जीवन को जिये जाने की अनेक प्रकियाएं हैं/हो सकती हैं।एक यह कि संसार में रहकर हम इस संसार से जुड़े रहें,जैसा कि प्रायः यही सर्वमान्य तरीका है।पर इस प्रक्रिया में हम बहुधा दुख,अवसाद और अकेलापन ही पाते हैं क्योंकि हम जुड़े होते हैं वस्तुतः अपनी उम्मीदों, आकांक्षाओं, और खुद को श्रेष्ठतर सिद्ध करने की अंधी दौड़ से।
एक यह मार्ग हो सकता है कि हम संसार में रहें तो,पर जुड़े नहीं या सिर्फ अपने आत्म से जुड़े…हद दर्जे के स्वार्थी बनकर,आत्मकेंद्रित होकर और वस्तुओं के साथ इंसान को भी मात्र सीढ़ी बनाकर।ये रास्ता खुद को दुख तो नहीं देगा पर शुकुन शायद यहां भी न मिले।और ये एक आत्मघाती मार्ग बन सकता है तब जब अपनी आंकाक्षा पूरी न हो और तसल्ली के दो शब्द कहने वाला कोई नहीं हो।और यदि किसी का अन्तर्मन तनिक भी जागा है तो संभवतः ऐसा नहीं कर पाये।और इस तरह का जीवन जीना मानवीय अस्तित्व का सबसे कुरूप चेहरा बनाने जैसा होगा।।इससे अच्छा है प्रेम में पागल हो जाना, किसी करीबी से पीठ पर छूरा घोंपवा लेना,या कैरियर में असफल होकर शायद अपने परिवेश से कट जाना।।यह अधिक से अधिक एक दारूण चित्र बनायेगा
एक और प्रक्रिया शायद यह हो सकती है कि संसार में रहकर,अपनी उम्मीदों, आकांक्षाओं, हर तरह के भय (विशेषकर कैरियर और प्रेम की असफलता से उपजा भय) से विलग होकर और तब फिर संसार से जुड़ना हो।। इतना आसान नहीं है इस तरह का जीवन अपनाना, पर बार-बार गिरने,टूटने, बिखरने,को यदि आप तैयार हैं,तब तो ठीक है।यदि आप अपनी पीड़ाओं, अवसाद, दुख और असफलता को कंधे पर उठाए चल सकते हैं,तब तो ठीक है।और नहीं तो इनसे निजात पाने के लिए इस रस्ते पर चलने की शुरुआत तो करनी पड़ेगी।।क्योंकि यह भी तो निश्चित नहीं कि मृत्यु के उस पार कोई जीवन नहीं है! जो हो तो एक ही जीवन के एक ही कैलेंडर के कुछ माह ने ही मानव जाति की सीमितता बड़ी बेरहमी से दिखा दी!जो और जीवन हों तो न जाने कैसे कैसे दिन देखने पड़ें!और फिर जो जीवन हो भी तो ये मानवीय रूप हो या नहीं।।और कोई जो चार्वाक की भांति कहे कि यही चार भूतों से निर्मित शरीर ही एकमात्र सत्य है और जो एकबार इस चतुर्भूतों का विघटन हो गया तो फिर उन भूतों के कभी किसी क्षण विशेष संयोग होने पर वही शरीर, उस शरीर में पहले वाली व्याप्त वही चेतना थोड़े न इकट्ठा होंगी!तब तो स्थिति और भी दारूण है!एक ही जीवन के कुछ वर्षों के लिए हम ऐसे दौड़ लगाते हैं मानो अनंत काल तक जीना है, अनंत काल तक जीने के लिए बटोरना है।समय भागा जा रहा है, हम जितना तेज़ दौड़ सकते हैं, दौड़ लें।पर एक नन्हे से अदृश्य जीव ने ऐसा ब्रेक लगाया है जो शायद यह बताना चाह रहा हो कि बीतता समय नहीं, बीतते हम हैं।हम बीत जाएंगे दौड़ लगाने में ही।तो क्यों न रूकें!क्योंकि बिना दौड़े भी हम जी सकते हैं, हम चलेंगे, तब भी जी लेंगे।शायद तब और बेहतर ढंग से जी सकें।और शायद इस ढंग से जीने में वह राह भी मिल जाए,जो हमें बार बार गिरने,टूटने, बिखरने से बचा सके!जो हमारे अस्तित्व को कोई गरिमामयी पथ पर अग्रसर कर सके!जो हमें “आत्मदीपो भवः”का ‘दीप’ बना सके।”आत्मानं विद्धि” का संधान कर सके।”अहं ब्रह्मास्मि” के अहं और ब्रह्म के भेद को जान सके,मिटा सके।भाषा की इस सीमितता को भी पार कर जाए!।
तो क्या इस अविस्मरणीय लाकडाउन हम किसी ऐसे मार्ग की खोज़ कर सकते हैं!;जो मिल जाए वह राह,तो उसपर चलने की शुरुआत कर सकते हैं ! क्योंकि अन्ततोगत्वा रिक्त तो होना ही है तो क्यों न शून्य की तरह रिक्त होने के बजाय ब्रह्मत्व की तरह,बुद्धत्व की तरह रिक्त हों।।
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