दुर्गाष्टमी एवं रामनवमी पर बीते दिन की स्मृतियों में प्रवेश!मानो स्व से स्व की वह यात्रा,जिसपर हम एक साथ जाना भी चाहते हैं और नहीं भी जाना चाहते। कारण कि जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं,अपने-अपने दुखों,अपने-अपने सुखों के साथ अकेले रह जाते हैं।सुख यह की माँ-पिता की अधूरी इच्छाएं स्वयं के जीवन में यथार्थ बन उतरीं।उन अधूरी इच्छाओं ने जीवन में कुछ करने के लिए शक्ति और प्रेरणा पूरी दी।दुख यह कि उन इच्छाओं के पूरे होने के बाद भी हम अपने जीवन में अधूरे रह जाते हैं।
बहरहाल…
दुर्गाष्टमी है आज!अभी सांझ को जब गली-मोहल्ले में आज रात्रि को होने वाली पूजा के निमित्त हो रही तैयारियों की मां के बजने वाले गीतों के माध्यम से सुना तो स्मरण हो आया कि माँ अष्टमी की पूजा के लिए कई दिनों पहले से ही तैयारियों में जुट जाती थी।उस कमरे की जिसमें पूजा होना होता था,उसकी साफ-सफाई अष्टमी की सुबह से ही आरंभ हो जाती थी।मुझपर विशेष दृष्टि मां की रहती थी कि मैं कहीं कुछ गड़बड़ न करूँ।
कमरा जो साफ-सफाई से या सच में मानो माँ आज रात्रि आने वाली हों,इस सोच से कमरा एक अनोखे सुगंध से सुगंधित और तेज से आलोकित हो उठता था।मन उस सुगंध और कमरे में फैले प्रकाश से प्रकाशित हो उठता था और उस प्रकाश में मन की समस्त वासनाएं,बुरी वृत्तियाँ मानो दो दिनों के लिए अदृश्य हो जाती थीं।समाप्त तो नहीं होती थीं अन्यथा मन पुनः उनके फेरे में न पड़ता।आत्मा पुनः जन्मों के फेरे में न पड़ता।जन्मों के फेरे में पड़ कलुषित न होता!
और तब ऐसे शुद्ध-स्वच्छ-निर्मल-निष्कलुष वातावरण में मैं भी अपनी दिनभर की लापरवाही पर कुछ लज्जा का अनुभव करती।और अपनी ओर से प्रयास करती कि अब माँ की पूजा में मेरी ओर से कोई विघ्न न हो।अब फिर से न जननी रूठें,न जगज्जननी रूठें।
अपनी दिनभर की लापरवाही के पश्चाताप से मैं उससमय जगने का संकल्प कर सोने जाती जब माँ उठकर माँ की पूजा करें।किन्तु संकल्प अधूरा रहता और कब निद्रा देवी अपनी शरण में ले लेती,न मालूम पड़ता था उन दिनों।
किंतु सब पश्चाताप,समय पर न जग पाने का दुख, माँ का क्रोध,माँ की चिंता,अपनी लज्जा,संकल्प का अधूरापन प्रातः स्वादिष्ट व्यंजनों की सुंगध में व्यंजनों संग घुल उदरस्थ हो जाने को बैचेन हो उठतीं थीं।
और फिर वह वर्ष आया जब मैंने नवरात्रि का व्रत रहना आरंभ किया।अब मां का पूजापाठ,साफसफाई में पड़ने वाले व्यवधान से उत्पन्न क्षणिक क्रोध मेरी चिंता में बदल गया तब से।माँ दुर्गाष्टमी की पूजा की तैयारियों संग कुछ इस बात से संतोष पाती थी कि अब मेरा व्रत पूर्ण होने वाला है।जब से होश संभाले तब से चैत्र दुर्गाष्टमी की कुछ इस तरह लापरवाही से आरंभ मेरी यात्रा नवरात्रि के व्रत रखने पर जाकर रूकती है या कहें कि नवीन यात्रा पर चलती है। जगज्जननी,जननी और संतान की प्रत्येक दुर्गाष्टमी पर बनने वाली यह प्रेमपूर्ण जुगलबंदी के अनेकों स्मृतियाँ जीवन संगीत बन मेरी आत्मा को उसी तरह निष्कलुष बनाए रखती है जैसे गंगा में डुबकी लगाने पर सब पाप धुल जाते हैं ।
किंतु! किंतु जैसा कि यह शब्द जीवन में कभी न कभी किसी न किसी मोड़ पर आता ही है!यह 'किंतु' मेरे जीवन में भी आया-जब घर छोड़ हास्टल की राह पकड़ी!फिर माँ ने बीमारी के कारण बिस्तर पकड़ा। किन्तु फिर भी दुर्गाष्टमी पर सब परिवार इकट्ठे हों,माँ की इस बत का पालन सब करते और प्रत्येक दुर्गाष्टमी पर हम इकट्ठे होते।फिर नौकरी लगी,शहर छूटा और यह अष्टमी की पूजा पर इकट्ठे रहने का मेरा संकल्प भी छूटा।किन्तु प्रत्येक चैत्र_दुर्गाष्टमी पर मुझे बुलाए जाने का रिवाज अब भी बना है।यद्यपि यह भलीभाँति जानना चाहिए कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
और परिस्थिति कैसी भी हो,माँ की ममतामयी छाया, प्रेम भरा स्पर्श मुझ मूढ़ पर सदैव बनी रहे,बस यही कामना है।माँ के सब भक्तों पर माँ अपनी कृपा बरसाती रहे।प्रकृति और समय हम अल्पज्ञों के लिए सदैव सहाय हो,इस मनोकामना के साथ समस्त देशवासियों को चैत्र_दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं…💐🙏🙏🙏
रघुनन्दन राजाराम के जन्मदिवस(रामनवमी) की हार्दिक शुभकामनाएं…🚩🙏🙏🙏
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