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व्याघात संबंध...


बेतरतीब किताबों, बिखरे पन्नों, खुले कलम के बीच जबकि बिस्तर पर आधा जगह इन सबने घेर रखा हो और तमाम ऐकैडमिक कार्यों की वक्त से लम्बी लिस्ट सामने  से  दबाव बनाये हुऐ है कि इन्हें किसी भी तरह तय समय पर पूर्णता चाहिए ही और मैं भी ख्वाब ही देख रही थी कि मैं जिंदा रहूँ तो भी किताबों के बीच,मरूं भी तो इन्हीं के बीच।डरती हूं कोई किताब जो बिस्तरे पर बिखरी है,मेरे पैर छू न जाय उनसे,तब भी जितना हो सके सजा दूं घर,आलमारी,मेज, खिड़की, बिस्तर को केवल और केवल किताबों से कि शायद सार्त्र के इस वक्तव्य का कि “मानव जीवन जीने के लिए अभिशप्त है”का जवाब ढूंढ सकूं बृहदारण्यक के ऋषि  के उद्घोष मे कि “अहं ब्रह्मास्मि” ।तब भला! मै क्यूं अभिशप्त बनी रहूँ जीवनभर।और यह भी कि ब्रह्म होने से पहले जान पाऊँ कि  “स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है” और यह भी कि ये जानते हुए भी सिमोन ने किस भांति भला प्रेम किया और निभाया इस तरह प्रेम को कि जैसे अपने सिद्धांतों को ही सच करने के फेर मे किया गया था प्रेम,और ये भी भगीरथ प्रयास कर पाऊं  कि काफ्का की तलाश को लुम्बिनी के वनों मे ले जाकर खत्म करूँ, कि शोपेनहावर की पीड़ाओं का अंत सांसो की साधना  से हो सकता है, सिद्ध कर सकूं। और यह भी कि समस्त उपनिषद के ऋषि हर प्रकार से यही समझा रहे हैं कि आनंद तो हमारा स्वरूप ही है फिर झगड़े की बात ही नहीं है कोई,व्यक्ति की स्वतंत्रता और समष्टि के हित मे।दूसरा हमें वस्तु नहीं बना रहा,भय नहीं पैदा कर रहा क्योंकि भला दूसरा है कौन!”न तु तद्दितियमस्ति”।और भी बहुत कुछ सिद्ध करना था,अपनों को बताना था समय के गुजर जाने से पहले,खुद के खर्च होने से पहले कि खुश होने की हजार वजहें हैं,गर अपने अहंकार को गला सकें हम, कि सच में क्या पता लाइबनित्ज़ ने ठीक ही कहा हो कि ये दुनिया सभी संभावित दुनिया में सबसे अच्छी हो !कि तब भी इतने इरादों, ख्वाबों, जिद से ढकी छुपी मैं आज कैसे खोल से बाहर आ गई”…तब भी जाने क्यूं कोई दिल पर दस्तक दे गया,शायद वक्त के साजिशन! या कि कल से शुरू हो रहे छुट्टियों के स्याह अंधेरे के चलते!शायद इन्हीं के चलते पहाड़ की मानिंद  बोझों से ढका मेरा अकेलापन आज इतना हावी हो गया कि पंखे की आवाज भी खलल डालती सी लगने लगी और अंततः पंखा बंद करना पड़ता है।।सिंक मे बर्तनों के ढेर पड़े होते हैं पर दिल सोचता है कि आज काम वाली दीदी न ही आयें।चाय की तलब मे दिल डूबा जाता है, शरीर आलस्य दूर भगाने के लिए गुहार लगाये होता है पर जाने कौन अंदर इतना व्यथित है कि मनाता है कि दूध वाले दादा न ही आये तो अच्छा।बिस्तर से उठकर दरवाजे तक जाने की जहमत भला कैसे उठायें कोई,जब आंखें एक किरन भी उजाले की बरदाश्त नहीं करना चाहती।शायद किसी अपने का हाल पूछे जाने पर चिंता से भरकर मैसेज का रिप्लाई न से मारे घबड़ाहट के फोन करना और आवाज़ सुनने की चाहत होते हुए भी आवाज़ सुनकर डर जाना कि खालीपन सामने वाला पकड़ न ले और मेरी आवाज़ से मेरे दिल तक न पहुंच जाय।मैं दुनिया को कुछ देकर जाना चाहती हूं,सो डरती हूँ कि कोई मेरे व्यक्तित्व के खोखलेपन को जान न ले ।जब कभी जान ले कोई तो बौद्धिक चालाकी से दार्शनिकता का लबादा ओढ़ तो लूं पर जो मेरा असलीरूप!!! जो इस तमाम जतन के बाद कि रात के आंचल मे जल्दी सिमट सकूं,जब सारा जग सोया हो तब मैं जाने किस श्राप के कारण  शापित हो,अंधेरे को पी जाने की जुगत में टहल रहे जुगनुओं को देखते हुऐ कुछ उत्साह जगाने के प्रयास मे थी कि जैसे ये दंड काफी न हो, रात के घुप्प अंधेरा रोक न सकी और सच से सामना करना ही पड़ा,अब उसका भला क्या करूं!तब जबकि सांसे भी आने-जाने के लिए पूछ रही हों जैसे कि फुरसत हो तो मैं भी दम भर लूं,उस समय,समय की निष्ठुरता का भान होते हुऐ भी,उंगलियां जितनी तेजी से हो सकती हैं लैपटॉप के कीबोर्ड पर चल रही हैं कि वक्ती राहत मिले आज किसी अपने द्वारा खुद की चोरी पकड़े जाने पर पैदा हुई इस बेवक्त की आत्मा की चित्कार से।इस बीच वो सभी मुद्दे जिसपर दिल रोया,आंखें नम हुई,उनसब पर नहीं लिखा,कुछ नहीं कहा किसी से,एक नैतिक बोझ से बोझिल होकर यंत्र की भांति सब उपेक्षित कर दिया;पर जिंदा आदमी कब तक खुद को वस्तु बनाए रहे या कि वह इतना शून्य हो चुका हो कि मानव के भेष मे पूरा यंत्र हो गया हो,पर मैं तो वह भी न हो सकी और हर बात की तरह यहां भी पेंडुलम की भांति मानसयंत्र के मानवीयकरण करने की कवायद में और मानव को यंत्र बना देने के पाप के बीच झूलती रही।।और अंत में आत्मीय के घोले गये बातों की चाशनी के बीच ये दुआ पाकर भी कि”अच्छे आदमी को खुश होना ही चाहिए” मैं अटक गई इस दुआ पर कि ‘ जीवन की पाठशाला मे अनुभवों के तर्कशास्त्र ने तो उल्टा पाठ पढ़ाया है कि अच्छा होना और खुश होना व्याघात संबंध की भांति हैं, जिनमें कोई एक ही सत्य हो सकता है।आदमी अच्छा ही तभी बन पाता है जब खुश न हो और तब बाकी दुनिया खुश हो सकें,बस इस जुगत मे वह अच्छा बनने की कोशिश करता रह जाता है तमाम उम्र खुद को खोकर कि शायद पा सके खुद को।और इस कोशिश में जानबूझकर फेंके गए इस प्रतिपश्न कि ‘मैं अच्छी रहूं या कि खुश’ के जाल से बखूबी निकल,”नागार्जुन” की भांति सभी विकल्पों को भ्रम बताकर बदले में दे दी गईं कुछ और दुआएं कि जीवन की समस्याओं का हल तो स्वयं की साधना से ही निकालना पड़ेगा।। अब सभी नैराश्य,भ्रम,संकल्प,व्यस्तता को परे रख इन दुआओं को ओढ़ना-बिछौना बना सोना ही होगा क्योंकि मैं जो दुआएँ बटोरती हूँ, उसी को ओढ़ती-बिछाती हूँ।।। 

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