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आद्य जगतगुरु शंकराचार्य...



मेरे गुरु के भांति जिनका नाममात्र ही केवल मेरे  चित् को निर्मल कर देता है और आनंद से भर देता है,उस आद्य शंकराचार्य को जन्मदिन पर स्मरण करते हुए स्वयं को बधाई देती हूं और हर उस व्यक्ति को बधाई देती हूं जिसे यह लगता हो कि जीवन में धर्म से निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता।
भारतीय दार्शनिक के सर्वोच्च शिखर पुरूष,सनातन धर्मध्वजा धारक और भारतीय संस्कृति के अप्रतिम-स्वरूप के प्रकट व्यक्तित्व,वैदिक दर्शन के अति महत्वपूर्ण दार्शनिक सम्प्रदाय अदैत वेदांत को सुसंगत एवं सुव्यवस्थित रूप से स्थापित करने वाले महान दार्शनिक,आदि गुरू आचार्य शंकर का अवतरण दिवस वैसाख शुक्ल पंचमी तिथि को पड़ता है।
वैदिक ज्ञान-विज्ञान को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले आचार्य की आयु जितनी अल्प रही,उनका व्यक्तित्व और कृतित्व उतना ही व्यापक और विराट।इतना विराट की उनके बाद हुए दार्शनिक चिंतन में उनका दर्शन और चिंतन खण्डन या मण्डन किसी न किसी रूप मे अवश्यमेव विद्यमान रहा।वस्तुतः यदि भारतीय दर्शन को दो भागों में देखें — एक शंकर के पूर्व का भारतीय दर्शन और दूसरा शंकर के बाद का भारतीय दर्शन,तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।आचार्य ने मानवीय चेतना को इस प्रकार परिष्कृत किया और जगत को मिथ्या कहने के बाद भी उसके सम्पूर्ण पक्षों पर इस तरह विचार किया कि उसकी व्यापकता आप प्राचीन ग्रीक दर्शन और आधुनिक पाश्चात्य तथा समकालीन दर्शन तक देख सकते हैं।विभिन्न भाष्यों, ग्रन्थों और स्तोत्र ग्रन्थों की रचनाकर,शास्त्रार्थ द्वारा भारत के विभिन्न दर्शन के विचारों की विसंगतियों को प्रकटकर, न केवल दर्शन अपितु चतुष्पीठों की स्थापना कर अपने अथक परिश्रम से धर्म और अध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया और सनातन धर्म, दर्शन तथा संस्कृति को अक्षुण्ण कवच प्रदान किया।।
जीवन पर्यन्त ज्ञान की भक्ति और कर्म पर श्रेष्ठता सिद्ध करने वाले आचार्य जब सौन्दर्य लहरी और शिव स्तोत्र(अन्य अनेकों स्तोत्रों की रचना विभिन्न देवी-देवताओं पर भी है)  जैसी भक्तिपूर्ण रचना करते हैं,तब बुद्धि यह देखकर भौचक्क हो जाती है कि मानवीय प्रतिभा का यह कौन सा आयाम है जहां व्यक्ति के जीवन का ज्ञान, कर्म और भक्ति कोई भी पक्ष असंतुष्ट और अपूर्ण नहीं रह जाता।।
भारतीय दर्शन की जो यात्रा भौतिकता से शुरू होती है और चेतना को भी जड़का परिणाम बताती है,तब दर्शन की यह जड़वादी व्याख्या अद्वैतरूपी  चेतना में विस्तार ही पाती है।(ध्यातव्य हो कि भौतिक दर्शन द्वारा आत्मा की की गई विभिन्न व्याख्या अद्वैत चिंतन में छूटता नहीं है।) जैन दर्शन जो अहिंसा के अपने सिद्धांत द्वारा श्रमण संस्कृति को उच्चता की ओर ले जाता है,जब दार्शनिक तत्वों की व्याख्या करता है तब अपने आप को उस द्वैत मे फंसा पाता है जिसका समाधान उसे या तो अद्वैत की ओर ले जाता है अथवा अपने ही मत को असंतोष जनक व्याख्या करता है।बौद्ध दर्शन के संदर्भ में विज्ञानवादियों की  सतत परिवर्तनशील चेतना द्वारा समस्त मानवीय ज्ञान विज्ञान को असंभव बनाने और नागार्जुन द्वारा समस्त चिंतन के निषेध के साथ स्थायी आत्मा की अवधारणा का निषेध जब उनके ही दर्शन के प्रयोजन को परास्त करता है तब आचार्य की स्थायी आत्मा की स्थापना जिसका स्वरूप ही साक्षी का है,न केवल समस्त मानवीय ज्ञान-व्यवहार को संभव बनाते हैं बल्कि सभी निषेधों को आधार भी प्रदान करते हैं।।
दूसरी ओर सांख्य दर्शन जो आत्म को चेतन स्वरूप मानने के बाद भी उस द्वैत मे अपने को फंसा पाता है जिससे छुटकारा उस अध्यास की व्याख्या से मिलता है,जिसके कारण हम विषयों की स्वतंत्र सत्ता मान बैठते हैं और उस द्वैत से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं मिलता।और न्याय दर्शन के क्या कहने ,जो अपनी श्रेष्ठतम प्रमाणमीमांसीय उपलब्धियों के बाद भी आत्म को अचेतन सिद्ध करने के प्रयास में उसकी स्थिति पाषाण सी कर देते हैं।यदि आत्मा की आध्यात्मिक यथार्थता को अस्थायी मानसिक अवस्थाओं के साथ मिश्रित न करना ही इस चिंतन का उद्देश्य है तब तो आत्मा को अवश्यमेव ही चैतन्यमय होना चाहिए।पुनः मीमांसकों द्वारा वैदिक कर्मकांड की उच्चतर व्याख्या के बाद भी वैदिक चिंतन को हिंसात्मक होने  के आरोपों के भंवर से निकालते हुए ज्ञान की उस वैदिक भागीरथी को दर्शनरूपी धरातल पर उतारते हैं तब सम्पूर्ण वैश्विक दर्शन विस्मय से भर जाता है।।यही नहीं अब तक के चिंतन मे जिस आनंद और ज्ञान को आत्मा से वंचित किया गया, आचार्य उसे आत्म का स्वरूप घोषित कर मानवीय अस्तित्व को गरिमामय स्थिति में ला खड़ा कर देते हैं।।
अपने दर्शन की स्थापना में आचार्य की मुख्य चिंता वैयक्तिक अहंकार की भ्रममूलकता की व्याख्या करना है।इस अहंकार को वे अध्यासरूप कहते हैं, अथवा यह अहंकार ही उस अध्यास का मूल है। आचार्य जिस भ्रम के प्रश्न को लेकर अपना भाष्य लिखते हैं वह साधारण ज्ञानमीमांसीय प्रश्न नहीं है,वह वैश्व भ्रम का प्रश्न है।और इस वैश्व भ्रम का मूल यह वैयक्तिक अहंकार अथवा वैयक्तिकता का होना है।यह अहंकार ही है जो अस्मत् के रूप में भासित होती है,किंतु जो वास्तव में युष्मत् है।यह अस्मत  से इतर या बाह्य है।वास्तव में यह अस्मत् को युष्मत् से बहिष्कृत रखती है।यह युष्मत् केवल अस्मद् बाह्य ही नहीं है, यह परिसीमक या विभाजक भी है।इसप्रकार,इससे आत्मा प्रवासी ही नहीं, बंदी भी बनती है।
किंतु यह युष्मत् भी कोई पृथक सत्य नहीं है, यह आत्मा का अपना अंतर्गत भाव ही है जो उसे अपने से बहिष्कृत रखता है।आत्मा का यह आत्मप्रवास उन अवसरों पर अपने को प्रकट करता है जिनमें हम अपना निराकरण करते हैं,परंतु ज्ञानात्मक बोध से।इसी ज्ञान की व्याख्या हेतु शंकर वैदिक ज्ञान के सर्वोत्कृष्ट रूप उपनिषदों पर भाष्य लिखते हैं,जो सनातन के विरोध काल में पुनः हिंदूं जनमानस को पौराणिकता से औपनिषदिक दिशा की ओर मोड़ते हैं,गीता, ब्रह्मसूत्र की अद्वैतीय ज्ञानपरक व्याख्या करते हैं, गीता पर भाष्य लिखते हैं।तात्पर्य कि दार्शनिक साहित्य के तीन प्रमुख प्रस्थान-त्रयी की व्याख्या करते हैं,एक ओर न केवल बौद्ध धर्म के सनातन पर प्रहारों से उसे बचाने का बीड़ा उठाते हैं बल्कि संभवतः जीवन के अंतिम क्षणों में कुमारिल जैसे विद्वान को इस क्षोभ और ग्लानि से मुक्ति भी  दिलाया हो जो उन्होंने सनातन की रक्षा के लिए सनातन के विरोधी से ज्ञान लेने के उपरांत जन्मी थी,यही नहीं मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर वैदिक धर्म की नयी व्याख्या करते हैं, इस बात का परंतु यह महत्व नहीं है, बल्कि यह बहुत महत्वपूर्ण पक्ष रहा कि मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर वह वैदिक धारा के प्रवाह को रोकते नहीं अपितु मीमांसा के पूर्व और उत्तर पक्ष के रूप में एक ओर पूर्वमीमांसा के रूप मे जैमिनी, प्रभाकर और कुमारिल की वैदिकीय ज्ञान के कर्मनियम की भी स्थापना करते हैं और उत्तर मीमांसा के रूप में वैदिक ज्ञान के दार्शनिक निचोड़ को,औपनिषदिक ज्ञान की पताका को सम्पूर्ण भारतवर्ष में न केवल फहराते हैं अपितु बहुत गहराई से उसकी जड़ो को दूसरे ही रूप में स्थापित कर देश के चारों कोनों में सनातन संस्कृति, दर्शन और धर्म की स्थापना करते हैं,यह स्थापना इस दृष्टि से बहुत महत्व की हो जाती है जब सनातन धर्म पर संकट और आक्रमण आंतर से उपजा था।
आचार्य के मतानुसार प्रत्येक आत्मनिराकरण में उस युष्मद्-भाव का निराकरण होता है जो अस्मत् रूप में मेरे से अभिन्न बना हुआ था।”मैने वह किया जो मुझे नहीं करना चाहिए था”में आत्म अपने सम्मुख निन्दित रूप में प्रस्तुत है और इसी से वह आत्म से अभिन्न नहीं है।किंतु इस निराकृत आत्म की विचित्र स्थिति है, यह निराकृत है और अतएव यह सत् नहीं है, किंतु तब भी यह है और अपने इस अस्तित्व के द्वारा ही मेरे पश्चाताप का स्त्रोत है।यदि यह नहीं होता तो मैने वह कार्य नहीं किया होता,किंतु यदि यह सत् होता तो इसका निराकरण असंभव होता।इसकी विचित्रता इसका असद्भाव प्रकट होने पर भी इसके बने रहने में है।
यही बात ज्ञान के संदर्भ में भी है।किसी धारणा की भ्रामकता प्रकट होने पर मुझे आश्चर्य होता है कि मैं इस प्रकार सोचता या देखता था, वास्तव में कहें कि मैं इस प्रकार सोच या देख सकता था।यह आश्चर्य मेरे असत्आत्म को मेरे सम्मुख प्रस्तुत करता ही है, युष्मत् का यह निराकरण इसकी अनात्मता को सिद्ध कर देता है।इस प्रकार आचार्य भ्रम,मिथ्या, अध्यास की व्याख्या में न केवल युष्मत् के रूप को प्रकट करते हैं,अस्मत् की व्याख्या में आत्म को अनात्म से पृथक करते हैं।अनात्म-ज्ञातृआत्म का निराकरण,वैयक्तिक अहंकार का निराकरण  ही शंकर के मिथ्या, अध्यास विचार का प्रेरक है और यही कारण है कि शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र की व्याख्या का आरंभ अध्यास-विचार से आरंभ करते हैं।।स्वयं आचार्य अपने शब्दों में इसे प्रकट करते हुए कहते हैं–“अत्यंत भिन्न धर्म और धर्मी का परस्पर भेद-ज्ञान नहीं होने के कारण एक का दूसरे में परस्पर स्वरूप तथा एक-दूसरे के धर्मों का अध्यास कर सत्य और अनृत का मिथुनीकरण का “यह मैं”और ‘यह मेरा’ इस प्रकार मिथ्याज्ञान का और अन्तःकरण की सम्पूर्ण वृत्तियों के साक्षीभूत प्रत्यगात्मा का अन्तःकरण आदि में अध्यास होता है तो इस प्रकार अनादि, अनंत, नैसर्गिक, मिथ्या ज्ञान रूप और कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि का प्रवर्तक अध्यास सर्वजन प्रत्यक्ष है।”
आचार्य अद्वैत की स्थापना में यद्यपि सभी महत्वपूर्ण प्रश्न, तत्व, बिंदु पर अपने ज्ञानामृत से न केवल भारतीय दर्शन को अपितु सनातन धर्म और संस्कृति को समृद्ध करते हैं तथापि अद्वैत स्कूल में प्रवेश की पहली कक्षा तो अध्यास ही है।इसी दृष्टि से यत्किंचित यहां अध्यास को लिखने का प्रयास किया है,यद्यपि उसमें आत्म्-अनात्म की बात तो स्वयंमेव ही चली आती है।आचार्य अपने भाष्य ग्रंथों, ग्रंथों में फिर उसी आत्म की स्थापना और अनात्म का निराकरण करते हैं विविध पक्षों से, रूपो से,दृष्टियों से।
आचार्य के भाष्यों द्वारा उपनिषदों की शिक्षा पुनः नवीनता को प्राप्त होता है और हिंदुत्व पुनः उस ओर उन्मुख होता है।उन्होंने अपने समस्त ग्रंथ इस भाव से लिखें कि मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने का मार्ग स्पष्ट दिखाई पड़े।परंतु आचार्य के इस कर्मजीवन से न केवल भारतीय दार्शनिक परंपरा समृद्धि और उत्कृष्टता को प्राप्त करती है बल्कि हिंदुत्व को,सनातन धर्म को संगठित रूप देना उनका दूसरा अतिमहत्वपूर्ण योगदान रहा है।और इस रूप में वे अद्वैत की महाधारा को प्रवाहित करते हुए भी, उसे प्रमुखता देते हुए भी विष्णु, शिव,शक्ति आदि पर स्त्रोत लिखते हैं, शाक्त मंदिरों में बलि देने की प्रथा का विरोध करते हैं और यही नहीं सन्यासियों के लिए संघ की स्थापना करते हैं तथा भारतवर्ष की भौगोलिक एकता को प्रत्यक्ष करने के निमित देश की चारों दिशाओं में चार पीठ की भी स्थापना करते हैं।।
जिसका महत्व भारतवर्ष के प्रत्येक जन के ह्रदय में इन स्थानों की यात्रा की अभिलाषा के रूप में प्रतिबिंबित होता है।
यद्यपि आचार्य के जीवन और कृत्यों पर दार्शनिक, सामाजिक,ऐतिहासिक दृष्टि से लिखने हेतु मेरे लिए तो यह जीवन अल्प है जबकि माया मुझे अन्य रूपों में बांधे है तब तो यह अति दुष्कर है तथापि जन्मदिवस पर आद्य गुरु को स्मरण करते हुए अभी इतना ही।जो भी लिखा है, उन्हीं को श्रीचरणों में समर्पित है।।

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विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

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  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं