Skip to main content

कोई नंबर है तुम्हारे पास!

 

कोई नंबर है तुम्हारे पास!

क्या जहां हो,वहां मोबाइल,फोन,व्हाट्सएप,फेसबुक कुछ है?कोई सुविधा संदेश भेजने की?
होगी तो बताना जरूर!
कुछ कहना है तुमसे,धरा का हाल और अपनी बेहाली पर रोना है।
क्या बताऊँ मां!
सबके पास अपनी जमीं,अपना आसमां है।फिर भी न जाने क्यों एक-दूसरे की पतंग जब-तब लूटे कोई ,उड़ती पतंग बीच से आकर काटे कोई।वह डोर जो मेरे हाथों में होता है, उसके निचले सिरे का हिस्सा न जाने क्यों कैसे अचानक टूटा पाती हूँ!और मैं अवाक् अपनी पतंग को देखती रह जाती हूँ,रह जाती हूँ मसककर कि यह क्यों हुआ,कैसे हुआ!
क्या बताऊँ मां!
बेफिकर होकर अपनी ही पतंग नहीं उड़ा पाती मैं।
आज सिमोन का खत पढ़कर बस तुम्हारी ही याद आई।जहां जहां सार्त्र को उन्होंने My dear little one लिखा है,मुझे लगा तुम बुला रही हो मुझे।जब जब इस वाक्य को पढ़ा,एक-एक कील जो धंसी थी ह्रदय में,निकलता रहा।पर न जाने कैसे हजार-हजार तीर उड़ता हुआ आकर कहीं से फिर फिर धंस जाता रहा वहीं।
चलो छोड़ो,ये बताओ क्या जहां हो,वहां कुछ पढ़ना-लिखना सीख गई हो?न सीखा हो तो मत पढ़ना।तुम्हें नहीं पता पढ़-लिखकर मुझे पता चला मेरे हिस्से”एक कप चाय” का कर्ज है,जितना इसे उतारने की कोशिश करती हूं, उतना ही बढ़ता जाता है।पर न चाय की तलब जाती है,न कर्ज उतरता है,न तुम्हारी यादें रास्ता कभी भूलती हैं।
      यूं तो सबकुछ है यहां,बड़े मजे में हूँ बस पिछले 6 माह से घर नहीं गई।लेकिन इस बस के बिना,तुम्हारे बिना, सबकुछ बेमतलब है।
क्या कहूँ मां!मर भी नहीं सकती,बुद्ध भी नहीं बन सकती।अब भी न जाने कितनों का हौसला हूँ मैं।
क्या कहूँ!मैं जीऊँ भले तन्हा,पर मैं मरूंगी नहीं तन्हा।
       यह भी क्या विसंगति है,सेवा किया भाई ने,तुम्हारी सांसो को डूबते देखा मैने।उन्हें जो मिला वह उनके पुण्यों का प्रतिफल था,जो मुझे मिला,वह मेरी वासनाओं का प्रतिफल रहा।मैं जानती हूं सारे दुख उसी दलदल की उपज है जिसमें मैं रोज थोड़ा-थोड़ा धंसती जाती हूँ पर पूरी तरह धंस भी नहीं जाती।
क्या कहूँ,रीढ़ की हड्डी तो है पर झुकती जा रही हूं उन घावों से जिन्होंने हड़्डियों का स्थान ले लिया है।वे कंधे जिन्हें मेरे साथ होना था,पिछले कुछेक सालों से उनकी उपेक्षा का बोझ भी कांधे पर आ पड़ा है।मैं बोझ से दोहरी होती जा रही हूं,दिनपर दिन बुढ़ापे से ग्रस्त होती जा रही हूं,जबकि सोचा था कभी बुढ़ी नहीं होउंगी।अब जब कोई कहता है बुड्ढी हो रही हो तुम/आप,मैं मान लेती हूं।
देखती हूँ जब भी कोई तुम्हारी उम्र का चेहरा,हर चेहरे में तुम नजर आती हो।जब कोई मां बुलाती है अपने बच्चे को, लगता है तुम पुकार रही हो,जब कोई करता है अपनी मां का जिक्र,मेरा गला भर आता है।मैं किसी के घर नहीं जाती।घर जाकर अहसास होता है,मैने क्या खो दिया है।घर,मां,पिता,बहन-भाई के कहकशों से भरी दुपहरी, पंचायत में बीतती रातें और सुबह देर से उठने पर वेदमंत्रों सी तुम्हारी गालियां।।
हां,मैने ये आदत सुधार ली है,अब मैं बहुत तड़के उठ जाती हूँ।
जबकि अगस्त कितना प्रिय है मुझे।पर घबराती हूँ सामना करने से 15 अगस्त का।जहाँ हो,वहां कोई अगर केक लेकर आए तो काट लेना और हंसना वैसे ही,जैसे यहां हंसती थी।पर झिड़कना मत !क्या पता कोई बालमन छुप के रोये फिर तुमसे।।काश कि रो लेती तुमसे तो शायद आंखों का ही कुछ बोझ कम हुआ रहता।
सिंधु घाटी की विलुप्त सभ्यता सी विलुप्त हो चुकी इस चिट्ठी पत्री लिखने की सभ्यता को जीना और खत लिखना मेरी विवशता है कि जाने कोई मैं अभिशप्त यात्री की तरह मेसोपोटामिया की अव्यवस्थित गलियों में भटक गई हूँ।शायद कोई शब्द पकड़ सके तुम्हारी उंगलियां और मैं निकल आऊं जीवन की अंधी गलियों से।
     एक तुम्हारे न होने से हड़प्पा की गलियों सा व्यवस्थित मेरा जीवन,जिसमें मैं चलती रही अपनी ही धुन में,रेशा-रेशा बिखर गया है।मुझे तो भटकना ही था,नियति के दुष्चक्र में फंसना ही था।अन्यथा ढलती उम्र में भला क्यों तुम्हारे गर्भ का बोझ बढ़ाने आती!अंत समय में जिससे बहा था खून।मैं जानती थी,वो मेरे पाप थे,जो कट नहीं सके गर्भनाल के साथ या तुमने कटने नहीं दिया,जिससे कि तुम ढो सको मेरे पापों को।
फेसबुक पर टहलते समय देखा था एकदिन एक बच्चे को जन्म लेते।दिन भर सोचती रही,हम कितनी गलतियां करते हैं अपने जन्मदाता के प्रति!उसकी तुलना में कितनी कम सजा पाते हैं।
अब बस करती हूं,शेष फिर कभी।जबकि आधी रात हो चुकी है और सुबह विशेष कार्यक्रम भी करना है।
    यदि पढ़ना न सीखा हो तो किसी से पढ़वा लेना।कुछ निजी नहीं है।हो भी तो एक एक कर निजता की परत उधेड़ूंगी कि सीखना कोई चाहे तो सीख सके मेरी गलतियों से।हां पढ़ना-लिखना मत सीखना,कभी मत सीखना।पढ़ो-लिखों सी मक्कारी कहीं नहीं।
           आज के आयोजन की सफलता के लिए तुम्हारे आशीष की आकांक्षी हूँ।
मेरे दोस्त की मां मिले तो कहना कि डांटे उसे,मुझे आज रूलाया भी और जबकि आज महत्वपूर्ण आयोजन है तो मेरा समय इतना चला गया तुम्हें खत लिखने में।पर हौसला भी देना उसे दोनों जन,दोनों माएं।।
      शुभरात्रि
8/8/2020,2:00AM

Comments

Popular posts from this blog

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

शिक्षक दिवस:2023

विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

पिताजी,राजा और मैं

  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं