संजोग कि सुबह काल की अवधारणा पुस्तक पढ़ रही थी जिसमें काल संबंधी यह धारणा बताई गई है कि इसकी गति एकरेखीय अर्थात अतीत से भविष्य की ओर ही रहती है।इसका विपरीत गमन संभव नहीं अर्थात भविष्य या वर्तमान से अतीत की ओर जाना असंभव है।तार्किकता पर टिके दर्शन और प्रयोगों पर आश्रित विज्ञान से यह यात्रा तो हाल-फिलहाल संभव भी नहीं दिखती। किन्तु एक समीप से गुजरती उदास साँझ हो, तपते जेठ के मौसम में सजीले सावन का मौसम हो,जो आपके अवसाद को और गाढा कर देने के लक्ष्य से आकाश से वर्षा की बूंदे ढेर के ढेर फेंक रहा हो,अंधो की तरह दौडती-हांफती दुनिया बेदम पड़ी हो और एक पोस्टकार्ड जैसा सिनेमा हो या कहें कला की फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्ति। ऐसा सिनेमा,ऐसी कला हो तो काल की गति को मोड़ना सम्भव है,पीछे की ओर एक बार पुनः लौटना सम्भव है।। हमारे जीवन में परिवार और मित्रों के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे पात्र होते हैं जो हमारे प्रिय/अप्रिय बनकर हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।ऐसे ही मेरे जीवन के वह पात्र हैं,एक डाकिया,जिन्हे जब से होश संभाला,तब से हमारे मोहल्ले में पत्र इत्यादि बांटते देखा।दूसरे के घरों में पत
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