जब कभी निकलती हूं कमरे से(वैसे अब यह निकलना भी बहुत कम ही होता है)सब्जी लेने या कोई घर का सामान;रास्ते में पडने वाले घरों की छतों पर,बरामदे में खड़े पुरूषों,उनके बराबर खड़ी महिलाओं,बरामदे में फोन पर बतियाती लड़कियों और गली क्रिकेट खेलते लड़कों-बच्चों को देखती हूं तो लगता है जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हैं,मैं किसी और दुनिया की।सबकुछ अनजाना,अनचिन्हा लगता है।इतना अनचिन्हा कि लगता है न वो मुझे पहचानते हैं न मैं उनको।वो अलग बात है कि हमदोनो एकदूसरे को पहचानने का पूरा प्रयास करते हैं।किन्तु यह प्रयास मेरे संकोची प्रवृत्ति के कारण प्रायः असफल ही रहता है।मैं इस बात से भय खाती हूं कि गलत समझा जाना मेरी नियति है।बस मैं इस गलत समझ जाने और होने से परे होकर मर सकूं,इसी प्रयास में सब प्रयास विफल रह जाते हैं।यूं तो मैं उन लोगों के प्रति आभारी हूं जिनसे मैने एक शब्द भी कभी बात नही की,फिर भी वो जाने क्या समझकर मेरी प्रशंसा कर देते हैं।निःसंदेह यह सामने वाले मन की उदारता का परिचायक है।
कमरे से निकल गलियों,सड़कों से होते हुए बाजार तक जाने पर ऐसा लगता है जैसे मैं इस पूरी दुनिया को,इस शहर को कहीं बाहर से,कहीं एक ऐसी जगह से देख रहीं हूं जिस दुनिया की खबर इस दुनिया को नहीं है।फिर भला ये लोग मुझे कैसे जान सकेंगे!मुझे स्वयं को पहचानने का प्रयास करना पड जाता है,कभी ऐसा भी हो जाता है।मुझे याद दिलाना पडता है कि मैं कौन हूं,कहां और क्यों हूं।संभवतः यह पढते हुए किसी को लगे कि ऐसा कैसे हो सकता है!यह गल्प मात्र है।किन्तु मैं उस स्थिति को ठीक-ठीक शब्दो में नही लिख सकती कि ऐसा भी होता है कभी कि मैं स्वयं के लिए अजनबी बन जाती हूं और बहुत जतन से मुझे खुद को पहचानना होता है।यह तो गल्प नही;किन्तु मुझे ही यह गल्प कभी-कभी लगता है कि मैं स्वयं को स्वयं की पहचान बताने में असमर्थ हो जाती हूं और अपनी इस मूर्खता भरी असफलता पर मुस्कुरा कर कमरे पर लौटकर किसी काज में स्वयं को व्यस्त कर लेती हूं,जैसे-एक कप चाय बनाकर घूंट लगाते चाय संग अपने अजनबीपन को भी पीते जाना या कभी खरीद कर साथ लाए गए पान को मुंह में घुलाते रहना,जब तक कि सबकुछ सामान्य न लगने लगे।
ऐसा नहीं है कि ऐसी मनःस्थिति घर से निकलने पर ही हो!अपने कमरे पर ही एक कमरे से दूसरे कमरे पर जाने पर लगता है जैसे मैं अपने कमरे,कमरे में रखी प्रत्येक वस्तुओं के लिए भी अजनबी हूं।यहां तक कि जब कई दिन हो जाते हैं कोई पुस्तक उठाए तो उन्हें छूने पर भी अजनबीपन सा अहसास होता है।वो भी मानो एक अनजान स्पर्श से चिहुंक जाते हैं।
नोट: यह भाव जाने कितने दिनों से मन में पक रहे थे।समझ न आता था क्या समझूं इस स्थिति को और किस विधि व्यक्त करूँ!निर्मल वर्मा की 'एक चिथडा सुख' के आरंभिक दो अध्याय ने ही बडी सहायता की कि इस अजनबियत को शब्दरूप में अपने सामने रख सकूं।यह सुंदरता है भावो के रंगो से चित्रकारी करने वाले चितेरे लेखक की।
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