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पोस्टकार्ड...


 संजोग कि सुबह काल की अवधारणा पुस्तक पढ़ रही थी जिसमें काल संबंधी यह धारणा बताई गई है कि इसकी गति एकरेखीय अर्थात अतीत से भविष्य की ओर ही रहती है।इसका विपरीत गमन संभव नहीं अर्थात भविष्य या वर्तमान से अतीत की ओर जाना असंभव है।तार्किकता पर टिके दर्शन और प्रयोगों पर आश्रित विज्ञान से यह यात्रा तो हाल-फिलहाल संभव भी नहीं दिखती।

किन्तु एक समीप से गुजरती उदास साँझ हो, तपते जेठ के मौसम में सजीले सावन का मौसम हो,जो आपके अवसाद को और गाढा कर देने के लक्ष्य से आकाश से वर्षा की बूंदे ढेर के ढेर फेंक रहा हो,अंधो की तरह दौडती-हांफती दुनिया बेदम पड़ी हो और एक पोस्टकार्ड जैसा सिनेमा हो या कहें कला की फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्ति। ऐसा सिनेमा,ऐसी कला हो तो काल की गति को मोड़ना सम्भव है,पीछे की ओर एक बार पुनः लौटना सम्भव है।।

हमारे जीवन में परिवार और मित्रों के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे पात्र होते हैं जो हमारे प्रिय/अप्रिय बनकर हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।ऐसे ही मेरे जीवन के वह पात्र हैं,एक डाकिया,जिन्हे जब से होश संभाला,तब से हमारे मोहल्ले में पत्र इत्यादि बांटते देखा।दूसरे के घरों में पत्र बांटते हुए हमारे घर में पत्र देने का यह सिलसिला आरंभ होता है जब मुझसे बड़ी बहन का विवाह बनारस से दूर अहमदाबाद में हुआ, जहां से वर्ष में बार-बार आना सहज नहीं था,(इसपर वह गीत यादा आता है-'अबके बरस अम्मा बाबुल को भेजो कि सावन आयो'),तब पत्र माध्यम बनते हैं संवाद का।तब तक मैं भी इतनी बड़ी तो हो गई थी कि पत्र लिख सकूं।।

अब भी भली-भांति स्मरण हैं पहला लिखा पत्र,उसकी विषयवस्तु,लिखने के बाद के दिल और चेहरे के भाव जिसे बड़े भाई ने पढ़कर बताया था और स्मरण है अपने पहले पत्र के जवाब की प्रतीक्षा में व्याकुलता से भरकर इस बात का हिसाब लगाकर कि कितने दिनों में उत्तर मिलेंगे,यह सोच-सोच दिन काटना।प्रतीक्षा इस बात की थी कि कहीं ऐसा न हो कि उस शिकायती पत्र के कारण मुझे गलत समझ लिया जाए अपनी बहन के द्वारा।

         संयोग कि पत्र तो नहीं आया बल्कि लगभग पत्र वापसी के जितने दिनों में ही बहन मायके आती हैं।हालांकि तब मैं संकोच से घिर गई थी बुरी तरह की न जाने किस तरह उस पत्र का उल्लेख होगा किन्तु मेरे संकोच से पत्र का उल्लेख करना तो कोई भूलता नहीं,और दीदी भूली भी नहीं।अब भी बिल्कुल ठीक से स्मरण है स्वयं की प्रशंसा में अपने जीजाजी के कहे वाक्य और उस वाक्य को दोहराते हुए मेरी बहन के चेहरे पर गर्व की चमकीली रेखाएं।न जाने क्या था उस पत्र में जो उन दोनों को इतना भाया!मेरी सुई तो बस उस बात पर टिकी थी जहां मैंने माँ और भाई की शिकायत केवल इसलिए कि थी कि माँ ने भैय्या के दूध में चूड़ा अधिक दिया था(😁)और इस बात से मन इतना आहत हुआ (क्योंकि मां ऐसा करती नहीं थी लेकिन उसदिन किसी बात से मुझसे रूष्ट थी) कि नाराजगी पहले पत्र के लिखे जाने की भूमिका बनी।उसपर जीजाजी और दीदी की प्रशंसा ने उस उम्र में आत्मविश्वास को बढ़ाने का कार्य किया।।

बहरहाल,उस डाकिए की भूमिका मेरे जीवन में उनके सेवानिवृत्ति और हमारे उस मोहल्ले को छोडने के साथ ही पूर्ण हो गई किन्तु चिट्ठी-पत्री लिखने की यह यात्रा अबतक निरंतर गतिमान है।अब भी पत्र लिखती हूँ काग़ज़ पर भी और मोबाइल/लैपटॉप के आभासी काग़ज़ पर भी।वो अलग बात है कि पोस्ट द्वारा किसी-किसी को ही और कभी-कभार ही भेजती हूं अन्यथा पहले तो यह हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था-"पत्र लिखना और पोस्ट करना,फिर वापसी के पत्र की प्रतीक्षा करना"।बहुत चिट्ठियां लिखी हैं,खूब लिखी हैं,जिन्हें पढ़कर आंसू निकले बहनों की याद में, दोस्तों की दोस्ती पर भी,उनके एकदिन बिछड़ जाने की चिंता पर भी।उन चिट्ठियों में कुछ में प्रार्थनाएँ थीं,कुछ मे स्व की अभिव्यक्ति,कुछ में नाराजगी,कुछ उम्मीदें,कुछ विश्वास,कुछ यथार्थ,कुछ स्वप्नों की चर्चा।कभी पत्रिकाओं के लिए लिखा,कभी किसी प्रकाशक तो कभी किसी के प्रशंसा और आलोचना के लिए लिखे।शब्दों की मर्यादा किसी में न लांघी,यह प्रयास रहा कि शब्दों का असर पढने वाले पर गहरा हो।।

वह पत्र भी स्मृति में है जो दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर दीदी के इस जवाब में की क्या चाहिए,के उत्तर में एक कैमरे की मांग करते हुए लिखा था।अब रील वाले उस कैमरे का जमाना नहीं रहा,लेकिन 20 वर्षों बाद भी वह कैमरा अब भी सुरक्षित है कुछ आत्मीय पत्रों की तरह।।

कलम यह सोचकर उठाए थे कि फिल्म पर लिखूँगी लेकिन अतीत से छूटना इतना आसान नहीं होता।लिखते वक़्त लेखन अपने जीवन के पोस्टकार्ड और अन्तरदेशीय पर केंद्रित हो गया।यह जादू है इस फिल्म और उसके पात्रों का कि फिल्म देखते समय आप एक साथ महसूस कर सकते हैं कर्ज के कुचक्र में फंसे मजदूर की पीड़ा को,एक पिता की छटपटाहट को और जीवन के कुचक्र में फंसी एक वैश्या की वेदना को।एक पत्नी की समझदारी और एक डाकिये की सम्वेदनशीलता को।साथ ही अनुभव कर सकते हैं अपने जीवन के छूट गए,छूटते जा रहे हिस्सों पात्रों,घटनाओं के साथ स्वयं के गुजर जाने को।

सभी का अभिनय इस फिल्म मे बेजोड़ है और मजदूर और डाकिये की भूमिका निभा रहे कर्मशः दिलीप प्रभावकर और गिरीश कुलकर्णी जी ने मानो अपने अभिनय की समस्त पूंजी इस फिल्म में लगा दी है।राधिका आप्टे को देखकर मन दुख और क्षोभ से भर जाता है कि बालीवुड मेनस्ट्रीम किस तरह राधिका आप्टे जैसे प्रतिभाओं का गला घोंट देती हैं या उनके टैलेंट का उपयोग ही नहीं करती और ऐसे कचरा रोल उन्हे देते हैं कि उसपर क्या ही कहा जाए!फिल्म का गीत-संगीत मस्तक को झंकृत कर उसमें सुकून भर देने के साथ ही,कुछ भूल रहे हों आप अपने विगत को स्मरण करते वक्त,उसे भी याद दिलाते हुए से बजते हैं।वास्तव में फिल्म इतनी खूबसूरत है कि उसपर अलग से लिखना ही उसके साथ न्याय कर पाना होगा जहां उसके प्रत्येक पक्ष का उतने ही मार्मिक उत्कंठा से वर्णन हो जितनी संवेदना युक्त यह फिल्म बन पडी है।फिल्म के हर पात्र ने संवाद से अधिक चेहरे के भावों का खूब सघनता से उपयोग किया है कि फिल्म अगर बिना संवाद के बनाया जाता तो भी फिल्म की खूबसूरती,उसकी सुंदरता से कुछ नहीं घटता।डाकिये का बिस्तर,बच्ची के चोटी में गुंथे लाल फीते सब समानांतर में एक कहानी कहते चलते हैं।किंतु अब अतिविस्तार के भय से यहीं विराम लेती हूं,यह कहते हुए कि ऐसे फिल्मों को देखने के लिए खूब धैर्य चाहिए।धैर्य मात्र एक घंटे उनसठ मिनट का नहीं,उससे भी अधिक की कि भविष्य की चिंता और वर्तमान के काज छोड़कर कुछ और देर तक फिल्म को अपने को,अपने जीवन की यात्रा को अनुभव किया जा सके,थोड़ा रुककर विचारा जा सके कि क्या खोया,क्या पाया।

हाँ,एक बात और!फिल्म देखते समय विस्मृत कर दें कि मोबाइल जैसी किसी वस्तु का भी इस दुनिया में अस्तित्व है,तभी इस फिल्म की संवेदना के साथ जुड़ा जा सकेगा और अपने विगत की यात्रा भलीभांति हो सकेगी अन्यथा तो मात्र औपचारिकता ही निभेगी।।

इति।।।



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