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Showing posts from May, 2021

पोस्टकार्ड...

  संजोग कि सुबह काल की अवधारणा पुस्तक पढ़ रही थी जिसमें काल संबंधी यह धारणा बताई गई है कि इसकी गति एकरेखीय अर्थात अतीत से भविष्य की ओर ही रहती है।इसका विपरीत गमन संभव नहीं अर्थात भविष्य या वर्तमान से अतीत की ओर जाना असंभव है।तार्किकता पर टिके दर्शन और प्रयोगों पर आश्रित विज्ञान से यह यात्रा तो हाल-फिलहाल संभव भी नहीं दिखती। किन्तु एक समीप से गुजरती उदास साँझ हो, तपते जेठ के मौसम में सजीले सावन का मौसम हो,जो आपके अवसाद को और गाढा कर देने के लक्ष्य से आकाश से वर्षा की बूंदे ढेर के ढेर फेंक रहा हो,अंधो की तरह दौडती-हांफती दुनिया बेदम पड़ी हो और एक पोस्टकार्ड जैसा सिनेमा हो या कहें कला की फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्ति। ऐसा सिनेमा,ऐसी कला हो तो काल की गति को मोड़ना सम्भव है,पीछे की ओर एक बार पुनः लौटना सम्भव है।। हमारे जीवन में परिवार और मित्रों के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे पात्र होते हैं जो हमारे प्रिय/अप्रिय बनकर हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।ऐसे ही मेरे जीवन के वह पात्र हैं,एक डाकिया,जिन्हे जब से होश संभाला,तब से हमारे मोहल्ले में पत्र इत्यादि बांटते देखा।दूसरे के घरों में पत

मृत्यु...

  ⚫. मृत्यु जंगल बुक के उस अजगर की तरह है जो मोगली रूपी जीवन को लीलने के लिए घात लगाए रहती है। किंतु हमारे जीवन में कोई भालू नहीं जो हमें लील लिए जाने से बचा ले। ⚫. मृत्यु वैश्या है और जीवन उसका यार, जब- जब कोई पूरी जीवटता से जीवन से सामना करने का प्रयास करता है,मृत्यु उसे लप्प से भकोस लेती है और इस तरह वो अपने यार को खुश करती है। ⚫. मृत्यु शिकारी कुत्ता है, वह सूँघता रहता है कि कौन बेखबर है उससे, और फिर उसे दबोच लेता है। ⚫. मृत्यु गांव- गुंवार का चिटकू बुढ़वा है,आप ने जरा सी ठिठोली की कि वह आपको दौडा लेता है। दुनिया मे उससे छिपने की जगह नहीं और जिसपर उसका हाथ पड़ा ,वो फिर बचा नहीं। ⚫. मृत्यु सांख्य के पुरूष के जैसे है, जिसका कार्य मात्र प्रकृति से संयोग कर जीवन का विस्तार करना और फिर अचानक प्रकृति से हाथ छुड़ाकर जीवन को समेट लेने पर विवश कर देना है। ⚫. मृत्यु एक बेहद क्रूर शिक्षक है जो जीवन का पाठ पढ़ाने के लिए अपने विद्यार्थी के सबसे प्रिय साथी को ही हर लेता है। ⚫. मृत्यु वह सनकी शासक है जो जीवन में संचित ज्ञान/सबक को एक दिन अग्नि के हवाले कर देता है।

चार(4) बरस...

  गणित के जैसे सटीक निष्कर्ष निकालने के लिए दर्शन की गुत्थियां सुलझाने की यात्रा डेकार्ट से आरंभ होकर जब ह्यूम तक पहुंचती है तो सार्वभौमिक सत्य या निष्कर्ष की अवधारणा ही छिन्न भिन्न हो जाती है।अब सबके अपने-अपने सत्य हो गए।दर्शन में तो कुछ बचा ही नहीं जो अकाट्य हो!  हाँ गणित का ज्ञान अब भी सैध्दांतिक रूप से अकाट्य रह गया था,क्यूंकि वह अनुभव पर आश्रित नहीं है,शुद्ध अस्तित्व है बस उसका,अपने आप में सिमटा और सत्य। लेकिन एक प्रश्न रह रह कर पिछले दिनों से मस्तिष्क में कौंध रहा है कि गणित बिल्कुल भी अनुभव से परे होते हैं क्या! जैसे जब कल मैं कहूँगी हाँ, चार साल पूर्ण हुए;तब 4 केवल एक नंबर नहीं है भाव से शून्य।चार बरस में कुल 3460 दिनों के आपबीती का पूरा लेखा जोखा भरा हुआ है जिसमें कम से कम सैकड़ों दिनों को समेटा जा सकता है कहानी, किस्सों, लघुकथाओं और एक लंबे उपन्यास के कुछ अध्यायों के रूप में। जिसको पढ़ते हुए आप से कुछ शब्द टूट सकते हैं,अर्थ बिखर जाने का जोखिम होगा, कुछ पन्ने तो इतने नाजुक लगेंगे कि आप पलटने से डरेंगे किन्तु बिना पलटे रह भी न पाएंगे।हो सकता है कहीं किसी कहानी के अंत में आप हंस

कोई नंबर है तुम्हारे पास!

  कोई नंबर है तुम्हारे पास! क्या जहां हो,वहां मोबाइल,फोन,व्हाट्सएप,फेसबुक कुछ है?कोई सुविधा संदेश भेजने की? होगी तो बताना जरूर! कुछ कहना है तुमसे,धरा का हाल और अपनी बेहाली पर रोना है। क्या बताऊँ मां! सबके पास अपनी जमीं,अपना आसमां है।फिर भी न जाने क्यों एक-दूसरे की पतंग जब-तब लूटे कोई ,उड़ती पतंग बीच से आकर काटे कोई।वह डोर जो मेरे हाथों में होता है, उसके निचले सिरे का हिस्सा न जाने क्यों कैसे अचानक टूटा पाती हूँ!और मैं अवाक् अपनी पतंग को देखती रह जाती हूँ,रह जाती हूँ मसककर कि यह क्यों हुआ,कैसे हुआ! क्या बताऊँ मां! बेफिकर होकर अपनी ही पतंग नहीं उड़ा पाती मैं। आज सिमोन का खत पढ़कर बस तुम्हारी ही याद आई।जहां जहां सार्त्र को उन्होंने My dear little one लिखा है,मुझे लगा तुम बुला रही हो मुझे।जब जब इस वाक्य को पढ़ा,एक-एक कील जो धंसी थी ह्रदय में,निकलता रहा।पर न जाने कैसे हजार-हजार तीर उड़ता हुआ आकर कहीं से फिर फिर धंस जाता रहा वहीं। चलो छोड़ो,ये बताओ क्या जहां हो,वहां कुछ पढ़ना-लिखना सीख गई हो?न सीखा हो तो मत पढ़ना।तुम्हें नहीं पता पढ़-लिखकर मुझे पता चला मेरे हिस्से”एक कप चाय” का कर्ज है,जितना इसे उतार

🔴 मई और दिसंबर 🔴

  🔴 मई और दिसंबर 🔴 तुमसे मिलने के मौसम मई थे, बि छड़ने के दिसंबर। हाथ थामा तो मई थी, छूटा तो दिसंबर। सुर्ख गुलमोहर मई थे, झड़े तो दिसंबर। जीवन का मान मई थी, सब दबा बर्फ में तो दिसंबर। चमकीले दिन मई के थे सिसकियां भरती दिसंबर। मधुर गीत मई थे, विरह का गान दिसंबर। कोरे कागज़ मई के, लिखे तो दिसंबर। प्रार्थनाएं सारी फलीं तो मई थी, प्रतीक्षा बनी दिसंबर। लहराती-बलखाती ग॔गा मई थी, सब बह गया दिसंबर। अश्विनी कुमार उतरे धरा पर तो मई,  गए धरा से दिसंबर। मन बनारस, तन बनारस मई में, जीवन अग्निकुण्ड बनी दिसंबर। हंसी-ठहाके मई थी,  आंसू-पीड़ाएं औ सब उदासियां दिसंबर। फिर वैसा कभी न आया मई, आ के न फिर कभी गया दिसंबर।। 

भारतीय दर्शन:अन्तर्मन की एक यात्रा

 मैं ऋग्वेद के नासदीय सूक्त की वह 'इच्छा' हो जाना चाहती हूँ ,        जो हर जगह व्याप्त अंधेरे से सृजन की ओर ले चले। मैं उपनिषदों की ज्ञान गंगा बनना चाहती हूं, जिससे विचार की प्रत्येक धारा प्रवाहमान हो सके। मैं जीवन का आनंद लेना चाहती हूं, मैं चार्वाक होना चाहती हूं। पर फिर मैं बुद्ध और महावीर बनना चाहूंगी, ताकि दुनिया में फिर से करूणा का संचार हो सके। मैं कपिल का सांख्य होना चाहती हूं कि, दुनिया जान सके कि प्रकृति के बिना... पुरूष चेतन होते हुए भी निष्क्रिय ही रहता है। बनने के लिए विजेता खुद को जीतना चाहती हूं, अपनी साधना से अपनी कमजोरियों पर विजय चाहती हूं, मैं पतंजलि का योग होना चाहती हूं। मैं गौतम-कणाद का  न्याय-वैशेषिक बनना चाहूंगी, कि जीवमात्र ही नहीं जड़ के भी अस्तित्व को... उसकी पूरी गरिमा के साथ स्वीकार कर सकूँ। मैं जैमिनी की मीमांसा भी बनूंगी, जहां स्वर्ग मिलेगा... वह भी बिना ईश्वर के, स्वयं के प्रयासों से, जहाँ अपनी ज्ञानशक्ति पर भरोसे की प्रथम किरन फूटती है। पर ये सब बनने के लिए मुझे चाहिए भक्ति की शक्ति, जिसके लिए मैं रामानुज भी बनूंगी और निम्बार्क भी, कि "राधाक

बनारस....

 बनारस से दूर जाना बिल्कुल वैसे ही होता है जैसे सर से मां का आंचल हट जाना,जैसे मां का पल्लू पकड़कर चलने वाले का अचानक तल्ख धूप और पथरीली राहों पर चलने को मजबूर होना; जैसे जीवन का सारा भार जो अबतक पिता के सबल कंधों पर था,अचानक उसका खुद के कंधों पर आ जाना। पर यह भोले की नगरी है, यहां कोई अनाथ नहीं होता,हर तरफ उसकी मूरत है, यूं ही नहीं कहा गया है कि यहाँ का कण-कण शंकर है; जब कभी देखना हो शिव और गंगा को साथ,जाए कोई केदारनाथ, मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े हो सामने दूर तक फैली गंगा को देखना, एक दूसरी दुनिया में जाने का द्वार हो जैसे!बैठकर कोई शिवलिंग के पास देख सकता है जान्हवी को,कि जान सकता है कि दूर होकर भी कैसे पास रह सकते हैं।जबकि यह बनारस का सबसे ऊंचा घाट है, गंगा थोड़ी दूर है। यहां हर दिन त्यौहार है,"सात वार,नौ त्यौहार"को सच में सच करता है शहर; यहां कोई कभी भूखा नहीं सोता, अन्नपूर्णा का अक्षय भंडार है; वहीं से दक्षिण की ओर बढ़ने पर भैरो हैं, शहर के कोतवाल, यह सच है!जिसे देखना हो,जाकर देखे भैरो के मंदिर के बगल के कोतवाली थाना में आजतक कोई कोतवाल कोतवाल की कुर्सी पर नहीं बैठा। बनार

माए नी माए मैं एक शिकरा यार बनाया

  ऐसे कौन लिखता है और ऐसे कौन गाता है!! एक ईश्वरीय आत्मा ने यह गीत लिखा,एक ईश्वरीय आत्मा ने गाया,उस अकेले ईश्वर के लिए जो नियति रूपी शिकारी का खुद ही शिकार हो गया।वह ईश्वर अब अगर सृष्टि समेटे तो भी आराम नहीं,चैन नहीं;कि अब समेटने में अकेलेपन के गहन अंधकार,जो पहले भी था, के साथ विषाद का जहर भी घुल गया है।अतः सबकुछ समेटे भी तो कैसे? सोचती हूँ खुद की बनाई दुनिया में उसके पास तो माँ भी नहीं है जिसको यह गीत सुनाकर वह अपना दुःख बांटें!कभी लगता है मैं और ईश्वर अपने नियति के छलनाओं से छले गए,अपनी अपनी दुनिया में नितांत अकेले हैं कि सबकुछ समेटा भी नहीं जाता और यह छले जाने का दर्द सहा भी नहीं जाता! दर्शन जगत ने दुःख की व्याख्या में कुछ अनदेखा कर दिया शायद जानबूझकर!कि सभी दुःख अनादि हैं पर सांत भी कि सब दुखों का अंत है। पर ऐसा लगता है कि कुछ दुःख आदि होतें हैं और अनंत,कभी जिनका अंत नहीं होता प्रध्वंसाभाव की तरह!! मैंने तो अपनी पीड़ा को अपना ईश्वर मान लिया है,तुम क्या करोगे? मै सोचती हूँ अगर शिव साहब, आप कुछ और लिख जाते तो दुनिया देख पाती कि कितने मासूम होते हैं छले गए लोग,और छले जाने के बाद यह मा

दीदी...

  दीदी... क्या कहूं!कि जीवन एक बेहद बेहूदी किस्म की शै है, जिसके पास रोग है,महामारी है,बुढापा है, दुर्घटनाएं हैं,मृत्यु है। इसी जीवन में बिछड जाते हैं हम उससे,जिससे हम नींद में भी बिछड़ना नहीं चाहते, और यह दुख,दुःखों की सूची में सबसे बड़ा हो जाता है,फिर भी जीना पडता है। इन दिनों आप उदास होती हैं तो आंखे जाने कितनों की लाल हो जाती हैं, एक आपके रोने से बारिश आती है, बनारस से बरेली होते हुए बेतिया तक,  और भीगते रहते हैं हमलोग,एक दूसरे के दुःखमें। आजकल रात भर जागते हैं सभी, दिन खिन्नता तो रातें अनमनी हुईं हैं  एक आपके करवटें बदलने से बेचैन हो जाते हैं सब, जबकि हमे पता है अब इस तरह ही बीतेगा यह संतप्त जीवन। फिर भी एक आपकी उदासी से पतझड़ टिक जाएगा बारहोमास के लिए। सारा जीवन इस समय रुआंसा हुआ है आपकी तरह। कैसे कहूं कि आप रोएंगी तो कहीं अम्मा भी छुप कर रोती होंगी और फिर-फिर ब्रेन हैमरेज का शिकार होती होंगी, याद कीजिए कि एक बेटी के दुख ने किस तरह उन्हें तोड़ दिया था जीवन के उतार में! कहीं बाबूजी से ये दुःख सहन नहीं हो रहा होगा  तो उनके ह्रदय की धड़कनें बार-बार रुकती होंगी। और कुछ नहीं तो ये ख्या