ऐसे कौन लिखता है और ऐसे कौन गाता है!!
एक ईश्वरीय आत्मा ने यह गीत लिखा,एक ईश्वरीय आत्मा ने गाया,उस अकेले ईश्वर के लिए जो नियति रूपी शिकारी का खुद ही शिकार हो गया।वह ईश्वर अब अगर सृष्टि समेटे तो भी आराम नहीं,चैन नहीं;कि अब समेटने में अकेलेपन के गहन अंधकार,जो पहले भी था, के साथ विषाद का जहर भी घुल गया है।अतः सबकुछ समेटे भी तो कैसे?
सोचती हूँ खुद की बनाई दुनिया में उसके पास तो माँ भी नहीं है जिसको यह गीत सुनाकर वह अपना दुःख बांटें!कभी लगता है मैं और ईश्वर अपने नियति के छलनाओं से छले गए,अपनी अपनी दुनिया में नितांत अकेले हैं कि सबकुछ समेटा भी नहीं जाता और यह छले जाने का दर्द सहा भी नहीं जाता!
दर्शन जगत ने दुःख की व्याख्या में कुछ अनदेखा कर दिया शायद जानबूझकर!कि सभी दुःख अनादि हैं पर सांत भी कि सब दुखों का अंत है।
पर ऐसा लगता है कि कुछ दुःख आदि होतें हैं और अनंत,कभी जिनका अंत नहीं होता प्रध्वंसाभाव की तरह!!
मैंने तो अपनी पीड़ा को अपना ईश्वर मान लिया है,तुम क्या करोगे?
मै सोचती हूँ अगर शिव साहब, आप कुछ और लिख जाते तो दुनिया देख पाती कि कितने मासूम होते हैं छले गए लोग,और छले जाने के बाद यह मासूमियत और बढ़ जाती है।इस मासूमियत ने ही ईश्वर को मौन किया है, अन्यथा भला कौन सामर्थ्यवान है जो उसे मौन कर सके !
चूरी कुट्टां तां ओ खांदा नाही
ओन्हुं दिल दा मांस खवाया
इक उडारी ऐसी मारी
ओ मुड़ वतनी ना आया
नियति वही पक्षी है जो हृदय का मांस खाकर ही तृप्त होती है,दुनिया के सारे प्रेमी जो अपने प्रेम को छोड़कर चले गए,दुनिया के सारे दोस्त जिन्होंने हृदय का मांस खाया,वे सभी नियति के ही अनेक रूप थे शिव साहब,यह भी लिखना था न!
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