'सुख' बस इतना ही है,भगोने से चाय को कप में डालने तक। उसके बाद सुख की तीव्रता वैसे ही कम होती जाती है जैसे जाड़े के मौसम में पलभर में चाय ठंडी हो जाती है।क्या नही? सोचकर देखें जरा!
हम कितने खुश होते हैं,एक उन्माद जैसी अवस्था में होते हैं जब गरमागरम चाय को कप में उड़ेल रहे होते हैं कि अब चाय के कप संग बैठकर इत्मीनान से उन सब बातों पर सोचेंगे जिन्हें जिंदगी की आपाधापी में हमने सोचने तक से टाला होता है।कितने मुतमईन होते हैं कि एक कप चाय पीने भर तक यह जीवन केवल और केवल अपना होगा।जहाँ हम बंटे नहीं होंगे तमाम दुनियावी रिश्तों में और उत्तरदायित्वों में।हम बैठेंगे चाय पर उसके साथ जिसके साथ बैठना चाहते हैं, भले वह व्यक्ति पास हो न हो!
किंतु जैसे ही चाय कप में भर जाता है, हम भी निकल आते हैं इस सुकुन भरे सोच से और हमें घेर लेती है ये दुनिया। फिर तो घूंट दर घूंट उतरती जाती है न केवल हलक में चाय बल्कि उसके साथ फुरसत के पल भी खाली होते जाते हैं समय के कप से।
यहाँ मुझे गोपालदास नीरज के गीत 'कारवां गुजर गया', की पंक्ति याद आती है, "उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहें", ठीक वैसे ही चाय के कप के साथ मैं हर रोज 'सुकुन के पलों के चढ़ाव का उतार' देखती हूँ।
तो बात बस इतनी है कि सुख बस उतने ही क्षण है जब तक चाय कप में उड़ेली जाती है।उसके बाद सुख की वह तीव्रता कहाँ!बाकी उसके बाद केवल छल है,भ्रम है,विवर्त है। ठीक वैसे जैसे यह संसार...
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