बनारस से दूर जाना बिल्कुल वैसे ही होता है जैसे सर से मां का आंचल हट जाना,जैसे मां का पल्लू पकड़कर चलने वाले का अचानक तल्ख धूप और पथरीली राहों पर चलने को मजबूर होना;
जैसे जीवन का सारा भार जो अबतक पिता के सबल कंधों पर था,अचानक उसका खुद के कंधों पर आ जाना।
पर यह भोले की नगरी है, यहां कोई अनाथ नहीं होता,हर तरफ उसकी मूरत है, यूं ही नहीं कहा गया है कि यहाँ का कण-कण शंकर है;
जब कभी देखना हो शिव और गंगा को साथ,जाए कोई केदारनाथ, मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े हो सामने दूर तक फैली गंगा को देखना, एक दूसरी दुनिया में जाने का द्वार हो जैसे!बैठकर कोई शिवलिंग के पास देख सकता है जान्हवी को,कि जान सकता है कि दूर होकर भी कैसे पास रह सकते हैं।जबकि यह बनारस का सबसे ऊंचा घाट है, गंगा थोड़ी दूर है।
यहां हर दिन त्यौहार है,"सात वार,नौ त्यौहार"को सच में सच करता है शहर;
यहां कोई कभी भूखा नहीं सोता,
अन्नपूर्णा का अक्षय भंडार है;
वहीं से दक्षिण की ओर बढ़ने पर भैरो हैं, शहर के कोतवाल, यह सच है!जिसे देखना हो,जाकर देखे भैरो के मंदिर के बगल के कोतवाली थाना में आजतक कोई कोतवाल कोतवाल की कुर्सी पर नहीं बैठा।
बनारस से दूर होना अर्थात उस मिट्टी से दूर होना, जिसकी सोंधी खुश्बू साल के 365 दिनों सांसों पर ध्यान टिकाए रहती है कि सांसों के सहारे खुद तक पहुंच सकें ताकि अंतर का सारा अंधेरा ज्ञान मे परिवर्तित हो जाय;
जैसे कि "ऋषिपत्तन मृगदाव" की उस परिधि से छिटक जाना जो अंन्तर्मन के गहरे बैठे राग,द्वेष,और प्रेम का रूप धरे उस मोह को करूणा, मैत्री मे बदल देता है।
गंगा की उस धारा से दूर होना,जो सिखाती है जीवन के उतार-चढ़ाव मे समभाव से रहना;
उस वरूणा के विस्तार से दूर होना, जिसने बताया कि सिमटकर भी कैसे एक पूरे शहर का इतिहास खुद मे सहेजे रखना है;
उस "अस्सी" से दूर होना जिसका फैलाव सहज ही स्मृत करा जाता है मन के आंगन में बिखरे उन खूबसूरत लम्हों को,जो हमने जी होती है कभी अपने भाई-बहनों के साथ,दोस्तों के साथ;
दशाश्वमेध के उस चमत्कारी घाट से दूर होना जो दर पर आये हर चरित्र को खुद के रंग में रंग लेता है;
उस वियोगी राजेंद्र प्रसाद घाट से दूर होना,जिसके सीने पर हरदम आयोजित होता है कोई कार्यक्रम, दृश्यक्रम,जीवन का हर रंग,हर कला उसके पावन सीढियों पर बिखरने को आतुर होती हैं, पर ठीक उसी क्षण उस वियोगी के साये में किसी कोने में बैठा कोई उतारता है वैराग को मन में,सहज ही;
मर्णिकर्णिका से दूर जाना,जहाँ एक ही समय शोक का रूदन है तो ठीक बगल में आरती की स्वरलहरियां;यूं तो चाह है कि इसी किनारे अग्नि को समर्पित हो देह,पर न जाने कब लौटना होगा।बस यही चाह है जो इतना न हो सके तो कोई मेरी राख यहीं बहा देगा गंगा की गोद में।
बनारस,उन 84 घाटों की चमक से दूर होना,जो सिखलाती है तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखना कि जीवन ऐसा ही है--जहां भोगों की चकाचौंध है तो अभावों का रेगिस्तान भी।
बनारस कि उस महामना की तपोभूमि जो सबकुछ खो देने की जिद पर भी निर्माण करता है राष्ट्रीयता का वह विशाल प्रांगण, जो दासता के अंधकार में भी अपनी मातृभक्ति से कभी न बुझने वाला प्रकाश का स्तंभ बनाती है।
बनारस कि जहाँ आप सांसारिक होते हुए भी साधु बन सकते हैं।जहाँ हर जुबान पर महादेव का उद्घोष है, जहाँ हर जुबां पर मां भारती का जयघोष है।
और यह भी कि इसकी खुद की एक भाषा है, गालियों की भाषा।गाली, जो भाषा है प्रेम की, अपनेपन की।जहां गाली ही वाक्य का आदि, मध्य और अंत है।मेरी तो छूट गई नौकरी के कारण।अब तो अकेले में ही देकर गुस्सा निकाल लेते हैं।
बनारस कि जिसके ठीक बगल में रामनगर है, एक पूरी सांस्कृतिक विरासत को बचाए,समेटे।लोक का जीवन कैसे अभावों में भी आनंद ढूंढ लेता है, ये पूछते हुए कि राम को तुम कपोल कल्पना कह दो,पर लोक की चेतना में जो राम पीढ़ियों से बैठें हैं, उसे किस विध मिटा सकते हो, उसे कैसे झूठला सकते हो; जहां की पूरी चेतना, पूरा जीवन राममय है।
बनारस,जहाँ हर तरफ पुस्तकों के विशालकाय घर हैं प्रकाशन संस्थान,सार्वजनिक पुस्तकालय के रूप में,यहां दर्शन है, साहित्य है,कला और शास्त्र की हर विधा है।संगीत के रस से क्या अमीर क्या गरीब सब धनवान हैं,तभी तो सकंटमोचन के प्रांगण में एकसाथ बैठे देखा है अधिकारियों को तो रिक्शेवाले को भी।जहाँ बड़े बड़े कलाकार आते हैं बिना किसी फीस के मात्र अपनी कला के प्रदर्शन के लिए।
इसीलिए यहां हर कोई गुरु है।
एक महानुभाव ने कहा कि है क्या बनारस...आखिर लोग मरने ही तो जाते हैं, मरे-मराये लोग ही वहां मरने जाते हैं।
मैने कहा जी मरे मराये लोग यहां मरने आते हैं कि मरते वक्त तो कुछ जी लें।जीवन जीये बेहोशी मे....मृत्यु को तो गले लगाये होश मे आकर।
हम जो भी करें, उसे करते वक्त होश में रहने की बात ही तो ओशो करते हैं।(महानुभाव ओशो के अनुयायी थें)
बनारस कि जहां सुबह सवेरे जलेबी कचौड़ी है,रामनगर की लस्सी है,काशी चाट भंडार का चाट है, कबीरचौरा की इमरती है,लौंगलता है; और पान के तो पूछने ही क्या;यूं तो हर जगह है, पर जब लेना हो मगही पान का स्वाद, चले जाए कोई चौक;
बनारस कि जहां हर दो कदम पर चाय की टपरी है,पर मैं बैठती हूँ रोज़ शाम लंका की उस व्यस्ततम चाय के दुकान पर,क्योंकि वहाँ बैठ आते-जाते लोगों को देखना मेरा प्रिय शगल था।।
बनारस!जहां मेरा घर है, मा- पिताजी की यादें हैं, जीवन-संघर्ष के दिनों की दास्तां है,यार-दोस्तों की बस्ती है,
उनके बीच अपनी भी कुछ हस्ती है।।
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