छत पर आना दुखों से भर जाना होता है,
जब सुबह का सुहाना मौसम भी डसने लगे,
हवा छिड़कने लगे नमक जख्मों पर,
छांव जलाने लगे बदन को,
फिर भी… कुछ पंछी उड़ते देखा,
कुछ आस बंधी,
सब तुम्हें पुकारते हैं कि तुम मुझे पुकार रहे हो,
पता नहीं चलता!
और फिर सुनकर मेरी खामोशी,
सब आवाजें चीत्कार मे बदल जाती हैं।
सच मे,छत पर आना दुखों से भर जाना है।
सोचा छत को पीठ का सहारा दूं
याद आया.. सबसे अधिक घाव पीठ पर ही हैं।
पहली बार जाना टिमटिमाते सितारे दरअसल सिसकियां लेते हैं,
उजाला चांद का,है उसके दुख का विस्तार,
मैं और चांद नजरें नहीं मिलाते एक दूसरे से अब,
हम जान गए हैं एक दूसरे के सब राज।
फिर भी कुछ लोग आते हैं छत पर,
टहलते हैं, बातें करते हैं, मुस्कुराते हैं, रोते हैं,
कुछ कूदकर मर जाते हैं।
मेरे घर की छत उंची नहीं है,
एक ही चीज उंची हो सकती थी,
या कि छत या कि जमीर।
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