यद्यपि बेवजह की भीड़ में रहना कभी भाया नहीं।या तो आत्मीयजन हों पास या अकेले रहना ही भाता रहा मन को।किंतु तब भी यह निश्चित कर पाना कठिन है कि यह एकांत स्वेच्छा से चयनित है या अवसादजनित!यह अकेलेपन के मार्ग पर चलने का निर्णय स्व की चाहना है या परिस्थितिजन्य?
कभी-कभी यह एकांत इतना भाया है कि इसकी सहारे मैं स्वयं को खोजने के प्रयास में लग जाती हूँ।तब इस स्व की खोज में दीपक बनते हैं कभी पुस्तकें,कभी अतीत में की गई यात्राओं की सुखद स्मृतियां,कभी खेलों के प्रति दीवानगी से उपजी बचपन की कुछ छोटी-छोटीघटनाएं,कभी अहं से ग्रस्त अपनी उपलब्धियां,कभी इष्ट-मित्रों की सह्रदयता के किस्से तो जीवन के कठिनतम क्षणों में किसी अनजान द्वारा की गई सहायता के कुछ किस्से।स्मरण हो आता है कि मैं जिस शहर में पली-बढ़ी,उसके नाम में ही है रस--बनारस।मानो जैसे शहर न हो,जीवनरस हो।यद्यपि लोग बहुधा यहा मुक्ति की कामना लिए आते हैं।किंतु मुक्ति उसे ही उपलब्ध है जिसे जीवनरस मिल चुका हो।कभी यह स्मृतियां मुझे ले जाती हैं सुख-संतोष-जीवंतता के पंखो पर बैठा बनारस की गलियों से गुजरते हुए महामना की बगिया में।जहां प्रकृति तमाम भवनों-इमारतो के बाद भी जैसे समाधिस्थ है जो आपको अपने मोहपाश में जकड लेने को आतुर हो।उस तपोभूमि के अनेकों राहों के किसी मोड के किसी तिराहे पर बने चबूतरे पर बेवजह बैठ जाने पर महसूस होता है मानो ये निष्कलुष प्रस्तर मेरे ह्रदय को भी निष्कलंक कर देना चाहती है।
इसी निष्कलुषता के आश्रय से पहुंच जाती हूं सोनारपुरा स्थित गौरीकेदारेश्वर मंदिर में,जहां दर्शन करने के उपरांत बढती हूं केदारघाट की ओर खुलने वाले द्वार की ओर तो समक्ष मां गंगा के अनुपम सौन्दर्य को देख थम जाती हूं दरवाजे पर ही और यह विश्वास करती हूं किपुण्यात्माओं के लिए स्वर्ग का द्वार कुछ ऐसे ही अप्रतिम-अनुपम सौन्दर्य के साथ ही खुलते होंगे!
मैं वहीं से झट पहुंच जाती हूं नैनी झील के किनारे चांदनी रात में अकेले बैठे हुए, कभी ठंडी सड़क पर टहलते हुए।खैर,अबकी खूब फुर्सत में नैनी झील को निहार रही थी तो अहसास हुआ कि जीवन के सब नाते नदी की तरह होते हैं- बहते हुए!और एकबार जो आगे बढ गया,वह भला पीछे कहां लौटता है!नदी और नातों का स्वभाव एक जैसा है।यदि जीवन में नदी नहीं बन सकते तो सब व्यग्रता-व्याकुलता-कटुता भीतर समोए हुए पहाड़ की तरह धैर्य धारण कर चुपचाप साक्षीभाव से बस सबकुछ बहते हुए देखने का अभ्यास ही जीवन है।पहाड़ इतने ऊंचे हुए हीं इन नदियों-झीलों के कारण।
मैं विगत यात्राओं की अनेकों राहों से गुजरते हुए अचानक चढने लगती हूं संकटमोचक के दर्शन हेतु जाखू मंदिर की सीढ़ियां।कि अचानक दम फूलने लगता है और मैं कोई कोना तलाशती हूं जहां दम भर सकूं लोगों की दृष्टि से बचकर।इस थकावट में मन में प्रश्न उठता है कि जीवन अपने विविधता भरे किंतु ह्रदय को निर्मल करने की अपेक्षा तप्त-क्लांत कर देने वाले अनुभवों की सीढी पर चढाते-चढाते आखिर क्या दिखलाना-बतलाना सिखाना चाहती है?और अचानक विगत सब स्मृतियों को अवसाद का कुहासा पुनः ढंक लेता है।आत्मीयजनों के बिछुड़ने से उपजी विकल-वेदना काली बदली बन जीवन के सूर्य पर ग्रहण सा लगा देती है।कोई ज्योतिषी बताता भी नहीं कि इस ग्रहण का का अंत होगा भी या नहीं!जो हो तो किस विधि और कब होगा!प्रश्नों-आशंकाओं-भय के बाण रह-रहकर देह-मन-आत्मा को बिंधने लगते हैं और पुनः वर्तमान की पथरीली जमीन पर आ गिरती हूँ।
फोटो आज ही के दिन की चारवर्ष पूर्व खींची गई,दशाश्वमेध घाट से।
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