और फिर देखा ,सुना न गया। याद आ गया दो साल पहले का वह दिन जब मिस्टर बैनर्जी ने प्रिय अभिनेता के दुर्लभ और हमारे समय के सबसे जटिल रोग से शिकार होने की खबर सुनाई थी। स्वभावगत् अन्तर्मुखीता न केवल सबके सामने दुख को व्यक्त करने से रोकता है, कोई दुख ,कोई पीड़ा को अकेले में भी व्यक्त करने से बहुधा खुद को रोक रखती हूं ,आंसू आंखों में आते हैं त

Three years of my Job________________________ क्या बनूंगा मैं एकदिन सितारा? या रहूँगा मैं बेचारा? 17 मई’2017—17 मई ‘2020

  Three years of my Job… (दिल में आ रहा है लिख दूं,Three years of my mistakes.पर तब यह आकंड़ा तो 34 years का होना चाहिए कायदे से!इसलिए पहली टाइटल ही ठीक है। “मैने क्या पाया,क्या मैने गंवाया, हां,मैने की गलतियां”।। जब 20 वर्ष की थी तब जल्दी से जल्दी 40 साल की हो जाना चाहती थी।सब पूछते भला बुढापे की ओर जाने की इतनी जल्दी क्यों?तब मेरा जवाब होता कि जब मैं 40 की होऊंगी तब मुझे अच्छी तरह पता होगा कि मेरे अगले 40 वर्ष कैसे बीतेंगे।शुक्र है 30 पार के बाद ही पता चल गया कि ये जीवन अपनी स्वतंत्रता और शांति से बनाए घर में बीतेगा। दुनिया में कई शहर हैं, जिनके नाम भी मुझे नहीं मालूम।अनजाने शहरों को जानूँ भी क्योंकर जब अपने शहर से इतनी मोहब्बत है कि मानो मां के पैरों के बाद अगर स्वर्ग कहीं है तो वो मेरे शहर की धूल में है।पर मन का हमेशा कहाँ होता है।सो एक शहर से वास्ता पड़ा,नौकरी की तलाश जहां खत्म हुई,नाम है बेतिया।।नेपाल की दृष्टि से देखें तो उत्तर दिशा से भारत का प्रवेश द्वार,बिहार की ओर से और बिहार की नज़र से देखें तो पश्चिम का अंदरूनी शहर।एकदम अंदर!यही कहकर डरे थे सब अपने कि कैसा होगा शहर!जाने कैसे

तुमने जो फूलदान लौटाया था…

  तुमने जो फूलदान लौटाया था, मैने उसमें इक पौधा लगा दिया। ताकि दुनिया में बची रहे थोड़ी सी मोहब्बत, आंखों का पानी, और देह का नमक। अपने आंसू जो तेरी आंखों में रख देती थी, उस पानी को ले, जो उदासियाँ तुम्हारे सीने में भर देती थी, उसको मिट्टी कर, तुम्हारे संग के सब बीते लम्हों की खाद बनाई, कुछ इस तरह मैने दुनिया में मोहब्बत बचाई। और हां,मैं कांट-छांट देती हूं सब खरपतवार, जैसे अपनी सब गलतियां तुम्हारे सामने कर लेती थी स्वीकार, मैं गिरा देती हूं सब सूखे पत्ते, ठीक वैसे जैसे झड़ी तुम्हारे जीवन से! पर मैं करती हूं इंतजार बसंत का, तब भी मैंने प्रतीक्षा की, और मैं अनंत काल तक रहूंगी प्रतीक्षा में, ताकि दुनिया में बची रहे थोड़ी सी वफा।। तुमने जो फूलदान लौटाया…

आत्मा के सब स्पर्श…

  जब मां चूमती है माथे को, वह चुंबन दरअसल आत्मा के माथे पर होता है। जब प्यार भरता है बांहों में, देह नहीं,आत्मा सिमटती है बाहों में। जब दोस्त देता है शाबाशी, वह आत्मा के पीठ को थपथपाता है। मैंने अपनी आत्मा के सब स्पर्शों को खो दिया है।।

मेरे प्रियवर!देखो न जाने कब लौटना होगा!

  बनारस से दूर जाना बिल्कुल वैसे ही होता है जैसे सर से मां का आंचल हट जाना,जैसे मां का पल्लू पकड़कर चलने वाले का अचानक तल्ख धूप और पथरीली राहों पर चलने को मजबूर होना; जैसे जीवन का सारा भार जो अबतक पिता के सबल कंधों पर था,अचानक उसका खुद के कंधों पर आ जाना। पर यह भोले की नगरी है, यहां कोई अनाथ नहीं होता,हर तरफ उसकी मूरत है, यूं ही नहीं कहा गया है कि यहाँ का कण-कण शंकर है; जब कभी देखना हो शिव और गंगा को साथ,जाए कोई केदारनाथ, मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े हो सामने दूर तक फैली गंगा को देखना, एक दूसरी दुनिया में जाने का द्वार हो जैसे!बैठकर कोई शिवलिंग के पास देख सकता है जान्हवी को,कि जान सकता है कि दूर होकर भी कैसे पास रह सकते हैं।जबकि यह बनारस का सबसे ऊंचा घाट है, गंगा थोड़ी दूर है। यहां हर दिन त्यौहार है,”सात वार,नौ त्यौहार”को सच में सच करता है शहर; यहां कोई कभी भूखा नहीं सोता, अन्नपूर्णा का अक्षय भंडार है; वहीं से दक्षिण की ओर बढ़ने पर भैरो हैं, शहर के कोतवाल, यह सच है!जिसे देखना हो,जाकर देखे भैरो के मंदिर के बगल के कोतवाली थाना में आजतक कोई कोतवाल कोतवाल की कुर्सी पर नहीं बैठा। बनारस से दूर

मैं मणिकर्णिका की राख प्रिये…

  तुम अटल,अविनाशी शिव का काशी, मैं बेतिया के सड़कों की धूल प्रिये। तुम “काल भैरव”काशी का कोतवाल, मैं पवन,गोंदियाके चक्कर काटती यात्री एक बेहाल प्रिये। तुम क्रिस्टल बाऊल,मिंग गार्डन का लजीज शाम, मै तेरे इंतजार मे खाली पेट सोई रात प्रिये। तुम महामना की बगिया का शान, मैं विफल शिक्षा नीतियों में फसीं शिक्षक बेजान प्रिये। तुम मां गंगा का सुमधुर कलकल करता संगीत, मैं बिसरा दी गई भूले-बिसरे गीत प्रिये। तुम जीवन काशी गलियों की, मैं मणिकर्णिका की राख प्रिये……….