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Showing posts from July, 2021

अगस्त...

  बुद्ध कहते हैं 'सर्वं दुखम्'।इसकी व्याख्या में आगे बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेखित है कि प्रिय से वियोग,अप्रिय से संयोग दुख ही तो उत्पन्न करता है।यही नहीं,हम जिसे आज प्रिय समझते हैं,वह भी कल दुःख का कारक बन जाता है।जैसे कल से आरंभ हो रहा अगस्त। क्योंकि यह भी रीत जाएगा बीते हुए लम्हों की कसक जगाकर।  अगस्त कि भरोसा जगता है कि उमस भरे मौसम से कुछ राहत मिलेगी।अगस्त  कि त्यौहारों का मौसम आ गया है,यह सूचित करता हुआ।अगर किसी एक माह को मुझे वर्ष के बारहो माह में चुनना हो तो मैं झट अगस्त को चुन लूंगी।धरती,जब अपनी हरितिमा में इठलाती है।कौन बहता है,कौन संभलता है,की चिंता छोड जब-तब अपने यौवन के पूरे उफान को कभी छूती है।कभी मारे क्रोध के मनुष्यों को बताती है कि संयम रखना सीखो!अन्यथा पानी की एक बौछार बहुत है हम मनुष्यों को अपनी औकात बताने के लिए।          किंतु अगस्त अब बुद्ध का पाठ पढाते आता है जीवन में कि जो भी प्रिय था,जिनसे खुशियों के क्षण चुन चुनकर एक हार बना रही थी,जिसे जीवन के कठिनतम माह में पहन सकूं,वह हार बन ही न पाया। बन भी नहीं सकता क्योंकि जीवन में कोई भी हार दुख के बिना, विषाद के

ईश्वर के नेत्रों की अश्रु हूँ,तुहिन बिन्दु हूं...

  ईश्वर के नेत्रों की अश्रु हूँ,तुहिन बिन्दु हूं... सकल ब्रम्हांड जिसमें सिमट जाए,वेदना की वह कृष्ण विवर हूं। वह मौन हूं जहां तक वाणी अगम्य है, उस मौन को कहने के फेर में रच गई प्रपंच हूं। कारण तक पहुंच करूँ मुक्ति का उपाय,उससे पहले विज्ञानमयकोश द्वारा खींच ली जाती हूं। आनन्द मय कोश तक पहुंच कर भी, पिपलिका की भांति आनन्द से चिपकी ही रह जाती हूं। मनोमयकोश में डोलती,अन्नमय तक ही रह जाती हूं। बुला लेते हैं प्रारब्ध मेरे,और वासना के पंख उस कोश पर चिपका हुआ छोड, पुनः रचती हूं नववासनामय संसार। मात्र प्रज्ञ हूं,किन्तु असार हूँ। स्थूल से सूक्ष्म तक चक्कर काटते व्याकुल हूं,आकुल हूं, किन्तु सुषुप्ति तक पहुंच नहीं,तुरीय को साधने की फिर क्या बात हो। द्वैत की चाह में अद्वैतीभाव भी विलीन हुआ सा, न द्वैत से सामंजस्य,न अद्वैत की साधना। प्रकृतस्थ हो गतिशील होकर भी जड़ हूँ, चेतन होकर भी पुरूषत्व सुप्त है,जबकि   कहीं न आना न जाना। सच्चिदानंद हूं,किन्तु जाने किस मोह में मायापति बनी, फूट पड़ा जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड,मोह का वह आरंभिक बिन्दु हूँ, ईश्वर के नेत्रों की अश्रु हूँ,तुहिन बिन्दु हूं।।

गुरूपूर्णिमा...

  माता-पिता के बाद जीवन में कुछ संबध इस अनिर्वचनीय जगत में ऐसा मिल जाए जो चित्त को निर्मल-निष्कलुष कर दे,जिसके समीप केवल बैठने भर से चित्त की ग्रन्थियां खुल जाएं,जिसका संकल्प मात्र ही इतना पूर्ण हो कि उसके चाहने भर से वह संकल्प घटित हो जाए,उनमें एक गुरु-शिष्य संबंध है।                      आज जबकि मैं एक शिक्षक हूं तो सोचती हूं मुझे एक शिक्षक के रूप में कैसा होना चाहिए!निःसंदेह आप जैसा होना चाहिए। किन्तु समस्या यह है कि अब भी मुझमें कर्त्तापन का भाव है।मुझे यह भ्रम है कि मैं कुछ किसी को सीखा-बता सकती हूं,यह जानते हुए कि सिखाने का प्रयत्न करना मात्र एक भ्रामक स्थिति में स्वयं को रखना है।जो वास्तविक गुरू होता है,उसे सिखाने के लिए प्रयत्न नही करना होता।जैसे आपने कभी प्रयास नहीं किया हमसब गुरूभाई-बहनों को कुछ बताने-सिखाने का।किन्तु हमसब जीवन में अपने पैर पर खड़े हैं और जैसे भी हैं,संतुष्ट हैं।और यह मात्र आपके सद्संकल्प का प्रताप है।उस ब्रह्म की तरह जिसके चाहने मात्र से सृजन हो जाता है।                जब कोई लेखन की प्रशंसा करता है,मुझे स्मरण हो आता है आपकी दी हुई स्वतंत्रता,शोध के समय अप

कोने में पड़ी कंपकंपाती चिट्ठियां'

  पत्र लिखना उसके प्रिय कार्यो में से एक था।भूल यह हुई कि लिखते समय अपना ह्रदय खोलकर रख देती कि पढ़ने वाला उसकी आंच को बर्दाश्त कर सके!उसकी कोमलता को सम्भाल सके!और शब्द दर शब्द उन्हें ऐसे पलटे कि पलटे जाने का शोर पढने वाले के सीने में किसी चक्रवात सा उठे किन्तु इस तरह सहेज भी सके कि दूसरा उस शोर को सुन न सके। लिखते समय वह बराबर इस बात का ध्यान रखती थी कि पढने वाले को जब कोई शब्द या वाक्य इतना नम लगे कि उसके नेत्र भी सजल हो सकें तो अगला कोई काॅमा, किसी वाक्य का मोड ऐसा हो कि आगे के वाक्य, शब्द की सजलता के साथ पढने वाले की नेत्रों की नमी भी सोख ले और अगला कोई वाक्य, कोई शब्द खिल उठे बसंत की तरह। और यह बसंत उसके ओंठो पर बिखर कर अपने पूरे यौवन को प्राप्त कर सके। उन अनगिन पत्रों के कोई वाक्य बुद्ध की मुस्कान जैसी थी तो कोई वाक्य सांख्य के विवेकज्ञान के जैसे!कोई शब्द, कोई वाक्य अपने एकांत के साथ थी किन्तु उसका यह एकांत इतना सम्पूर्ण था जैसे अद्वैत का ब्रह्म। कोई वाक्य यथार्थ को पूरे निर्ममता के साथ स्वीकार करना बताने वाला भी रहा तो कोई वाक्य ऐसा भी था जिसने कहा कि कभी-कभी कोई चोट मात्र एक च

व्याघात संबंध...

बेतरतीब किताबों, बिखरे पन्नों, खुले कलम के बीच जबकि बिस्तर पर आधा जगह इन सबने घेर रखा हो और तमाम ऐकैडमिक कार्यों की वक्त से लम्बी लिस्ट सामने  से  दबाव बनाये हुऐ है कि इन्हें किसी भी तरह तय समय पर पूर्णता चाहिए ही और मैं भी ख्वाब ही देख रही थी कि मैं जिंदा रहूँ तो भी किताबों के बीच,मरूं भी तो इन्हीं के बीच।डरती हूं कोई किताब जो बिस्तरे पर बिखरी है,मेरे पैर छू न जाय उनसे,तब भी जितना हो सके सजा दूं घर,आलमारी,मेज, खिड़की, बिस्तर को केवल और केवल किताबों से कि शायद सार्त्र के इस वक्तव्य का कि “मानव जीवन जीने के लिए अभिशप्त है”का जवाब ढूंढ सकूं बृहदारण्यक के ऋषि  के उद्घोष मे कि “अहं ब्रह्मास्मि” ।तब भला! मै क्यूं अभिशप्त बनी रहूँ जीवनभर।और यह भी कि ब्रह्म होने से पहले जान पाऊँ कि  “स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है” और यह भी कि ये जानते हुए भी सिमोन ने किस भांति भला प्रेम किया और निभाया इस तरह प्रेम को कि जैसे अपने सिद्धांतों को ही सच करने के फेर मे किया गया था प्रेम,और ये भी भगीरथ प्रयास कर पाऊं  कि काफ्का की तलाश को लुम्बिनी के वनों मे ले जाकर खत्म करूँ, कि शोपेनहावर की पीड़ाओं का अंत सा

अजनबीपन...

जब कभी निकलती हूं कमरे से(वैसे अब यह निकलना भी बहुत कम ही होता है)सब्जी लेने या कोई घर का सामान;रास्ते में पडने वाले घरों की छतों पर,बरामदे में खड़े पुरूषों,उनके बराबर खड़ी महिलाओं,बरामदे में फोन पर बतियाती लड़कियों और गली क्रिकेट खेलते लड़कों-बच्चों को देखती हूं तो लगता है जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हैं,मैं किसी और दुनिया की।सबकुछ अनजाना,अनचिन्हा लगता है।इतना अनचिन्हा कि लगता है न वो मुझे पहचानते हैं न मैं उनको।वो अलग बात है कि हमदोनो एकदूसरे को पहचानने का पूरा प्रयास करते हैं।किन्तु यह प्रयास मेरे संकोची प्रवृत्ति के कारण प्रायः असफल ही रहता है।मैं इस बात से भय खाती हूं कि गलत समझा जाना मेरी नियति है।बस मैं इस गलत समझ जाने और होने से परे होकर मर सकूं,इसी प्रयास में सब प्रयास विफल रह जाते हैं।यूं तो मैं उन लोगों के प्रति आभारी हूं जिनसे मैने एक शब्द भी कभी बात नही की,फिर भी वो जाने क्या समझकर मेरी प्रशंसा कर देते हैं।निःसंदेह यह सामने वाले मन की उदारता का परिचायक है।                     कमरे से निकल गलियों,सड़कों से होते हुए बाजार तक जाने पर ऐसा लगता है जैसे मैं इस पूरी दुनिया को,इ
  गमला मात्र फूलों से भरा नही है,इसके चारों ओर बिखरा हैं अम्मा का आंचल।इसकी मिट्टी में बसी है उनके पायल की धुन।धुन जो आंगन से होते हुए ओसारे से रसोई तक एक लय में गतिशील,मानो साधना में मगन किसी योगी की सांसो की निर्मल धुन हो।इसके डंठल पर अब भी है उनके हाथों के स्पर्श,जैसे मेरे गाल पर रह गई है उनकी आखिरी छुअन।पूजा के लिए अर्पण होने जाते फूलों पर है एक शरारत भरी मुस्कान,जो अम्मा के मुझको लगाए गए डांट से उनके गालों पर खिली थी।जो खिल न पाएं है उन कलियों पर अब भी धरे है अम्मा की चिंताएं।चिंताएं,जो सब दुश्वारियों के बाद भी जीने का आधार थीं। फूलों से भरा गमला मात्र नही है,यह ड्योढी पर बैठकर प्रतीक्षा में रत सुषुप्ति और जाग्रत का संधिस्थल है।जिससे पार जाकर एक बार पुनः जीवन वहां आकर ठहरता है,जहां अम्मा हैं,उनकी गुड़ से मीठी 'बच्ची पुकारती' बोली है,बाबूजी का मंजन हाथ में लिए मौन है,आश्वस्त सी करती कि अब कहकर देखूं मैं अपनी,वह सुनेंगे और समझेंगे।गांव की सहेलियां हैं,भर दुपहरिया रास्ते की धूल फांकते।पेडों-डालों से तोड़े गए कच्चा पपीता,अमरूद-आम है।घर लौटने पर शंका से भरा मन है कि किसी ने दे

छत

  छत पर आना दुखों से भर जाना होता है, जब सुबह का सुहाना मौसम भी डसने लगे, हवा छिड़कने लगे नमक जख्मों पर, छांव जलाने लगे बदन को, फिर भी… कुछ पंछी उड़ते देखा, कुछ आस बंधी, सब तुम्हें पुकारते हैं कि तुम मुझे पुकार रहे हो, पता नहीं चलता! और फिर सुनकर मेरी खामोशी, सब आवाजें चीत्कार मे बदल जाती हैं। सच मे,छत पर आना दुखों से भर जाना है। सोचा छत को पीठ का सहारा दूं याद आया.. सबसे अधिक घाव पीठ पर ही हैं। पहली बार जाना टिमटिमाते सितारे दरअसल सिसकियां लेते हैं, उजाला चांद का,है उसके दुख का विस्तार, मैं और चांद नजरें नहीं मिलाते एक दूसरे से अब, हम जान गए हैं एक दूसरे के सब राज। फिर भी कुछ लोग आते हैं छत पर, टहलते हैं, बातें करते हैं, मुस्कुराते हैं, रोते हैं, कुछ कूदकर मर जाते हैं। मेरे घर की छत उंची नहीं है, एक ही चीज उंची हो सकती थी, या कि छत या कि जमीर।

देह दान_____________

  मेरे बटुए में कुछ चीजें हमेशा रहती हैं, जैसे-एक पहचान पत्र, एटीएम कार्ड,एक फोटो,कुछ रूपये।रूपये इतने,कि गलती से अगर किसी को बटुआ हाथ लग भी जाए तो सिवाय गाली के कुछ न देगा। और एक कार्ड,जिसपर अंकित है कि मैने अपने सभी अंगों को और पूरी देह को दान कर दिया है।यह इसी कारण हरदम बटुए में पड़ा रहता है कि कभी मृत्यु आए तो कोई अंग खराब होने से पहले किसी आत्मा के देह रूपी वस्त्र के लिए काम आ सके। यूं अचानक ख्याल आया कि क्या देह की भी स्मृति होती है!उसे भी याद होगा कोई आत्मीय स्पर्श!किसी प्रिय के गले लगने पर बस गई होगी आत्मा के साथ उसके देह में भी उसकी गंध! नहीं पता।कुछ भी तो नहीं पता। लेकिन देह और चेतना का जो मेल ‘मेरे’,’मैं’ के रूप में है,इससे पहले कि बिछुडे, यही चाहत मैं हर अंग में भर देना चाहती हूं कि मेरी आंखें जब खुले कहीं और, तब देखे प्रकृति को सहचरी के रूप में।देखे हर इंसान को करूणा की निगाह से।मुक्त रहे नज़र की वासना से। ह्दय बना रहे सह्रदय।बस जब तब निकाल कर मत रख दे हर किसी के सामने। ये भी कि मत बलिदान कर देना इसे अब  मित्रता के नाम पर कि विकल्प हो मित्र या सांप को दूध पिलाने का,तो सांप क

मेरे भीतर एक काफ्का रहता है…

  मेरी माँ ने तो कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया जिससे घबराहट साये की तरह मेरे साथ हो जाए।बल्कि जब घबराए तो सब निशान मिटा दिए घबराहट के।  एक बार याद है जब मैं 20-21 साल की थी,माँ खाना बना रहीं थीं और मैं चाय बनने की जल्दी में चूल्हे के पास बैठी थी,उसने मुझसे नमक का डिब्बा बंद कर रखने को कहा,न जाने क्यों बार बार ढक्कन खुल कर गिर जाता,माँ ने डाँटा।मैंने चिढ़ कर कहा हो जाता है कभी-कभी, इतना भी क्यूँ गुस्सा होना!शायद मैं नींद में थी दिन के 9 बजे! फिर एक दिन दूध गिरा दिया मैंने पूरा।मैं तब बहुत डरी घबराई थी कि बहुत ही डांट सुनने को मिलेगी पर वह चुपचाप उठी जबकि दोपहर में वह एक घंटे आराम करती थी,उसके आराम में खलल पडा,किन्तु बिना एक शब्द बोले उसने जमीन पर दूध के एक कतरे का निशान न रहा,इस तरह साफ किया।मुझे लगा अब बिगड़ेंगी,पर फिर वह चुपचाप सो गई।अब मुझे दूसरी चिंता ने जकड लिया की शाम में चाय कैसे बनेगा और फिर सबको दूध के नुकसान का पता भी चल जाएगा, पर चाय ठीक बनने से पहले न जाने कब उसने दूध घर में लाकर रख दिया था,और कोई बात भी नहीं हुई दूध के नुकसान की।शाम में पिता की कटोरी में भी दूध था रोटी से खाने

कर्मशील जीवन,वेदांत दर्शन और स्वामी विवेकानंद…

  कोई सिद्धांत बिल्कुल ठीक,तार्किक,तथ्यात्मक होने पर भी यदि कार्यरूप में परिणत न हो तो बौद्धिक व्यायाम ही होता है वह।और जीवन पथ पर चलने के लिए फिर इस प्रकार के सिद्धांत का कोई और मूल्य भी नहीं रह जाता।अतः जीवन के कर्मरूपी दर्शन में सधने के लिए हर प्रकार के विचार दर्शन को धरातल पर उतरना ही होगा।केवल यही नहीं, आध्यात्म हो कि भौतिकवाद, आदर्श हो कि व्यवहारवाद,इनके बीच के भेद को भी मिटा सके।एक सिद्धांत वही सर्वथा अनुकूल है मानव जीवन के, जो इनके मध्य के अंतर को ठीक ठीक पाट सके।पर्वत, गुफाओं, जंगलों में से जन से भरे नगर में तो आना ही होगा सिद्धांत को, उसे विचार से कार्य रूप में भी परिणित होना पड़ेगा।कोई सिद्धांत या मत अथवा विचार उतने ही अंश में सर्वोत्कृष्ट है जो संसार के मनीषियों के सांसारिक कर्मों में परिलक्षित हो पाए। इसका सर्वोत्तम उदाहरण स्वयं  आचार्य शंकर,चाणक्य  तथा इनके जैसे अनेक अन्य मनीषियों, चिंतकों, का जीवन रहा।और इसी बात का संसार को उपदेश देते हैं,  संग्रामस्थल के मध्य गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ।प्रत्येक श्लोक में मानो यही स्वर ,यही उपदेश है-कर्मण्यता का।यही वेदांत का पाठ

ईश्वर,रंग-रूप,प्रेम,मित्र…

  मैं इसी भय से ही तो  ईश्वर  को स्वीकारे हूं,जबकि मैं जानती हूं कि दर्शन में जितने तर्क ईश्वर की सिद्धि के लिए है उतने ही उसके असिद्धि के लिए भी है। विज्ञान,मानो न मानने वाले का ही सहायक है और मेरी श्रद्धा! वह कभी भय मुक्त होती है या नहीं, मुझे नहीं पता ठीक ठीक।इसलिए मैं जानती हूं मेरी श्रद्धा में ये मेरे भय, मेरे घबराहट की मिलावट है जो उसको माने है। जबकि यह लिखते वक्त भी मैं डर रहीं हूं कि वह हो और यह पढ़कर कहीं गुस्से में मुझे उन संकटों में पड़ने पर फिर से न निकाले तो, जिनसे उसने कई बार मुझे निकाला है!  मैं ऐसे ही हमेशा संशय ग्रस्त रहती हूँ।वह कभी भूले से दिखता भी तो नहीं।जैसे  प्रेम! कहाँ दिखता है,हम केवल कहते हैं।विभिन्न तरीकों से, व्यक्त करते हैं प्रेम को।तभी तो बार-बार कहने-बताने के बाद भी कहते हैं।मानो शब्द शब्द नहीं होते, सेतु हों। कि एक के हृदय के भावों को दूसरे के हृदय तक पहुचाने वाले मजदूर हों।हम दिखा कहाँ पाते हैं प्रेम को,प्रेम की सच्चाइयों को।कितना प्रेम है,कहाँ दिखा पाते हैं हनुमान जी की तरह सीना चीरकर कि देखो मेरे हृदय में तुम ही तो हो।तभी तो एक दिन प्रेमी कहता है अब म