ईश्वर के नेत्रों की अश्रु हूँ,तुहिन बिन्दु हूं...
सकल ब्रम्हांड जिसमें सिमट जाए,वेदना की वह कृष्ण विवर हूं।
वह मौन हूं जहां तक वाणी अगम्य है,
उस मौन को कहने के फेर में रच गई प्रपंच हूं।
कारण तक पहुंच करूँ मुक्ति का उपाय,उससे पहले विज्ञानमयकोश द्वारा खींच ली जाती हूं।
आनन्द मय कोश तक पहुंच कर भी,
पिपलिका की भांति आनन्द से चिपकी ही रह जाती हूं।
मनोमयकोश में डोलती,अन्नमय तक ही रह जाती हूं।
बुला लेते हैं प्रारब्ध मेरे,और वासना के पंख उस कोश पर चिपका हुआ छोड,
पुनः रचती हूं नववासनामय संसार।
मात्र प्रज्ञ हूं,किन्तु असार हूँ।
स्थूल से सूक्ष्म तक चक्कर काटते व्याकुल हूं,आकुल हूं,
किन्तु सुषुप्ति तक पहुंच नहीं,तुरीय को साधने की फिर क्या बात हो।
द्वैत की चाह में अद्वैतीभाव भी विलीन हुआ सा,
न द्वैत से सामंजस्य,न अद्वैत की साधना।
प्रकृतस्थ हो गतिशील होकर भी जड़ हूँ,
चेतन होकर भी पुरूषत्व सुप्त है,जबकि
कहीं न आना न जाना।
सच्चिदानंद हूं,किन्तु जाने किस मोह में मायापति बनी,
फूट पड़ा जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड,मोह का वह आरंभिक बिन्दु हूँ,
ईश्वर के नेत्रों की अश्रु हूँ,तुहिन बिन्दु हूं।।
Comments