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Showing posts from November, 2022

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

एक शिविर से लौटने के उपरांत...

दुनिया भर के दुख को सहते हुए भी मनुष्य मरना नहीं चाहता।जीवन से उसका मोह बना रहता है।यही मोह उसे मृत्यु के समय देह का त्याग करते हुए उसके अथाह पीड़ा और पुनः भवचक्र में फंस जाने का कारण बनती है।यही मोह मां के गर्भ से बाहर आने पर होने वाले कष्ट का कारण बनती है।यही मोह अगले किसी जनम में,किसी योनि में उसकी व्याकुलता का बीज बोती है।उस सुख की तलाश में जो पिछले जीवन में मिला था,उसको ढूंढते हुए बैचेन फिरता है पर सुख किसी ठौर मिलता नही।  किंतु मनुष्य से बढ़कर छलिया भी भला कौन है!वह स्वयं को छलने में ही अत्यंत माहिर है।वह दूसरे किसी सुख,मोह,पीडाओं का आसरा ढूंढ लेता है और एकबार फिर स्वयं को छलते हुए नये जीवन की दुश्वारियों में खुद को घेर लेता है।वह ठहर जाता है अपनी व्याकुलता,अपनी बैचेनी के मूल तक जाने से और बुद्ध के शब्दों में यह भव चक्र चलता रहता है और मनुष्य का मन कभी उस चक्र से बाहर नहीं आ पाता।संभवत: विज्ञानवादी यही कहना-समझाना चाहते थें कि सबकुछ आत्मारोपित है।मानव मन अथवा चेतना की ऐसी कोई धारा,ऐसी कोई वृत्ति नहीं जो बाहर से आती हो!सबकुछ हमारे ही द्वारा रचा गया है।संभवतः इसीलिए यदि ईमानदारी से

हेमंत - पहला भाग

  हेमंत ( ऋतुओं का चक्र जाने क्या भेदने के लिए घूमता है, चित्त को व्याकुल किए रहता है किंतु मन है कि अपने ही वृत्तियों के जंजाल में फंसा रहता है)  यूँ तो हेमंत पर कुबेरनाथ राय जी ने जो लिखा है,उसके बाद क्या शेष रह जाता है और कुछ लिखने को!फिर सोचती हूँ यह तो उनकी बात हुई,उनके मन की बात हुई।वह हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं।मुझमें न वह ज्ञान,न भाषाशैली।किंतु वह भाव जो हेमंत को लेकर मुझमें है,जिसे प्रकट कर देना चाहिए अपनी टूटी-फूटी भाषा में ही।क्योंकि लिखना एक तरह से टाॅनिक का काम करता है।वह भी अवसाद के माह हेमंत में!करूणा के माह हेमंत में।हेमंत के बहाने हो सकता है वह सूक्ष्म स्थिति चित्त की पकड़ में आ जाए जो समय के मकड़जाल से,मन के चक्रव्यूह से संभवतः चेतना को निकाल उसे मुक्त कर सके।प्रतीत्यसमुत्पाद के,भव के चक्र से चेतना को बाहर निकाल सके।                कुबेरनाथ राय अपने एक निबंध का शीर्षक देते हैं 'भाई फागुन,हिम्मत मत हारना'।मैं सोचती हूँ यह तो हेमंत को कहना चाहिए कि 'भाई हेमंत,हिम्मत मत हारना'।वहाँ यदि पतझड़ है तो पतझड़ का वैराग्य बसंतपंचमी में घुल बसंतोत्सव मना

घर से लौटने की पीड़ा...

            चित्र घर से लौटते वक्त रेलगाड़ी से ली गई...  घर! भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता की  कुछ लाइन्स हैं,- मैं मजे में हूँ,सही है, घर नहीं हूँ,बस यही है।  लेकिन ये बस बड़ा बस है,इस बस से सब विरस है।  यकीनन,घर से दूर सब दुनियाभर के आराम हो,शान हों लेकिन एक समय के बाद घर पर बस यूँ ही पड़े रहना कभी खाली,इसमें बहुत कुछ भरा होता है।इतना कि यह सांसों में जीवन भर देता है।  दुर्गापूजा और दिवाली-छठ मिलाकर उत्तर प्रदेश और बिहार में एक माह के अंदर में लगभग सप्ताह भर की छुट्टी मिल जाती है।मैं भी इन छुट्टियों में घर गई, बहन के घर गई।आज के समय या कहें कि किसी भी समय में माँ-बाप के बाद भी भाई-भौजाई-बहनें यदि पूछ लें तो मैं समझती हूँ यह भी जीवन का सौभाग्य है।न जाने किसके आशीर्वाद से यह सौभाग्य अब तक जीवन में व्याप्त है।बस एक कचोट रह गई मन में कि इस बार गाँव जाना न हो पाया।जबकि गाँव की याद रह रहकर गर्मी की छुट्टी से लौटने के बाद आ रही थी मानो कोई प्रतीक्षारत हो वहाँ।अब तो होली पर ही शायद जाना हो सके।  बहरहाल,  इस बार घर से लौटते समय यूँ ही अचानक ट्रेन के माहौल पर ध्यान गया।या कहें कि प्रशांत भ

भारतीय बौद्धिकता की दरिद्रता...

भारतीय बौद्धिकता अथवा भारतीय शिक्षा व्यवस्था की दरिद्रता तो देखिए!लगभग 27 वर्षों से अंग्रेजी और हिंदी में हर माह प्रकाशित होने वाली पत्रिका राजनेताओं,खिलाड़ियों,फिल्मी भांड-भांड़िनियों से नीचे गिरते हैं तो ऐसे संस्थानों और उनके रहनुमाओं को अपने मुखपृष्ठ पर स्थान देते हैं जिन्होंने शिक्षा को व्यापार बनाने और उसे बाजार के हाथों सौंप देने में अतुलनीय योगदान दिया है।जिन्होंने शैक्षणिक संस्थानों की हालत बद से बदतर करने में अभूतपूर्व योगदान दिया है।  क्या किसी विश्वविद्यालय,महाविद्यालय अथवा विद्यालय में ऐसे शिक्षक बचे ही नहीं हैं जो किसी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर स्थान न प्राप्त कर सकें?  बहरहाल,  इनमें से खान महोदय की जो भाषा-शैली है पढ़ाने की,उसे हमारे यहाँ "लवंडों" की भाषा-शैली कहते हैं।यही ढंग एक शिक्षण संस्थान का शिक्षक अपना ले,तब यही समाज उल्टे उसे पढ़ाने का ढंग सिखाने लगेगा।विकास दिव्यकीर्ति जी को क्या कहा जाए! महानायक हैं इस जमाने के।इन चारों में से सबसे अधिक छद्म आवरण धारण करने वाले।बाकी दोनों तो इतने इरीटेटिंग और तर्कहीन-तथ्यहीन हैं कि उन्हें दो मिनट सुनना भी न हो पाए।किंतु