मार्च,अप्रैल के माह में अचानक गर्म थपेड़ों के बीच में ,कभी सुबह कभी शाम में चलने वाली हल्की सी ठंडी हवा को महसूस किया है!उसके स्पर्श को!कुछ कहती है जैसे।क्योंकि स्पर्श मात्र स्पर्श नहीं होता;वह अपने आप में एक पूरी भाषा होती है।उसका छूना आमदिनों के छूने जैसा नहीं होता।तन को छूती,मन तक पहुंचती वह हवा सब अपनों के स्पर्शों से भरा एक पूरा जख़ीरा लिए उतरता है आत्मा तक।भुलाए गये हर किस्सों से सब परतें हट जाती हैं मन से,याद आ जाता है देह को देह में छुपी किसी और देह की याद्दाश्त!सब कड़वे अनुभवों से छांटकर,बचाकर ले आती है ये हवा बस कुछ तसल्ली सी देती स्पर्श, कुछ सुकून से देते स्पर्श,कुछ ढांढस बंधाते स्पर्श।ये पुरसुकून सी हवा दरअसल ले आई होती है अपनों के ये सब स्पर्श और ये भी संदेश कि कितना भी कठिन हो”ये समय है, बीत जाएगा”और उनकी ओर से भी जिन्होंने विदा में दिये थे कुछ शब्द इस माह में चलने वाली लू के जैसे,जो झुलसाते से रहते हैं देह को,मन को वर्ष भर!!शायद इन मार्च,अप्रैलों में चुपके से चलने वाली ये शीतल हवा रूठे हुए उस मीत की तरफ से चलकर आए वो शब्द हैं जो वे बोल न पाएं आखिरी बार विदा होते वक्त मन में उठे तूफानों के कारण।
हवा जैसे उन अनकहे शब्दों का स्पर्श मुझ तक पहुंचाती है!स्पर्श जो अपने आप में एक पूरी भाषा है जो मिलकर बना है उन वाक्यों से,जो कभी कहा नहीं गया,जो कभी सुना नहीं गया!!
काश!कभी किसी छुट्टी के दिनों में मैं डिकोड कर पाऊं उस भाषा को।
कि फिर प्रलय के दिनों में,जीवन के आखिरी क्षणों में,मृत्यु के समक्ष मैं लगा पाऊ समाधि “द्रोणाचार्य” जैसे।।
हवा जैसे उन अनकहे शब्दों का स्पर्श मुझ तक पहुंचाती है!स्पर्श जो अपने आप में एक पूरी भाषा है जो मिलकर बना है उन वाक्यों से,जो कभी कहा नहीं गया,जो कभी सुना नहीं गया!!
काश!कभी किसी छुट्टी के दिनों में मैं डिकोड कर पाऊं उस भाषा को।
कि फिर प्रलय के दिनों में,जीवन के आखिरी क्षणों में,मृत्यु के समक्ष मैं लगा पाऊ समाधि “द्रोणाचार्य” जैसे।।
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