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चार(4) बरस...

 गणित के जैसे सटीक निष्कर्ष निकालने के लिए दर्शन की गुत्थियां सुलझाने की यात्रा डेकार्ट से आरंभ होकर जब ह्यूम तक पहुंचती है तो सार्वभौमिक सत्य या निष्कर्ष की अवधारणा ही छिन्न भिन्न हो जाती है।अब सबके अपने-अपने सत्य हो गए।दर्शन में तो कुछ बचा ही नहीं जो अकाट्य हो! हाँ गणित का ज्ञान अब भी सैध्दांतिक रूप से अकाट्य रह गया था,क्यूंकि वह अनुभव पर आश्रित नहीं है,शुद्ध अस्तित्व है बस उसका,अपने आप में सिमटा और सत्य।

लेकिन एक प्रश्न रह रह कर पिछले दिनों से मस्तिष्क में कौंध रहा है कि गणित बिल्कुल भी अनुभव से परे होते हैं क्या!
जैसे जब कल मैं कहूँगी हाँ, चार साल पूर्ण हुए;तब 4 केवल एक नंबर नहीं है भाव से शून्य।चार बरस में कुल 3460 दिनों के आपबीती का पूरा लेखा जोखा भरा हुआ है जिसमें कम से कम सैकड़ों दिनों को समेटा जा सकता है कहानी, किस्सों, लघुकथाओं और एक लंबे उपन्यास के कुछ अध्यायों के रूप में। जिसको पढ़ते हुए आप से कुछ शब्द टूट सकते हैं,अर्थ बिखर जाने का जोखिम होगा, कुछ पन्ने तो इतने नाजुक लगेंगे कि आप पलटने से डरेंगे किन्तु बिना पलटे रह भी न पाएंगे।हो सकता है कहीं किसी कहानी के अंत में आप हंस पड़े तो कोई किस्सा रुला दे!
इसलिए नहीं कि लिखने वाले ने बहुत रोचक लिखा है, इसलिए कि मानवीय जीवन में घटनाओं के प्रस्तुतीकरण की टाइमिंग अलग हो सकती है किन्तु गुजरना सबको ही है इस जीवन के जटिल सुरंग से।
तब भी मैंने इतना समझा कि जीवन यूँ ही बीत जाए इससे अच्छा है कि हम भी इसे किसी नंबर में उलझा दें,और हर एक नंबर को अपने रंग से रंगने के प्रयास करते हुए जीवन से डंटकर सामना करते एक दिन मृत्यु से सामना करने का हौसला बनाते चले। क्योंकि जीवन आपके बने बनाए तस्वीर पर कब अचानक से कोई वेदना,किसी पीड़ा का स्याह रंग उडेल दे,नहीं पता। किंतु यह तैयार तो कर ही देगा इतना कि कृष्ण के जैसे कि धर्मयुद्ध की लड़ाई में स्वयं के लिए कुल विनाश का श्राप लेकर भी स्थितप्रज्ञ रह सकें।
दर्शन की अनेकों परिभाषाओं,व्याख्याओं में एक यह भी है- अपने अनुभवों के साथ सहज रहना।।





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