मैं सुक़रात बनना चाहती हूं!सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहती हूं।
हो जाना चाहती हूं प्लेटो और देखना चाहती हूं दार्शनिक को बनते राजा।
बनना चाहती हूं अरस्तू कि ज्ञान का कोई पक्ष अछूता न रह जाए।
मैं बनना चाहती हूं डेकार्ट कि स्व को,आत्मा को खोजना है बिना ईश्वर के और ईश्वर को सिद्ध करना है प्रज्ञा से।
और फिर स्पिनोजा कि तरह सबकुछ ईश्वरमय घोषित कर सकूं।
चाहती तो यहीं हूं कि मरते वक्त कह सकूं लाइबनित्ज की तरह कि 'ये दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे अच्छी है'।
यद्यपि मैं अभी शोपेनहावर से सहमत हूं कि 'ये दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे बुरी है'।।
मैं चाहती हूं लाॅक बनना और सबकुछ अपने अनुभव से जानना चाहती हूं,
चाहती हूं बर्कले कि तरह पत्थर को प्रत्ययरूप सिद्ध करना कि आदमी तो प्रस्तर हो चुका है।
किंतु मैं अभी ह्यूम से सहमत हूं कि मुझे हर किसी पर संदेह है,स्व पर भी।
मैं चाहती हूं कि काश! कांट की तरह मोह निद्रा से जग जाऊँ और अपने साथ दुनिया को दुनियाभर के अंधविश्वासों से मुक्त कर पाऊँ।
मैं हेगल के जैसे होना चाहती हूं,जहां द्वन्द्व से चेतना का परिष्कार हो न कि मतभेद और फिर मनभेद।।
मैं चाहती हूं विट्गेन्स्टाइन बन जाना कि कहे गए शब्दों के क्या सही अर्थ हैं,उनतक पहुंच पाऊं!
मैं चाहती हूं अपने प्रिय दार्शनिक सार्त्र के जैसे बन जाना कि अपने होने को अपने स्वतंत्र चेतना के निर्णयों से सिद्ध कर सकूं न कि बस संसार के अनेकानेक वस्तुओं की भीड में मैं भी एक वस्तु बनकर रह जाऊँ।
यद्यपि मैं जानती हूं कि जीवन जीना अभिशप्त होने का प्रमाण है और स्वतंत्रता एक भ्रामक प्रत्यय।
मालूम नहीं!मैं इनमे से कुछ बन पाऊँगी या नहीं किंतु मैं काफ्का सम्भवतः होऊंगी कि लोग मुझे जानेंगे मेरे न होने के बाद,जैसा कि इस दुनिया की रीत है…..
...........................................................जारी।
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