मिट्टी का चूल्हा,आसमान का मुंह ताकती रसोई,रसोई को छत के रूप में दो नीम के पेड़ों का आसरा।चूल्हे पर पकता दाल,भूख से व्याकुल चूल्हे के पास बैठी मैं और तमाम चिंताओं को परे रख जल्दी से दाल पक जाए,(क्योंकि चावल और सब्जी तो जल्दी बन जाते लेकिन दाल में समय लगता था) इस व्यवस्था में लगी हुई 'माँ।
खुला कच्चा आंगन,आंगन के उसपार ओसारे में बैठे पिता।ओसारे से रसोई तक इधर-उधर फुदकती मैं,कभी पिता को चाय देने,कभी पिता का कोई संदेश माँ को पहुंचाने के लिए।मैं थोड़ी देर रसोई में उसके पास बैठ जाती तो माँ कहती 'ज्जा ओसरवे में बइठा बाऊजी के लग्गे,थोड़के देरी में बन जाला खाना'।किंतु मुझे उसके पास बैठना अधिक अच्छा लगता था क्योंकि रसोई के छत के रूप में उन दो नीम के पेड़ों की छांव में बैठना मुझे सबसे अच्छा लगता। कारण,जगजीत सिंह की गजल, ' हम तो हैं परदेश में', में एक लाइन है-' आंगन वाली नीम पे जाकर अटका होगा चांद',गांव वाले घर के आंगन में लगे उन दो पेड़ों पर मैंने चांद को सच में अटकते हुए देखा है जाने कितनी अनगिन रातों में और इसलिए दिन के उजियारे में नीम के साथ चांद की प्रतीक्षा करते हुए चूल्हे के पास बैठना भाता था मन को।
उधर चूल्हे से निकलते धुएं के बीच मुझे बैठा देख मुझे आवाज देते पिता और अपनी किस्सों की पोटलियों में से कोई किस्सा सुनाकर मेरा दिल बहलाने की कोशिश करते कि मैं उनके पास ही बैठी रहूँ।किंतु मैं भाग-भाग उस खुले आंगन की रसोई में ही चली जाती।
आज न कच्चा आंगन है,न मिट्टी का चूल्हा,रसोई भी आधुनिक सुविधाओं से युक्त हो गई है,न खाने का वो स्वाद,न नीम का वो पेड़।उनपर अटकने वाला चांद उनके बिना तन्हा भरे आकाश में,जैसे मैं माँ के बिना,पिता के बिना संबधों से भरे इस संसार में।
हमने बचाकर रखा है बस माँ के हाथों से बनी मिट्टी का चूल्हा बड़े जतन से।मानो कितना अनमोल खज़ाना हो वो मिट्टी का चूल्हा।लगता है चूल्हे के चारों ओर आज भी मां के प्रेम का औरा है।माँ
का स्पर्श चूल्हे की मिट्टी के हर कण में समाई है।माँ की चिंताएं सब आज भी प्रतीक्षा में रहतीं हैं अपने बच्चों की।
माँ का जन्मदिन है कल। हम बड़े गर्व से माँ का जन्मदिन मनाते थे क्योंकि इस बात की हम सब भाई बहनों को बड़ी खुशी है कि माँ का जन्म उसदिन हुआ जो देश की स्वतंत्रता का दिन है।हम भाईबहन आज भी हर जानने वालों को बताते हैं माँ के जन्मदिवस के बारे में। हमारे लिए 15 अगस्त त्यौहार से कम न होता था व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों में।
आज तुम होतीं इस दुनिया में तो कल केक आता घर।और तुम सकुचाते,हम भाई-बहनों को चार बात सुनाते केक काटतीं।पिता तुम्हारा मजाक उड़ाते और हमारे पक्ष में दलील देते कि 'बुढ़ौती में केक काटत हऊ लड़कन के वजह से,त काटा,बेचारन के चार बात सुनावत का हऊ',और उनकी इस एक बात पर तुम्हारे चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के बीच गर्व की रेखाएँ उभर आतीं।
ढलती उम्र में तुम्हारे चेहरे पर उभर आए उस गर्व और प्रेम की स्मृतियों से ही मेरा वर्तमान कट रहा है जो तुम्हारे बिना बड़ा ही बदरंग और बदजायका है। यूँ तो एकपल को भी चित्त से तुम्हारी स्मृति जाती नहीं किंतु यूँ कभी जनमदिन, कभी किसी बहाने तुम्हें याद करना पूजा में बैठने जितना पवित्र लगता है…
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