बुद्ध कहते हैं 'सर्वं दुखम्'।इसकी व्याख्या में आगे बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेखित है कि प्रिय से वियोग,अप्रिय से संयोग दुख ही तो उत्पन्न करता है।यही नहीं,हम जिसे आज प्रिय समझते हैं,वह भी कल दुःख का कारक बन जाता है।जैसे कल से आरंभ हो रहा अगस्त। क्योंकि यह भी रीत जाएगा बीते हुए लम्हों की कसक जगाकर। अगस्त कि भरोसा जगता है कि उमस भरे मौसम से कुछ राहत मिलेगी।अगस्त कि त्यौहारों का मौसम आ गया है,यह सूचित करता हुआ।अगर किसी एक माह को मुझे वर्ष के बारहो माह में चुनना हो तो मैं झट अगस्त को चुन लूंगी।धरती,जब अपनी हरितिमा में इठलाती है।कौन बहता है,कौन संभलता है,की चिंता छोड जब-तब अपने यौवन के पूरे उफान को कभी छूती है।कभी मारे क्रोध के मनुष्यों को बताती है कि संयम रखना सीखो!अन्यथा पानी की एक बौछार बहुत है हम मनुष्यों को अपनी औकात बताने के लिए। किंतु अगस्त अब बुद्ध का पाठ पढाते आता है जीवन में कि जो भी प्रिय था,जिनसे खुशियों के क्षण चुन चुनकर एक हार बना रही थी,जिसे जीवन के कठिनतम माह में पहन सकूं,वह हार बन ही न पाया। बन भी नहीं सकता क्योंकि जीवन में कोई भी हार दुख के बिना, विषाद के
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