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आशुतोष के लिए...




 एक नदी थी पहाड़ों की, उसे पार किया तो देखा अनेकों परछाईयाँ पीछे पीछे आ रहीं हैं, न जाने मेरी धीमी चाल से या मेरे पैरों में धंसे कीलों को सीढी़ समझकर एक-एक परछाईयों ने मेरी आत्मा में घुसपैठ की,अर्थों के गद्दारों का साथ लेकर। बेचारे शब्द! ओह! जिनके चिथड़े रह-रहकर हवा में उड़ जाते परछाईयों की यह बात सुनकर,जो वे मुझसे कहते कि हम तुम्हारी आत्मा में धंसी कीलों को निकाल देंगे...

कील को और गहरे धंसा वे एक-एक कर मुझसे होकर गुजर जाती थीं, मैं देखती नहीं थी उनमे से किसी की हैसियत, उनके कपड़े, उनके चेहरे, उनकी आंखें, जहाँ शील का पानी अपनी आखिरी सांसे गिनता था। किन्तु उनके शब्द के राज सुलझाते-सुलझाते नाखूनों का एक पूरा जंगल मेरी देह पर उग आता जबकि पुराने मेरे घाव नहीं भरते थे... 

किन्तु अनजान अजगर मुझको पूरी तरह निगल जाए, इससे पहले उस आदिम अभिनिवेश के कारण मैने अपनी आत्मा के एक उजले टुकड़े पर विदा का रन्दा चलाया कि नदी पार के फूहड़ता और अव्यवस्थित रसोईघर में एक कोना साफ-सुथरा मिल सके।जैसे किराये के उस घर में एक चौकी और आलमारी पर मेरी पुस्तकें मुस्कुराती रहतीं थीं हर हाल में...

और मैं वहाँ बैठकर दो-चार पुस्तकें लिख सकूँ ताकि यदि बीहड़ में किसी को अहसास हो कि वह भटक गया है, फंस गया है शब्दजाल में, मेरी पुस्तकें जंगल में खड़े प्रकाश फैलाते किन्तु उपेक्षित लैम्पपोस्ट की तरह उसकी सहायता कर सके। क्योकि कहे गए शब्दों का सुने गए कान वही तात्पर्य लेते हैं जैसी देह पर वे उगे होते हैं ... 

और इसलिए भी कि विश्वास का ईश्वर जख्मी होकर, शैतान से मुकाबले में बाहर न हो जाए।आखिर यह उसी की कामना थी कि वह अनेक हो जाए... 

इसलिए विदा हमेशा पीड़ाओं की नागफनी लेकर नहीं आता संतुष्टि की एक कप चाय भी देता है,जबकि हर विदा मेरे अंदर के बीहड़ को और फैला देता है... 




Comments

Unknown said…
Koshish accha hai lekin kuch shabdon ka paryayvachi khojo
Anuradha said…
धन्यवाद... 🙏
आगे ध्यान रखेंगे इस बात का ।

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