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Three years of my Job________________________ क्या बनूंगा मैं एकदिन सितारा? या रहूँगा मैं बेचारा? 17 मई’2017—17 मई ‘2020

 

Three years of my Job…
(दिल में आ रहा है लिख दूं,Three years of my mistakes.पर तब यह आकंड़ा तो 34 years का होना चाहिए कायदे से!इसलिए पहली टाइटल ही ठीक है।
“मैने क्या पाया,क्या मैने गंवाया,
हां,मैने की गलतियां”।।

जब 20 वर्ष की थी तब जल्दी से जल्दी 40 साल की हो जाना चाहती थी।सब पूछते भला बुढापे की ओर जाने की इतनी जल्दी क्यों?तब मेरा जवाब होता कि जब मैं 40 की होऊंगी तब मुझे अच्छी तरह पता होगा कि मेरे अगले 40 वर्ष कैसे बीतेंगे।शुक्र है 30 पार के बाद ही पता चल गया कि ये जीवन अपनी स्वतंत्रता और शांति से बनाए घर में बीतेगा।

दुनिया में कई शहर हैं, जिनके नाम भी मुझे नहीं मालूम।अनजाने शहरों को जानूँ भी क्योंकर जब अपने शहर से इतनी मोहब्बत है कि मानो मां के पैरों के बाद अगर स्वर्ग कहीं है तो वो मेरे शहर की धूल में है।पर मन का हमेशा कहाँ होता है।सो एक शहर से वास्ता पड़ा,नौकरी की तलाश जहां खत्म हुई,नाम है बेतिया।।नेपाल की दृष्टि से देखें तो उत्तर दिशा से भारत का प्रवेश द्वार,बिहार की ओर से और बिहार की नज़र से देखें तो पश्चिम का अंदरूनी शहर।एकदम अंदर!यही कहकर डरे थे सब अपने कि कैसा होगा शहर!जाने कैसे मैं रह पाऊंगी!अकेली, उसपर से लड़की।आज़ उस शहर में नौकरी के तीन वर्ष पूर्ण हुए,बिना किसी डर,और तनाव के।जैसा सबने डराया,बताया था, वैसा बिल्कुल कुछ भी नहीं।बिजली ठीक ठाक,पानी की समुचित व्यवस्था, कालेज के नजदीक घर,अच्छा व्यवस्थित मोहल्ला, और कुछ हद तक शहर भी।शांत,कोई बहुत उच्च महात्वाकांक्षा पाले लोग नहीं, कुछ हद तक संतुष्ट।नया बसा बेतिया कुछ और बेहतर है।और आसपास ग्रामीण क्षेत्र होने से कुछ चीजें अभी भी शुद्ध मिल जाती है, जिसमें मेरे पसंदीदा दो सामान.. दूध और दही।।और अब तो तीन साल बीतने के बाद शहर भी मुझे पहचानने लगा है,अपना तो उसने बहुत पहले ही लिया था।मैने ही इस मामले में देर की।
तो तीन वर्ष कोई बहुत नहीं है सेवाकार्य का कि मैं कुछ विशेष कहूँ इस यात्रा पर।पर अस्थिर चित् का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं, चौथे वर्ष तक ये कहानी पहुंचे या नहीं!पर एक दिन अपने कमरे पर टहलते वक्त ध्यान आया कि मैं मुस्कुरा रही हूं जबकि मैं टहलती तब हूँ जब कुछ तनाव हो।कई सालों बाद!शायद लगभग डेढ़ साल बाद एक निश्छल, निर्मल,बिना कारण एक मुस्कान तैर रही थी,अच्छा लगा!बहुत अच्छा!ये मुस्कान कहीं भीतर से आई थी।फिर याद हो आया कि ये मई का माह है, फिर स्मरण हो आया कि ओह!इसी माह तो मेरी नौकरी लगी थी और तारीखें तो मैं जल्द भूलती नहीं।मुझे तो उनसभी के महत्वपूर्ण दिन जे़हन में हैं जिन्हें शायद मैं भी याद न होऊं,और मेरे विशेष दिनों को तो याद रखने की क्या बात की जाए!
तो याद हो आया कुछ दिन पहले देखा कबीर सिंह,और Manchester of the sea, मूवी।मुझे भी लगा पिछले कुछ वर्षों से मेरी भी जिंदगी का एक दौर चल रहा था, मुस्कान में कुछ भारीपन,हंसी में कुछ खोखलापन था।मुझे कुछ वक्त की जरूरत थी,  और मैने अपने आपको वक्त दिया।
पर अचानक लगा जैसे वह दौर गुजर गया!लगा कि अब ठीक से पीछे मुड़कर देखा जा सकता है।तो कहने को इतना कुछ है कि समझ नहीं आ रहा कहाँ से शुरू करूं?दुख कहूँ, सुख कहूँ या बस तीन साल के अनुभव ज्यों का त्यों लिखूं?
जो भी हो,मान-अपमान, सुख-दुख,लाभ-हानि, मेरे पास अब एक जमीन है जिसपर खड़ी हूँ, मैं यहां से रो सकती हूं, हंस सकती हूं पर हर स्थिति में एक संतोष रहेगा,यूं कहें कि न्यूनतम या कम से कम सुख की तरह कि और कुछ नहीं तो नौकरी तो है।मैं अपना जीवन अपने तरीके से जी सकती हूं।मैने अपनी स्वतंत्रता और शांतियुक्त जीवन के लिए बड़ी कीमत चुकाई है।जब दो कमरे के किराए के मकान में रहते थे तब भी एक कोना मेरा था,जिसमें किसी का हस्तक्षेप न था।लेकिन दुनिया भर की चिंताएं सुकून से रहने न देतीं।अब वैसा कुछ भी नहीं।।
तो शुरू से शुरू करते हैं जब प्राचार्य से पहली औपचारिक भेंट के बाद उन्होंने दस दिन में लौट आने को कहा,पर मैं जानती थी गरमी की छुट्टियों के कारण इतना जल्द लौटना,जरूरत नहीं इसकी।सो तय किया कि जून के अंतिम सप्ताह में ही वापस आयेंगे।लेकिन बास तो बास होता है, दस दिन के बाद दो दिन बीतने पर प्राचार्य का फोन आया और लगभग धमकी देते हुए कहा कि आपको यहां आना था पर आप कहाँ है, आपका सैलरी रोक देंगे, और यह कह फोन काट दिया।मैने फोन पुनः मिलाया और लगभग दोगुने तैश में कहा ‘रोक लीजिए सैलरी, जब आना होगा, तभी आयेंगे’।कुछ और बातें सुनाईं और अब फोन कट करने की मेरी बारी थी।तो ये शुरुआत नहीं थी,इससे पहले यूनिवर्सिटी ज्वाइनिंग के बाद रजिस्ट्रार से भी फोन पर झड़प हुई थी तो ये आगमन था परदेश में, नयी नौकरी की शुरुआत का ढंग।
(कृपया सभी इसे न अमल में लाएं।थोड़ा प्यार और समझदारी से कहें जो भी कहना हो,न समझ आए तो यूं ही छोड़ दें, सुलझ जाएगा खुद ब खुद।)
बचपन से आंखों में पल रहे सपने के सच होने पर खुश तो बहुत थी,यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे मास्टर ब्लास्टर ने सौ शतकों का स्वप्न देखा होगा और उसे पूरा किया।कहाँ दुनिया को पता था कि न्यूनतम 38 और फिर 71  शतकों का रिकॉर्ड 100 पर जाकर रूकेगा!
पर हकीकत के सब मंजर हसीन नहीं थें!घर छूटने का बेइंतहा पीड़ा तो  थी ही,तिसपर छात्र नेताओं का बोलबाला,अराजक तत्वों से घिरा परिसर,शिक्षको को न्यूनतम सुविधाओं के साथ न्यूनतम सम्मान,और शिक्षा की स्थिति तो क्या ही कहा जाए!
(माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी आप इस क्षेत्र में बहुत बुरी तरह असफल हुए हैं।)खैर,
आरम्भ में न मालूम,नयी नौकरी का सुरूर था या बनारसी अकड़ का असर,अक्सर किसी न किसी से बहस हो जाती थी।फिर धीरे धीरे स्थिति समझ आई और इससे निपटने का तरीका भी समझ आया।मन ने जब उलझनों से पार पाना चाहा तो उलझाव के धागों में पड़ने से बचने लगी।फिर लगभग एक साल के अंदर ही स्थिति कुछ सुधरी।वरिष्ठ शिक्षक तो खैर आरम्भ से ही सह्दय रहें,नये समकक्ष सहकर्मी भी या तो अच्छे मित्र बने,कुछ तटस्थ रहें, कभी मनमुटाव भी हुआ पर स्थिति अनियंत्रित कभी न हुई।मैने भी स्वयं को नियंत्रित, व्यवस्थित कर लिया था।अराजक तत्वों ने आसपास भटकना छोड़ दिया, वे खुद ही कन्नी काटने लगें।छात्र नेताओं का बिना शर्त प्यार-सम्मान और सहयोग मिलने लगा।यहां तक की एक ने तो बहन भी माना क्योंकि उसकी बहन नहीं है कोई। कुछ ने भरोसा दिया कि हमारे होते मुझे इस शहर में किसी तरह की चिंता की आवश्यकता नहीं।मैं भी तबतक मान-अपमान की चिंता से परे हो चुकी थी।अब कभी कोई चिल्लाकर या अनाप-शनाप कहता है तो एक हंसी और अपने नियमों पर दृढता ही बहुत होते हैं उत्तर देने के लिए।मुझे आश्चर्य तब हुआ जब एक रोज वीसी हमारे महाविद्यालय आएं,कुछ खुन्नस पुरानी मुझे उनसे निकालनी थी ,सो हम सहकर्मी मित्र संग चर्चा के दौरान किसी बात पर मैने कहा,यदि शिक्षक प्रकोष्ठ की ओर आते हैं तो बात किया जाता है,और फिर यह कहने पर कि”ज्यादा से ज्यादा वे क्या करेंगे!कहीं दूर तबादला कर देंगे, कर दें”,तभी पीछे से आकर एक छात्र नेता ने कहा”नहीं कर सकते मैम!जबतक हमलोग(यानी छात्रसंघ)हैं,तब तक तो नहीं कर सकते”।।मुझे खुशी से ज्यादा आश्चर्य हुआ।बाद में मैने उसे अपने केबिन में बुलाया और पूछा कि मैने तो हमेशा तुम्हें डांटा ही,कभी कोई काम तुम्हारा न किया,फिर भला ये आत्मीयता क्यों?तब उसने कहा,”क्योंकि मैम मैं जानता हूँ कि आप हमेशा सही होती हैं और मैं गलत”।
उसदिन और भी दुख हुआ और ग्लानि हुई कि ये क्या विवशता है कि सही जानते हुए भी गलत कर रहे हैं, मन क्षोभ और कुछ शर्मींदगी से भर गया।लगा कि कौन जिम्मेदार है इस गर्त में पहुंच गई व्यवस्था का?छात्रों की इस स्थिति का?और तब जो क्रम मुझे सूझता है, वह ये है…1.शिक्षक वर्ग
2.सत्ता/नौकरशाही
3.अभिभावक और अंत में
4. छात्र।
(यह क्रम बिहार, यूपी के संदर्भ में है।)
यद्यपि पहला कभी दूसरा था और दूसरा कभी पहला।
पर उसदिन मैं कहीं गहरे से इन छात्रों के प्रति समर्पित हुई, अपने कार्य के प्रति और समर्पित हुई और उस एक उत्तर ने कहीं गहरे से मेरे अंदर के क्रोध को बहुत हद तक समाप्त कर दिया।अब बुरे से बुरे स्थिति में भी कम से कम छात्रों पर क्रोध नहीं आता।
हालांकि युवावर्ग को अपने व्यक्तित्व को समझना होगा,अपनी रूचि, क्षमता सब का ईमानदारी से आकलन कर आजीविका का साधन ढूंढना होगा।सरकारी नौकरी ही दुनिया नहीं है, दुनिया इससे भी बाहर है, बड़ी है।अपने शहर में व्यवसाय करें, खेती किसानी के कार्य को बढ़ाएं।किसान होना तो बड़े गर्व की बात है।(मुझे इस बात पर गर्व है कि मेरे पिता शिक्षक होते हुए भी किसानी का कार्य करते थे और सेवानिवृत्ति के उपरांत,मृत्यु की एक पहले की सांझ में खेतों की स्थिति देखकर आए थे।)तब हमें अपने शहर को छोड़ने की नौबत न आवेगी।खासकर आपदाकाल में हम यूपी, बिहार वालों को जो कठिनाई झेलनी पड़ती है, वो कुछ तो कम होंगी।आप जब पलायन नहीं करेंगे तो सरकारें भी मजबूर हों शायद स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए।
खैर,बहुत सारे तूफानों के बाद, लगभग दो साल के उपरांत सब ठीक है अब।घर-शहर छूटने के गम भी कुछ कम हुए।
संभवतः मन में यह आकांक्षा है कि कभी किसी रोज़ किसी विश्वविद्यालय की वाइसचांसलर बनूँ!पर वर्तमान हालातों में यह नामूमकिन सा लगता है पर मन में कहीं यह भी विश्वास है कि मात्र 134  रुपये के फार्म और कुछ हजार की ट्रेन यात्रा ने अगर  नौकरी दिला दी,एक सपना सच हुआ तो क्या जाने, यह भी हो किसी रोज़!क्योंकि शिकायत करना और भाग जाना मैदान छोड़कर,मेरी प्रवृत्ति नहीं है।कम से कम सेवानिवृत्ति के उपरांत शिक्षा व्यवस्था की शिकायतें मुझे खुद से तो न रहें!यही सेवानिवृत्ति पर मेरे लिए सबसे बड़ा ईनाम होगा खुद के लिए।
बस एक बाधा है कि न जाने क्या बेचैनी, कौन सी खला है सीने में जो हरदम बेचैन किए रहती है!जब जीवन में अस्थिरता थी तो लगता था यह जीवन के कड़वे अनुभवों से उपजी बेचैनी है, पर अब तो कुछ भी न ऐसा है,फिर क्या, कैसा है?दिल में आता है कभी सब छोड़कर कहीं दूर चली जाऊं।जीते जी इस दुनिया से दूर,बहुत दूर।।यूं लगता है शरीर के अंदर कोई है गहरे संत्रास में डूबा!एक खामोशी है अंदर,जिसमें बहुत शोर है, इतना कि यह शोर मेरा दम घोंटती सी लगने लगती है कभी!
देखें, भविष्य के गर्भ में न जाने क्या छिपा है!!
इस यात्रा में कुछ बिछड़ गये,कुछ ने इसलिए संग छोड़ दिया कि मेरी नौकरी लग गई, उनकी न लग सकी!ईश्वर उनसभी को रोजी रोटी का माध्यम और मन को शांति दे।
कहना बंद करने से पहले उस छात्र के उल्लेख बिना बात अधूरी रहेगी जो तीनों वर्ष आया पढ़ने, अकेले आया,और आलस्य नहीं दिखाई।मैं ही कभी प्रमाद से ग्रस्त हो जाती।छात्र वर्ग वैसे ही प्रिय होता है जैसे अपनी संतान।ठीक ही कहा है किसी ने कि छात्र पुत्र/पुत्री के समान होता है।कम से कम पिछले एक वर्ष का अनुभव तो यही कह रहा है।पिछले एक वर्ष में किए गए मेरे कार्यों के वास्तविक नायक तो ये छात्र ही हैं।ईश्वर इनसबको खूब तरक्की दे,खुश रखें।मुझे और सभी शिक्षको को ऐसे विद्यार्थी मिलें।

पीछे मुड़कर देखना एक पीड़ादायक कार्य है।अब जब कि कितना कुछ कहा,तब भी लग रहा है कि कितना कुछ बाकी है कहना!अभी तो दर्शन की स्थिति से उपजी पीड़ा पर कुछ कह ही न पाई।उन गलतियों का जिक्र भी छुपा ले गई, जो मैने कियें, उसे फिर कभी विस्तार से, तब केवल गलतियों पर ही बात होगी।और यह दुख,कि नौकरी लगने के सालभर में.ही माता-पिता दोनों को खो देना,जो नश्तर की भांति आत्मा में हर पल चुभता है, चुभता ही रहेगा जब तक जीवन है।। इस यात्रा में यूं तो महाविद्यालय के सभी शिक्षक सहयोगी की भूमिका में हमेशा रहें, एक साथ न सही, कभी कोई, कभी कोई।पर विशेष शुक्रिया प्रोफेसर रविन्द्र कुमार चौधरी और श्री तथागत बैनर्जी  और श्रीमती अम्बिका जी का।
सर चौधरी, जिन्होंने निरंतर कार्य करने का हौसला दिया और बुरी से बुरी स्थिति में से शांति से निकल आने का तरीका बताया।जब कोई नहीं साथ था ,तब भी आप साथ थें।आज मात्र अपनी कर्मठता के बल पर वह प्राचार्य बन गए हैं।ईश्वर उन्हें और तरक्की दे और उनका आशीर्वाद और स्नेह बनाए रखे मुझपर।और मेरे समकक्ष सहकर्मी श्री बैनर्जी,संभवतः यह दूसरे हैं जो हर परिस्थिति में साथ खड़े रहें,एक बार जब हमदोनों एकदूसरे को भलीभांति समझ-जान गए।अच्छी बात यह है कि घर-महाविद्यालय के अलावा कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसपर हममें चर्चा नहीं होती!असहमतियां किसी मुद्दे पर होती है पर चुप्पियां कभी नहीं हुई।23 तारीख को वे भी तीन वर्ष पूरे करेंगे और अगर वह लिखते तो निश्चित मुझसे बेहतर ही इस यात्रा का वृत्तांत लिखते।निश्चित रूप से मैं कह सकती हूं कि एकेडेमिया में एक दिन वह भारत के बड़े नामों में शुमार होंगे,बशर्ते वे फिल्म निर्माण के क्षेत्र में न उतरें!पर वह वहां भी अपनी पहचान अलग बना ही लेंगे।मेरे परिचित दुनिया में उनकी फिल्मों की समझ शानदार और अद्भुत है।कितने दुखी थें हम इरफान की मृत्यु पर!ओह! मैं,मिस्टर बैनर्जी और अम्बिका जी कुछ आगे-पीछे साथ ही आए थे और इनके विषय में क्या ही तो कहूँ, शक्ति और हिम्मत का अजस्र स्रोत।यदि नारीशक्ति का एक उदाहरण देना होगा तो मैं बिना देर लगाए इनका नाम लूंगी(हालांकि यह मेरी दिली तमन्ना है कि उन्हें अपने क्रोध पर अब नियंत्रण कर लेना चाहिए)
वास्तव में अपने कनिष्ठ और समकक्ष सहकर्मी से किसी संस्थान में किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, यह इनसभी.ने भलीभांति मुझे सिखाया।
मेरे तीन साल की इस यात्रा के सहभागी  मेरा परिवार, दोस्त,अनेक आत्मीय हैं जिनके कारण मैं आज यहां तक पहुंची और ये तीन वर्ष उनके विश्वास और मोहब्बत के दम पर पूरे कियें।पर इन तीन वर्षों में जो महाविद्यालय में मेरे साथ यात्रा की शुरुआत किये,वे यह दोनों हैं।सो उन्हें अपनी कलम से सम्मान देकर मैने अपना मान बढ़ाया कुछ शायद!(यद्यपि विश्वविद्यालय नियुक्ति आज़ के दिन मेरे दो और साथियों संग हुई थी, हम एक ही संस्थान से थे,डाक्टर कल्पना और डाक्टर रमेश।रमेश,इसपर लिखने के लिए इतना कुछ है कि जब इनपर लिखना हो तो केवल इन्हीं पर लिखना पड़ेगा।)ईश्वर सभी नौकरीशुदा लोगों को ऐसे सहकर्मी दें।बाद के आए सभी साथी प्यारे हैं,ईश्वर सभी को ऐसे सहयात्री दें।।
अंत में बस इतना ही युवावर्ग के लिए कि पहली नौकरी छोड़ने के उपरांत जब सबकुछ सरल,सहज नहीं रह गया था,तब एकदिन मात्र 90 रूपये लेकर घर से निकले थे हास्टल के लिए,यही गीत गाते…
“मैं एक भंवरा छोटे बगीचे का,मैने ये क्या कर डाला?जंगल से आती खुश्बू लपक ली,हया हो गया लापता!
क्या बनूंगा मैं एक दिन सितारा?
या रहूंगा मैं बेचारा?
और आज चंद हजार कदमों की दूरी पर हैं 90 हजार की सैलरी से तो सितारा भले न बन पाई होऊं,बेचारी तो नहीं ही हूँ( यह अभिमान का प्रदर्शन नहीं बल्कि एक संदेश देने की कोशिश भर है)।कहने का अर्थ यही है कि सपने देखिए,अपने सपने को जिएं,और किसी भी परिस्थिति में ईमानदारी का साथ न छोड़ें।हां,मंजिल के चयन में ईमानदारी बरतना भी अतिआवश्यक है।।
इति त्रिवर्षीयःयात्राःवृतांत समाप्तः।।

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