छायाचित्र देवभूमि के मुक्तेश्वर से;जो सम्भवतः मुक्त करे आत्मसंलाप से।
पिता को समर्पित अर्घ नहीं पहुँच रहे हैं उन तक !
उसे अधर में ही रोक लिया है उनकी वेदनाओं के आर्तनाद ने…
माँ के कपकपाते हाथों ने तो नहीं पर मेरी ही नियत ने अवरुद्ध कर दिया है मेरे शुभ कर्मों के प्रभावों को,जिसको मैं जब- तब दंभ में चूर हो,प्रयोग में लाती थी अपने हर कर्म के बचाव में…
जवानी के दिनों में मेरी समस्त चेतना को कैद कर लिया था कभी न पूरी होने वाली वासनाओं और बजबजाते इच्छाओं के रंगमहल ने…
और अब मार की सेनाएं पृथ्वी पर वापस भेज रही हैं,स्वर्ग के देवताओं को सम्बोधित मेरी समस्त प्रार्थनाएँ…
अकेलेपन से भयभीत मेरी प्रार्थनाएं अब नहीं पहुंचेंगी पितरों के लोक तक,जानती हूँ लिखे जाने वाले शब्द व्योम में घूमते रहेंगे अनंत तक,
और अर्थ समा जाएंगे “कृष्ण विवर” में…
प्रेम में पगे भाव बीन बीन कर खा रहे हैं पीठ पर छुरा घोंपने वालों के पात्र से गिरी झूठन …
ब्रूटसों की भूख की हूक से कम्पित हैं देवालय ,
सीजर की चीख से भयभीत हैं देवदूत,खण्डित हो गई हैं मूर्तियां अश्विनीकुमारों की…
कर्ण हैं आश्चर्य में,क्या मैंने इसी धरा पर जन्म लिया था!उनकी वंशावली कलप रही है,क्या सिखाकर गए हे दानवीर?
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