कैसे हो?कैसी हैं?...
दुनिया के कठिनतम प्रश्नों में से एक यह प्रश्न प्रतीत होता है मुझे।गणित के सवालों से भी कठिन,जिससे पीछा छुटने का मैं स्वप्न देखती रहती थी।किन्तु यह प्रश्न तो औपचारिकता/अनौपचारिकता में लगभग हर दिन ही कोई न कोई पूछ लेता है।इसके घेरे से बजाय छूटने के कभी कभी किसी एक दिन में दो -चार बार इस प्रश्न को हल करने पड़ते हैं।
सच कहूं तो क्षणभर के लिए मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि क्या उत्तर दूं?किन्तु उत्तर तो कुछ न कुछ देना ही पड़ता है क्योंकि पूछने वाला अक्सर ही जल्दी में रहता है,उसके पास इतना समय भी नहीं कि मेरे उत्तर देने के अंतराल भर के समय में रूक सके और नहीं उत्तर मिला तो अगले को लगेगा मैं अत्यंत रूखे स्वभाव की हूँ या कि संभवतः पागल/मूडी हूँ या कान से कुछ सुनाई कम देता हो!
यूँ तो अगला क्या कहता या सोचता है मेरे विषय में,यह बहुधा मेरी चिंता का विषय नहीं होता।मुझे वास्तव में यह प्रश्न बड़ा बेहूदा लगता है।कठिन तो है ही!बहरहाल,
कठिन इसलिए कि वो जो मेरी सलामती चाहते हैं,मेरे प्रसन्न-स्वस्थ रहने की प्रार्थना-कामना करते हैं,उनसे कैसे कहूँ कि पता नहीं,कैसी हूँ!ऐसा भला क्यों कि मुझे यह नहीं पता कि मैं कैसी हूँ,यह मैं नहीं जानती!तो बात इतनी सी है कि कई बार ऐसा होता है कि बिलकुल ठीक होती हूँ किन्तु यह ठीक होना इस संसार में परिवर्तनशील है!दूसरा बाह्य रूप से ठीक होने पर भी अन्तर्मन न जाने क्यों ऐसा ऊबा है इस संसार से कि सबकुछ ठीक होते हुए भी कुछ ठीक लगता नहीं।
दूसरी ओर ठीक नहीं होती हूँ तो ये भी जानती हूँ कि माया के रचे इस संसार रूपी खेल में ठीक न होना भी उसी का खेल है और यह भी परिवर्तित होगा,इसलिए चिंता की कोई बात नहीं।लेकिन अपने तो अपने होते हैं,जरा सी बात पर परेशान-चिंतित हो जाते हैं,इसलिए बताना ठीक नहीं लगता।
किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस प्रश्न को कठिन और बेहूदगी से भरा बनाती है मेरे लिए वह यह कि वे जिन्होंने कभी दिल दुखाया,चोट दी,वे जब पूछते हैं, कैसी हो?,कैसी हैं?,तो जी में आता है कि उत्तर देने के स्थान पर कहूँ कि यह पूछने में क्या शर्मिंदगी नहीं होती!इतने बेगैरत कैसे हो गये कि पहले तो दिल दुखाया फिर पूछते हो कि कैसी हूँ!ऐसी भी क्या ढिठाई!क्या आवश्यकता भला इस बेशरमी की!अगर पीछे कोई स्वार्थपूर्ति हेतु पूछ रहे थे हाल तो अब स्वार्थपूर्ति होने पर भला क्या बेशरमी!किस औपचारिकता में वापस आना मात्र इस प्रश्न के लिए!प्रश्न जो किसी पुष्प की भांति नाजुक है, अपनों के पूछे जाने पर आत्मीय था,उसे इतना कठिन,उलझा हुआ बनाने के लिए लौटना! हे मनुष्य कुछ तो सुंदरता धरती की बची रहने दो!कोई एक पुष्प को अपनी पूरी सुंदरता के साथ खिलने दो!
बाकी इससे अलग जो भीड़ है,उस भीड़ का जैसे चेहरा नहीं होता,वैसे ही वह भीड़ सुनती भी कहाँ है,समझती भी कहाँ है!चेहरे की भांति उसके कान कहाँ!ह्रदय कहाँ!
किन्तु फिर भी मेरी ओर इस प्रश्न के आने पर विवशतावश यह उत्तर मुझे देना पड़ता है और इस उत्तर के ठीक जवाब न देने पर आगे बढ़ सोचती हूँ मै पुनः इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण रह गई कि मैं वास्तव में कैसी हूँ।इसको जानकर कि मैं कैसी हूँ इसका सही-सही उत्तर दे सकूँ!अथवा वह जो बात सच में मेरे ह्रदय में है,वही कह सकूँ!जब कोई मुझसे पूछे कि कैसी हो!कैसी हैं!
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