मेरा एक विशेष स्वभाव रहा है सदैव से कि उसी के पास बैठ पाते हैं या बातें करते हैं जिससे मन मिलता है।अन्यथा अकेले ही रहना पसंद करती हूँ।मुझे स्मरण है छात्रावास के दिनों में मैं एक जूनियर के कमरे पर काफी देर से और बड़े इत्मिनान से बैठी थी,तभी मेरी दोस्त आती है और कहती है 'तुम्हें मैंने सब जगह ढूंढा और तुम यहाँ बैठी हो!' फिर वह मेरी जूनियर से मुखातिब हो कहा कि 'तुममे जरूर कुछ बात है जो यह(मैं) यहाँ बैठी है इतने अनौपचारिक रूप से।'
यही हाल रिश्तेदारों के सम्बन्ध में भी है।अभी भी घर जाती हूँ तो दरवाजे तक उठकर जाने की जहमत नहीं उठाती कि कौन आ-जा रहा है।मुझे बस उस थाली से मतलब रहता है जो सुबह-शाम भाभी देती हैं।निश्चित रूप से इस कठोर और कड़वे संसार में भाई की ब्याहता भोजन परोस कर दे दें वह भी मेरी रूचि का,निश्चित ही यह मेरे पुण्य कर्मों के प्रतिफल से अधिक उनके संस्कार की बदौलत हैं। बहरहाल,
मैं अपने कार्यस्थल भी चुपचाप जाती हूँ,अपना काम किया और घर लौट आती हूँ।सिवाय दो-तीन आत्मीयजनों के पास कभी-कभार बैठ जाने के।वह भी हम कभी-कभी ही चाय के बहाने बैठ पाते हैं। अन्यथा इतनी दुश्वारियां हैं जीने की एक कप चाय पर बैठने के लिए भी समय चुराना पड़ता है। यद्यपि कोई सम्मान और स्नेह से पूछ ले तो जरूर बैठ जाती हूँ,इंकार नहीं कर पाती क्योंकि पलट कर न देखने वाले काल में यदि कोई आपको कुछ देर अपने साथ बैठने को कह दे,तो उसे मना करना मानवीय गरिमा का अपमान है मेरी दृष्टि में।
स्वार्थ पूर्ति किसी मनुष्य से साधने का कार्य कभी किया नहीं, इसलिए बेमन से किसी के पास बैठने की कभी न जरूरत पड़ी,न इच्छा हुई।
दोस्त बहुत बनाए नहीं।एक-दो बार बनाया था तो उन्होंने आत्मा तक पर ऐसी आरी चलाई कि दर्द अब भी रह-रहकर उठता है।उसके बाद यह भी शौक समाप्त हो गया।लेकिन जो मिला,उसमें एहसानफरामोशी भी नहीं।प्रेम भी बहुत मिला संगी-साथियों से, सीनियर्स से,जूनियर्स से,हमेशा से और शोध के दिनों तक मिलता रहा।
अब भी मिलता है सहकर्मियों से;किंतु फिर भी एक टीस सी उठती है कि अब वैसा प्रेम लुटाने वाले नहीं मिलते।कई बार प्रतिस्पर्धी समझते हैं मुझे लोग।तब मुझे हंसी आती है इस सोच पर क्योंकि मैं स्वयं की सफलता के साथ सभी के सफलता की कामना करती हूँ। और ऐसा मेरा विश्वास है कि हमसब सफल हो सकते हैं बिना कोई धक्कामुक्की किये।खैर,
यद्यपि इसका कारण हो सकता है कि सभी एक अंधी दौड़ में हैं जिसका न मालूम क्या हासिल है?कुछ हासिल होता भी है या नहीं,यह भी अबूझ है।फिर भी इस तेजी से भागती दौड़ती दुनिया में आज भी जो स्नेह मिल रहा है उससे भी एहसानफरामोशी नहीं।आसपड़ोस वाले सदैव पूछते रहते हैं,खाने पीने का ध्यान रखते हैं। तीज-त्यौहार पर प्रसाद और त्यौहार अनुसार बने पकवान दे जाते हैं।यह भी उनकी ही भलमनसहत है,अन्यथा तो दिनचर्या ऐसी है कि किसी से मुलाकात ही संभव नहीं होती बहुधा।
घर पर बर्तन साफ करने वाली हों वह भी भली महिला हैं कि और कहीं भले छुट्टी ले लें लेकिन मेरे यहाँ हर हाल में आती हैं।सब्जी वाले दादा हों जो पैसा हो चाहे न हो मेरे पास, यदि रस्ते में मिल गई तो सब्जी देकर ही मानते हैं।डेयरी वाली भली महिला हों जो दूध समय पर घर न पहुंचाए जाने पर अपने पति से मेरे लिए लड़ जाती हैं।आजकल तो सुबह टहल कर लौटते समय एक कप चाय पिला देती हैं और इस तरह मैं सुबह की चाय बनाने से मुक्ति पा जाती हूँ।इस जी के जंजाल वाली दुनिया में मुक्ति यदि एक कप चाय भर मिल जाए तो बड़ी कृपा सृष्टिकर्ता की यदि वह है तो;न हो कोई रहनुमा तो और भी अच्छा; ऐसे बेढब जीवन में कुछ पल तो ढंग के हैं। खैर,
इतनी सारी बातों में मैं यदि तुक मिलाने का प्रयास करती हूँ अपने स्वभाव से और आसपास के लोगों के व्यवहार से तो निश्चय ही उन चरित्रों का अस्तित्व एक गरिमामयी आभा से व्याप्त है। दुनिया की सुंदरता ऐसे ही लोगों से बुनी जा रही है हररोज,बच रही है हररोज।
तब मैं बड़े संकोच में पड़ जाती हूँ और स्वयं के व्यवहार को बड़ा बेतूका पाती हूँ।फिर भी इतना कह सकती हूँ और यह यकीन उन्हें दिला सकती हूँ कि इतनी मोहब्बत के बदले मैं यह यकीन ही दे सकती हूँ कि दुनिया इनमें से किसी के विरूद्ध हो जाए किंतु मैं एक बार जिसके साथ खड़ी हो गई, अंतिम सांस तक उसके साथ ही खड़ी रहूंगी।
कि यदि मानवीय अस्तित्व की खुबसूरती में बढ़ोत्तरी न कर पा रहीं होऊंगी तो उसको बदसूरत तो बिलकुल भी नहीं कर रहीं हूँ।इस बात के लिए मैं विशेष रूप से सजग रहने का प्रयास हर क्षण करती हूँ, बाकी नियति जाने उसे क्या लिखना-लिखवाना है;उसपे मेरा जोर नहीं।
आज न जाने क्यों अपने बारे में लिखने की इच्छा हुई, सो लिख दिया।किंतु लगता है कितना कुछ छूट गया अपने बारे में कहने से। सबसे आवश्यक और हिम्मत वाला काम तो स्वभाव के स्याह पक्ष को लिखना होगा।ऐसा लगता है एक आत्मकथा के बिना बात बहुत कुछ अनकही ही रहेगी।
फिलहाल इस लिखे को कोई पढ़ ले,यह भी उसकी भलमनसहत क्योंकि कितना कुछ तो है पढ़ने को!कोई मुझे क्यों पढ़े भला फिर!फिर भी पढ़ता है तो उसके प्रति कृतज्ञता ही ज्ञापित कर सकती हूँ।
क्योंकि इतनी पुस्तकें हैं दुनिया में कि मेरा लिखा तमाम लिखे में सबसे बेकार लिखा लगता है मुझे…
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