जब हम प्यार या दोस्ती में सबकुछ न्योछावर कर देते हैं और फिर भी अकेले रह जाते हैं तो ऐसे हालात में दो ही लोग अकेले रह सकते हैं या तो देवता या प्रेत।
मैं देवता तो कत्तई नहीं हूँ! जो होती तो या तो मनुष्य के प्रेम में नहीं पड़ती या फिर वियोग का दुख नहीं सहती।फिर,तो क्या मैं प्रेत हूँ?खुद को टटोला तो पाया कि आत्मा तो अनश्वर है,और यूं भी घायल,अभिशप्त आत्मा की मुक्ति कहाँ।उसपर तो मनो बोझ है वैसे भी;घायल मन और स्मृतियों के ढेर बटोरे देह के साथ,वह भला कहाँ चढ़ पायेगा मुक्ति की सीढियां।आत्मा भटकाव में तो है।फिर यह जो दिखाई देता है देह,जो मन को लिए लिए चलता-फिरता औरों की तरह जीता है,वह क्या है?प्रेत तो यूं सबको दिखाई नहीं देता?कितनी अजीब बात है न!प्रेत का भटकना किसी को नहीं दिखता;मेरा भटकना भी भला कौन देख पा रहा है।तो मैं सच में प्रेत हूँ,भटकती,अकेले?अजीब बात है कि दर्द भी है,मैं पीड़ा में चिल्ला भी रही हूं पर कोई सुनता ही नहीं।दर्द इतना कि बताऊँ दीदी तुम्हें,जब मां के अंतिम संस्कार में तुम्हारे पैर पर गिरी थी चारपाई और कुछ देर की शून्यता के बाद तुम्हारे मुंह से बस यही निकल रहा था कि‘अरे जान निकल गया,अब नहीं बचेंगे’।मैं कैसे कहूँ!किसे बताऊँ कि बची तो मैं भी नहीं!बस जान ही नहीं निकली अब तक!कोई है भी तो नहीं तुम्हारी तरह मेरे दर्द को समझ जो लगाये हल्दी,दे दवाई;और हिदायत भी कि क्यों इतना मंजन करना कि दर्द ही न बर्दाश्त हो,और कैसे घूर के देखा था तुमने!मानो कह रही हो ‘इस समय भी उपदेश’!यही स्थिति प्रेम में पड़े लोगों की होती है,रूकने से भला कहाँ रूकने वाली ये बला!और एक बार चोट खाने के बाद उलाहना के बोल नहीं, सांत्वना के शब्द ही आत्मा सुनना चाहती है कि घड़ी भर को तो आराम हो।तुम्हारा दर्द तो थम गया;मैं अब भी दर्द में हूँ पर कोई सुनता नहीं,सुन पाता नहीं।काश!तुम्ही सुन पाती तो समझ पाती कितना दुख है; और बता पाती सबको कि मैं प्रेत हूँ सच में।एक लम्बे समय तक कहाँ कोई सह पाता होगा ऐसा दर्द;तुम भलीभांति समझ सकती हो इसे।जब क्षणभर को देह का दर्द नहीं संभल रहा था तो मन का,आत्मा का दुख किस विध संभले!मैं तो अकेले भी हूँ अब तलक अपने दर्द के साथ।
मैं सच में प्रेत हूँ!
इससे पहले कि कोई खंडन करे इस बात का,हंसे मेरी बात पर;मैं बता दूं पश्चिम के महान दार्शनिक राइल ने कहा भी है,एक ऐसा सिद्धांत ही दिया है”मशीन में प्रेत”।तो मैं दिखाई दे रही हूं,यह जानकर कोई मेरे प्रेतत्व का निषेध न करे;मैं तो देह रूपी मशीन में भटकती प्रेत हूँ।अब कोई उत्साही डेकार्ट के ओर से मुझे गलत सिद्ध करना चाहे तो देखिए Father of western philosophy कह तो रहा है कि जो सोचता है वही है;एक फीकी सी हंसी हंसता है मन,यह सोचकर।क्योंकि मेरी सोच;मेरी सोच अब रह कहाँ गई है;वह तो उस प्रेत में तब्दील करने वाले के आगे बढ़ ही नहीं पाती;मैं अब तलक भटक रही हूं उसी की सोच में।और जो कुछ और सोच ही नहीं पाए,जिसकी बुद्धि जड़वत हो गई है,वह वह आत्मा तो नहीं जो जीवित हो!
मैं सच में प्रेत हूँ!
आह!मैं चाह रही हूं कि यह लिखना खत्म करने से पहले कोई तो हो जो सिद्ध कर दे कि मैं प्रेत नहीं हूँ।सोचा कलम रखने से पहले अपने प्रिय लेखक की पुस्तकों के हर्फों से गुजरूं;शायद कुछ राहत मिल जाए और ये भी कि मैं प्रेत नहीं हूँ।पर हाय रे किस्मत!प्रिय लेखक,आत्मीय सार्त्र कह रहे हैं कि जो होता है,वही सोचता है।अब भला मैं क्या कहूँ;मैने जो उससे अलग खुद को समझा नहीं एक बार उसका होने के बाद,और उसने मुझे अलग कर दिया यूं,मानो मैं कभी थी ही नहीं;तो मैं भला कहाँ हूँ!रूके,कोई अगर फिर भी यह सिद्ध करना चाह रहा हो कि मैं हूँ;तो मैं बताऊँ एक बार फिर अपने दर्द को समेटे कि आखिरी संदेश में उसने यही कहा था कि“तुम्हारा होना,मेरे लिए वहीं तक था”;संभवतः दिसम्बर के किसी सर्द दिन में मेरा होना भी सर्द पड़ गया था,देह के साथ मन,और मन के साथ आत्मा सब ठंडे पड़ गए थे,शायद यह होना मेरा वहीं तक था!ओह!मुझे प्यार करने वाली बहन,मेरा प्रिय लेखक कोई बचा नहीं पाया मुझे प्रेत बनने से!
मैं शायद सच में प्रेत हूँ।।
सोच रही हूं इस नन्हे अदृश्य जीव को धन्यवाद तो दे दूं कलम रखने से पहले कि प्रेत ही सही,मैने जाना तो सही खुद को।मैं जो बाहर-बाहर भटक रही थी,मुझे कैद किया मेरे दो कमरे में और सारा भटकाव सिमट आया इस दो कमरे में।मैं जो छुपा रही थी अपने प्रेतत्व को।मैं जो छुप रही थी अपने प्रेतत्व के पीछे।अब सबकुछ समक्ष आ गया है,सारे भेद खुल गए हैं कि कोई मुझे सुनता क्यों नहीं, कोई मुझे समझता क्यों नहीं;प्रेत को भी भला कोई सुनता समझता है!!
रंज़ इस बात का रहेगा कि तुम्हारे दोस्ती,प्यार में बन न पाई देवता;बनी भी तो क्या;प्रेत!जानती हूँ जो तुम यह भेद जानोगे,तो यही कहोगे कि“जिसके कर्मों की माफी नहीं होती”,वह दर्द लिए भटकता हुआ बनता है प्रेत ही।यही मेरी गति और स्थिति है कि मैं सबकुछ न्योछावर करने के बाद भी बनी तो क्या,पाई भी कोई योनि तो क्या!प्रेत योनि।।
पर बधाई तुम्हें मेरी दोस्त!कि कोई जानता नहीं कि मैं कौन हूँ।।
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