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‘मन ऊब गया है’, ‘पर तुम्हारे फिल्मों के इन्द्रधनुष देखते देखते तो नहीं मरा जा सकता है’।

 

बीती रात जागरण होने से जब रामायण और महाभारत के बीच का समय सोने के लिए सबसे अनुकूल लगा,नींद भी उफान पर था,अलार्म नहीं लगाया था,फोन एरोप्लेन मोड पर और मैं नींद की आगोश में।पर जैविक घड़ी ने ठीक 12:10 पर जब जगाया तो महामारी के इस संकट काल में जब कि महत्वपूर्ण कुछ जिम्मेदारी भी कांधे पर हो,फोन एक घंटे से अधिक कवरेज क्षेत्र से बाहर है, ये सोच जल्दी से फोन नार्मल किया, व्हाट्सएप पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी के मद्देनजर वहां झांका ,कुछ विशेष न था पर टीवी पर ब्रेक की वजह से लोगों के स्टेटस देखने लगी पर ये क्या ,स्टेटस की भीड़ जैसे और हर भीड़ में लगा इरफान हैं, धड़कते दिल और बुरी आशंका से ग्रस्त हो पहला स्टेटस देखा और फिर जो पढ़ा वह इतना दारूण था,दिल तोड़ने वाला था कि कुछ और फिर देखा ,सुना न गया।
याद आ गया दो साल पहले का वह दिन जब मिस्टर बैनर्जी ने प्रिय अभिनेता के दुर्लभ और हमारे समय के सबसे जटिल रोग से शिकार होने की खबर सुनाई थी।
स्वभावगत् अन्तर्मुखीता न केवल सबके सामने दुख को व्यक्त करने से रोकता है, कोई दुख ,कोई पीड़ा को अकेले में भी व्यक्त करने से बहुधा खुद को रोक रखती हूं ,आंसू आंखों में आते हैं तो पलकों पर ही रूक जाते हैं, सुख जाते हैं।पर इस खबर से न आंसू रूके, न मैने रोका।वे आज रूक भी नहीं सकते थे, मैं चाहती भी नहीं थी।बहुत सारे दुख जो जमा हो गए थे, सब जो बह चले थे मानो।
जानते हो प्रिय अभिनेता,जब कोई अपना, कोई प्रिय,कोई आत्मीय मरता है न तो आदमी खुद भी थोड़ा सा अपने अंतर में मर जाता है।कल तुम्हारी रूखसती ने उचाट हो चले बालीवुड से बची-खुची मोहब्बत को समाप्त कर दिया हो जैसे!मार दिया हो जैसे!
कैसा संजोग है कुछ दो-चार दिन पहले दुबारा देखने की हिम्मत न की जा सकने वाली तुम्हारी फिल्म मदारी को देख रही थी।फिर न जाने किस मूवी में तुम्हारी एक झलक दिखी,मूवी कुछ खास न थी,पर एक झलक तुम्हारी जिस मूवी में दिख जाए,फिर तो उसे पूरी तरह देखे बिना छोड़ा ही नहीं जा सकता था कि न जाने किस पल,किस सीन में तुम अदाकारी का ,दर्शन का कोई पाठ पढाने आ जाओ।सहजता में कितना आकर्षण हो सकता है, यह जानना हो तो कोई तुम्हारी अदाकारी देखे फर्नांडीज साहब!
तुम्हारी अदाकारी मानो जैसे कोई गद्यात्मक शैली में काव्यपाठ कर रहा हो!किन फिल्मों की तुम्हारी बात करूँ, किन फिल्मों के बारे में लिखूं, तुम तो छोटी सी एक भूमिका को अविस्मरणीय बना देने का सामर्थ्य रखते थे रूहदार!छोटी सी भूमिका में दिल पर न मिटने वाला छाप छोड़ जाते थे।फिल्म क्या,न जाने कितने ऐसे सीन हैं जिसपर लिखने के लिए न जाने कितने पन्ने रंगीन किये जा सकते हैं, न जाने कितने ऐसे सीन हैं जिस पर दर्शन का एक पूरा पाठ बनाया जा सकता है।हर किरदार पूर्ण, पर कितना कुछ बाकी रह जाता है सुनने, देखने को; एक प्यास बाकी रह जाती कंठ में, कि अभी तुम आओगे परदे पर फिर से और जो छूट गया है जैसे, उसे पूरा करोगे।हर अदाकारी मानो पूरे से जरा सा कम हो।
भला,कैसे कहें अलविदा!जब तुमने संदेशा दिया था कि wait for me,india.मैं तो इंतजार में थी तुम्हारे लौट आने के जबकि जानती थी कि कैंसर से ठीक होकर लौटने वाले का फिर से अस्पताल जाना मतलब मृत्यु निकट ही कहीं खड़ी है फन फैलाए।पर फिर भी तुम्हारा भरोसा किया क्योंकि तुम कुछ यूं ही तो नहीं कहते।जो अपने कौम की कुरीतियों पर सवाल उठाने से नहीं हिचकता, तब भी जब कि बड़े बड़े इंट्लेक्चुअल उस कौम का हिचकता है सत्य कहने, स्वीकारने से,जब उस सम्प्रदाय के बौद्धिक वर्ग न कभी खुद अपने भीतर झांकता है न अपने समाज को प्रेरित करता है आत्मानुसंधान हेतु।माफी मांगने के सवाल पर कितनी सुंदर बात कही थी आपने”,”मुझे डराइए मत,मैं उस देश में नहीं रहता हूँ जिसे धर्म के ठेकेदार चलाते हैं”।पर धर्म को अफीम की तरह चाटने वाले कहाँ सुनेंगे, समझेंगे तुम्हारी बात!और तुमने माफी नहीं मांगी क्योंकि तुम जानते हो कि सत्य क्या है!तुम्हारे जैसा अभिनेता ही जान सकता है कि सत्य क्या है, जिसने इतना बड़ा कद अपने संघर्ष के बल पर प्राप्त किया हो।सत्य के मार्ग पर चलने वाले के लिए संघर्ष ही एकमात्र सहचरी होती है।उसपर चलने का साहस तुम ही कर सकते हो।बहुत कम लोगों को पता हो कि तुम ग्राम सेवा संघ के एक कार्यकर्ता थे।
तुम्हें श्रद्धांजलि स्वरूप और अपने दुख को कम करने के लिए यही सबसे उत्तम लगता है कि अगले कुछ दिन तुम्हारी ही फिल्में देखते हुए बिताऊँ।जिसको जीवन में दुख का रोग लग गया हो,तुम्हारी फिल्म रोग देखते या जुरासिक पार्क के देखने लिए टिकट के पैसे न होने से लेकर उस फिल्म के आनर होने तक के सफर को पूरा करने वाले जीवट व्यक्ति की इस फिल्म से! यह चयन भी कितना मुश्किल है जबकि मेरा मन तो उसी एक सीन पर अटका है,”मन ऊब गया है”।यह लाइन कहते वक्त लगता है जैसे दर्द में डूबा कोई दिल कोई दुखांत कविता का पाठ शुरू किया हो और आशा देती इस लाइन पर समाप्त कि इसको(इंद्रधनुष)को देखते देखते तो नहीं मरा जा सकता है।ठीक वैसे ही जैसे कि कितना भी दुख क्यों न हो,तुम्हारी फिल्मों को देखते हुए भला कोई कैसे मरने की सोच सकता है!एक ही सीन मे ऊब और प्रकृति के सहारे इस ऊब को जीतने की कोशिश करने का संदेश देता यह सीन।उफ्फ!लेकिन यह ठीक भी है कि चाहे कितनी ऊब हो जीवन में, फैलाना तो आशा का ही संदेश है।बिल्कुल वैसे ही जैसे कि तुम्हें यकीन हो चला था कि तुम हार चुके हो फिर भी तुमने कहा wait for me.और यह ठीक भी है आत्मीय अभिनेता,क्योंकि अब तो तुम जान ही गए होगे कि हम न केवल फेंके गए अस्तित्व हैं बल्कि मृत्यु से लिपटे अभिशप्त अस्तित्व हैं…. देर सवेर वह हमें अपना ग्रास बनाएगी ही।
कितनी अजीब बात है कि जब से लाकडाउन शुरू हुआ,अपने रात्रि जागरण की वृत्ति का त्याग कर सूर्योदय देखने के लिए प्रतिदिन अलसुबह ही उठ जा रही हूं और सूर्यास्त तो हमेशा देखती ही हूँ, अब और इत्मीनान से देख रही थी।शायद इन्हें देखते वक्त यही बात रही हो अचेतन में कि ऊब तो बहुत है जीवन में पर सुकून सी देती प्रकृति 24 घंटे में दो बार अपनी यह अद्भुत क्षण हमें देती है, तब तो खुद से गाड़ी से उतरना ठीक नहीं।क्यों प्रकृति के कार्य का दोष खुद लें।
देखो प्रिय अभिनेता मैं तो तुम्हारे इस एक सीन से ही नहीं निकल पा रही, जबकि इन दो लाइनों को दो दिनों में न जाने कितनी बार दोहरा चुकी हूं।जबकि न केवल तुम्हारी फिल्में, तुम्हारे इंटरव्यू, तुम्हारे कुछ शो कुछ बातें देखने, सुनने, समझने को है।कल ही सुना किस इंटरव्यू में तुम कह रहे थे कि आदमी जब शर्मीला होता है तो उसके अंदर एक दुनिया चलती रहती है।यह सच है प्रिय अभिनेता,यह सच है।
हिंदी मीडियम,हर भारतीय मध्यमवर्ग की कहानी और भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बेहतरीन कटाक्ष।पीकू, ओह!इसे कोई कैसे भूल सकता है।जब तक तुम नहीं आते, कितना अधूरा लगता है सिनेमा का परदा।जैसे कुछ कमी हो;जबकि सामने परदे पर सदी के महानायक और वर्तमान की बेहतरीन अदाकारों मे से एक दीपिका थी।और तब तुम आते हो,और फिर हर चीज़ अपने जगह ठिकाने पर हो जाता है, कोई शिकायत नहीं रह जाता है।
तलवार, ओह!यह फिल्म तो मुझसे कोई पूछे कि कहां से शुरुआत की जाए  इरफान को देखना तो मैं यहीं से कहूंगी शुरुआत करने को,यहीं से कहूंगी।काश,हम निर्णय लेने से पहले कुछ क्षण रूककर जरूर सोचें।
मदारी, बरसों बाद कैसे कर के हिम्मत जुटाई इसे देखने की, सिर्फ तुम्हारे कारण।पुत्र को खोने के गम और एक पुत्र के अपहरण के कष्ट को उभारना केवल तुम्हीं कर सकते थे ऐसा।
मकबूल, उफ्फ!क्या सिनेमा है! इरफान साहब!ऐसा लगा देखते वक्त, मानो मैं शेक्सपीयर को देख रही होऊं मैकबेथ लिखते।आह! ये द्वन्द्व मानवीय मन का!!
पान सिंह तोमर,हासिल, लंचबॉक्स, लाइफ इन ए मेट्रो, चार फिल्में, चार अलग किरदार।पर तुम कितने सहज,कितने आकर्षक, कितने वास्तविक सबमें।।सलाम बाम्बे का एक छोटा सा किरदार, मानो कहता  है मुझसे कि “मेहनत के बाद उम्मीद से बड़ा हथियार कोई नहीं”लाइफ आफ पाई देखने के बाद लगा,संवेदनाओं का पाठ पढ़ने के लिए अब भला क्या पढ़ा जाए,जिसे यह फिल्म देख न समझ आया हो,वह भला किस विध समझेगा!
ओह!कैंसर,कितना दुख दिया तुमने और कितना दोगे,नहीं मालूम।अभी जब ठीक से तुम्हारा गम  समझ भी न पाई कि बालीवुड के गलियारे से एक और बुरी खबर!यदि ईश्वर है,वह सर्वशक्तिमान है तो बस यही कहना है उससे कि मृत्यु तो अपने आप में दुखदाई है।किसी अपने,आत्मीय,प्रिय की मृत्यु वैसे ही असहनीय, ह्रदयविदारक है फिर यह असमय मृत्यु का श्राप क्यों।जीवन दिया है तो उम्र तो पूरी करने दो!ऐसे भी अपनी दी हुई नेमत कोई वापस लेता है क्या! कि मुख से बस यही निकले कि अभी तो कितना कुछ करना बाकी था।दिल अवाक् रह जाए।
जैसे जीवन भर यह दुख सालता रहेगा कि शेष जीवन अब मां की सेवा का मौका नहीं मिलेगा वैसे ही बचा जीवन अब तुम्हारी अदाकारी न देखने को मिलेगी।
यह तुम्हारे व्यक्तित्व से चिपकी कला का कमाल ही ही रहा होगा जिसने एन.एस.डी के इंटरव्यूअर को यह मानने को बाध्य किया होगा कि तुम प्रवेश के लिए 10 नाटक में काम करने के अहर्ता को पूरा करते हो।
अब और नहीं लिखा जाता कि अभी तो कितना कुछ है लिखने कहने को।तुम्हारे जीवन का संघर्ष का हिस्सा तो छूटा ही है कि तुमने कभी अपनी पसंद से समझौता नहीं किया,भले कितना संघर्ष किया उसके लिए।प्रिय अभिनेता जब कभी तुमसे मिलती तो अपना परिचय मैं तुमसे तुम्हारे ही इस वक्तव्य से देती।मेरे आत्मीय अभिनेता जानते हो,;मैं मुस्कुराना चाहती हूँ लंचबॉक्स के फर्नांडीज के मुस्कान की तरह।जैसे,ढलती उम्र के तालाब में बचपन का निर्दोष चांद का प्रतिबिंब बन रहा हो मानो।तमाम दुख के बाद भी यह सोचकर दिल बोशा है कि आने वाली पीढियों को हमारे समय की सुनाई जाने वाली कुछेक महत्वपूर्ण बातों में एक यह भी है कि हमारे जमाने में ‘इरफान’एक्टिंग किया करते थे।और ये भी कि बचपन जहां चंद्रकांता के बदरीनाथ और सोमनाथ को देखते बीता,जवानी में तुम एक से बढ़कर एक अदाकारी से सजे अपने फिल्मों का उपहार लेकर आए।पर अब क्या!!जीवन बड़ा होना चाहिये, लम्बा नहीं।न जाने किस किस को विदा होते देखना है जिंदगी के मंच से।एक मरघटी अहसास सा छा गया है इन दिनों।तुम्हारी ही तरह क्रिकेटर बनना चाह रही थी पर नहीं बन पाई।,यह भी अब तुम्हें बता न सकूंगी कभी कि पहली बार जब टोंक गए तो दिल किया कि कोई कोना छूट न जाए देखने से कि ये तुम्हारा जन्मस्थान है।बिनावजह जयपुर के सड़कों की धूल फांकी कि तुम्हारा घर यहां है तो इस उम्मीद में, कि जिंदगी की अदाकारी कैसे करनी है,कोई तो सूत्र हाथ लग जाए।मैं तब बेरोजगार थी।तुम्हारे लिखे कि वह लाइन कि केवल अनिश्चितता ही निश्चित है, सच है, और बस यही सच है।मृत्यु सबको दार्शनिक बना देती है जैसे कि वह सबमें श्मशानी वैराग उत्पन्न करती है।पर हम रोज ही देखते हैं मृत्यु, झेलते हैं जीवन की अनिश्चितता, पर हम इसके अभ्यस्त नहीं होना चाहते।मानव मन ही कुछ ऐसा है कि वह दारूणता को ,जीवन के इन दो कठोर और क्रूर सत्य को इस तरह अभ्यस्त होकर नहीं जीना चाहता।और हर बार किसी की मृत्यु पर,घटी हर घटना पर अचंभित, दुखी हो जाता है,ये क्या हुआ,क्यों हुआ!अभी ही क्यों हुआ।मानो ऐसा भी कोई काल हो जैसे जब वह इन सत्य को स्वीकार करना सीख सकता है।दुनिया पहले से ही डरी है, चुप और हैरान है, जिंदगी हर कहीं,चारो तरफ कातर नज़र आ रही है।ऐसे में भला मृत्यु के स्टेशन पर गाड़ी रोककर उतरने की क्या जरूरत थी,जबकि जानते थे कि यह वह पथ है जहां देर सवेर सबकी गाड़ी रूकनी ही है, पर यहां से कोई गाड़ी चलती नहीं जो कभी किसी अपने को वापस लेकर आए।ऐसे में भी तुम चले गए।ठीक है, प्रिय कलाकार, नियति के हाथो़ में फंसे हम,भला कहाँ इतना अवकाश कि रूकने का वक्त तय कर सके कि ठीक से अलविदा कह सकें।यह ठीक भी है प्रिय अभिनेता क्योंकि हम भला कहाँ अपने किसी को अलविदा कह सकते हैं।पर इतनी दूर मत जाना कि मैं तुम्हें लिखूं, तुम्हारे लिए रोऊँ तो तुम देख न सको।तुमको याद रखेंगे हम गुरु!क्योंकि तुम थे,तुम हो और तुम रहोगे हमेशा,क्योंकि I like Artist. ईश्वर अगर है तो तुम्हें अपने समीप जगह दे,देगा ही,क्योंकि उससे बेहतर अदाकार भला कौन है और ये भी कि जौहरी को हीरे की पहचान तो होती ही है।अभी इतना ही मेरे आत्मीय अभिनेता,मेरे दार्शनिक अभिनेता,अभी इतना ही।।

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